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शकील अख्तर
चुनाव हो गया। कांग्रेस को आज नया अध्यक्ष मिल जाएगा। दो दशक से ज्यादा समय के बाद सोनिया गांधी अब पूर्णत: कार्यमुक्त होने जा रही हैं। गजब! शानदार, बेहद उथल पुथल वाले दौर में कांग्रेस के चुनौतिपूर्ण नेतृत्व करने के बाद सोनिया की विदाई कांग्रस की महान लोकतांत्रिक परंपराओं के अनुरूप रही। चुनाव से मतदान से नया अध्यक्ष। सोनिया ने वोट डालते जाते समय बिल्कुल सही कहा और अनायास। अपने निवास 10 जनपथ से 24 अकबर रोड कांग्रेस मुख्यलय में आने के अन्दरुनी रास्ते पर खड़े पत्रकारों द्वारा सवाल उछालने पर। " इस दिन का इंतजार बहुत समय से था। " किस दिन का?
इसके जवाब दो हैं। पहला लोकतांत्रिक तरीके से हुए चुनाव के बाद नए अध्यक्ष को कार्यभार सौंपना। और दूसरे परिवारवाद, वंशवाद के आरोपों को धराशाई करते हुए बाहर के अध्यक्ष को सौंपना। याद कीजिए सोनिया ने 2017 में भी ऐसे ही चुनाव करवाए थे। बाकायदा सेन्ट्रल इलेक्शन अथारटी बनी थी। उसकी सूचना मीडिया को दी गई थी। अथारटी ने चुनाव का नोटिफिरेशन इशु किया बाकी कार्यक्रम जारी किया। राहुल गांधी ने कहा कि जिसे भी लड़ना है आए। मगर नामाकंन के आखिरी दिन तक कोई उम्मीदवार नहीं आया। केवल एक फार्म था। और वह जिनका नाम राहुल गांधी था और जो उस समय भी अध्यक्ष बनने के इच्छुक नहीं थे, उनका था और वे अध्यक्ष बन गए।
गाली देना तो आसान है। कोई भी दे सकता है। मगर यह सोचना भी मुश्किल है कि कोई लगातार कई सालों से कोई पद लेने से इनकार करता रहे। केवल अपनी आत्मा की आवाज सुने और सब की मांग जिनमें हजारों हजार कांग्रेस कार्यकर्ता भी शामिल हों उनकी बात विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करता रहे। सबको याद होगा कि बड़ी मुश्किल से वे संभवत: 2007 में कांग्रेस महासिचव बने थे। उसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी मंत्रिमंडल में शामिल होने को कहा मगर जैसा कि अभी उन्होंने एक कार्यक्रम में कहा कि सत्ता मुझे आकर्षित करती ही नहीं है, मंत्री नहीं बने। सच तो यह है कि वे चाहते तो प्रधानमंत्री भी बन सकते थे। मगर उन्होंने सोचा तक नहीं। और जब 2017 में कांग्रेस कार्यकर्ताओं के भारी दबाव के बाद वे पार्टी अध्यक्ष बनने पर तैयार हुए तो उन्होंने कहा कि चुनाव पूरा विधिवत पारदर्शी होना चाहिए।
चुनाव हुआ। मगर यह सही है कि उस समय राहुल को बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि कार्यकर्ता तो उन्हें अध्यक्ष पद पर देखना चाहते हैं। मगर बड़े नेता फूटी आंख भी नहीं। उनके काम सोनिया गांधी से सधते थे। सोनिया जब 1998 में अध्यक्ष बनीं तो राजनीति में बिल्कुल अनुभवहीन थीं। राजीव गांधी के पावर में रहते हुए उन्होंने कभी राजनीति में रूचि नहीं ली। राजीव गांधी की आतंकवादियों द्वारा निर्मम हत्या के बाद तो वे सार्वजनिक जीवन से बिल्कुल विरक्त हो गईं। लेकिन जब कांग्रेस को जरूरत पड़ी। और कार्यकर्ताओं के अलावा वरिष्ठ नेताओं ने लगातार उनसे कांग्रेस को बचाने के लिए नेतृत्व संभलने के लिए अनुरोध किया तो अन्तत: वे मानीं। खूब मेहनत की। लोगों से मिली। और वरिष्ठ नेताओं का पूरा सम्मान किया। उनकी बात सुनी। और यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि जरूरत से ज्यादा सुनी।
बस उसके बाद कांग्रेस के नेताओं की लाटरी खुल गई। उनकी सलाहें कांग्रेस के हित से ज्यादा स्वहित की होने लगीं। बातें बनाने में तो आपको पता है कि कांग्रेसी कैसे सिद्धहस्त हैं। अपने लाभ की बात वे ऐसे बताते थे कि उसके होने से कांग्रेस का कायाकल्प हो जाएगा। ऐसा नहीं है कि सोनिया समझती न हों। मगर वे जरुरत से ज्यादा लिहाजी थीं। जिन लोगों ने बुरे वक्त में कांग्रेस का साथ दिया उन्हें निराश नहीं करती थीं। इसीका नतीजा था कि सोनिया गांव गांव घूमकर जैसे आज राहुल सड़कों पर हैं 2004 में सरकार तो ले आईं। मगर उसे काबू में रखने की सख्ती, निर्ममता अपने अंदर नहीं पैदा कर सकीं। अगर 2009 की जीत के बाद जो शुद्ध रूप से सोनिया की किसान हितैषी, गांव समर्थक नीतियों और कार्यक्रमों की थी वे थोड़ा अंकुश लगाना सीख लेती तो न अन्ना का आंदोलन इस तरह बेखटके चल पाता और न 2014 के चुनाव में कांग्रेस की ऐसी हालत होती।
राहुल इस सबके दृष्टा थे। हस्तक्षेप नहीं करते थे मगर कांग्रेस के चालाक नेता सब समझ जाते थे कि राहुल की आंखों से कुछ नहीं बच रहा। खानदानी शराफत के मारे हैं तो मां के निजाम में कुछ नहीं कहेंगे लेकिन अगर इनके हाथ में गया तो मनमानी नहीं चल पाएगी। इन वरिष्ठ नेताओं का गठजोड़ कितना मजबूत है यह इससे समझ लेना चाहिए कि न केवल 2019 में इनके असहयोग की वजह से राहुल को अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा बल्कि यह फिर सोनिया को वापस लेने में कामयाब हो गए।
और अब इस चुनाव में वे फिर अपनी पसंद का अध्यक्ष बनाने में सफल हुए। देखना दिलचस्प होगा कि नए अध्यक्ष जो कि खड़गे जी बन रहे हैं कैसे गांधी नेहरू परिवार और पार्टी के दूसरे महत्वाकांक्षी नेताओं के बीच संतुलन साध पाते हैं। यह भी देखना होगा कि राहुल संगठन के मामलों में कितनी दिलचस्पी लेते हैं। अगर जैसा कि वे अति लोकतांत्रिक, शक्तियों के विकेन्द्रीयकरण के पक्ष में दिखते रहे हैं, वैसा ही उच्च आदर्शवादी रवैया रखेंगे तो उनके सहारे राजनीति करने वालों को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। कांग्रेस में उथल पुथल का माहौल बनेगा।
उस हद तक तो शायद नहीं जैसा 1991 से 1998 तक हुआ था। कांग्रेसी नेहरू गांधी परिवार को भूलकर नरसिंहा राव और फिर सीताराम केसरी के पास चले गए थे। मगर हां कुछ तो नए अध्यक्ष का दरबार मजबूत होगा और राहुल की बात के वज़न में थोड़ी कमी आएगी।
यह सारी चीजें दिलचस्प रहेंगी। कांग्रेस की राजनीति का एक नया दौर होगा। और खासतौर से राहुल के लिए कि वे पहली बार परिवार के बाहर के अध्यक्ष के साथ काम करेंगे। हां यह सही है कि प्रधानमंत्री मोदी, भाजपा, अन्य विपक्षी दल जो राहुल की हैसियत कम करने के लिए बाहर का अध्यक्ष चाहते थे और मीडिया के साथ कांग्रेस के भी कई नेताओं के लिए आज बुधवार, 19 अक्तूबर का दिन बड़ा सौभाग्यशाली होगा कि उनकी कोशिशें रंग लाईं और करीब 24 साल बाद कांग्रेस में ऐसा अध्यक्ष बनने जा रहा है जो खुद मं शक्तिहीन होगा। अपनी ताकत के लिए वह बार बार या तो नेहरू गांधी परिवार की तरफ देखेगा या उन वरिष्ठ नेताओं के समूह की तरफ जिन्होंने उसे बनाया है। और अगर ऐसे में उसने खुद से शक्ति पाने की कोशिश की। अपना गुट बनाया को वह खुद का भी और कांग्रेस का भी बड़ा नुकसान कर जाएगा।
खैर इन सब बातों पर बाद में बहुत लिखा जाएगा। लेकिन आज जो खास चीज लिखने की है और जिससे शुरू भी किया था वे हैं सोनिया गांधी। कांग्रेस के सबसे कठिन समय में उसकी पुकार सुनकर, अपनी राजनीतिक अनभिज्ञता, बच्चों की जिम्मेदारी और सुरक्षा के खतरों के बावजूद पार्टी की जिम्मेदारी उठाकर उन्होंने बहुत बड़ा काम किया था। अगर वे उस समय सिर्फ अपने परिवार, बच्चों की ही सुरक्षा सोचकर नहीं आतीं तो आज कांग्रेस कहां होती कहना मुश्किल है।
कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए आज सोनिया के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करने का भी दिन है।
"ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।"
कबीर का भजन है। और इस दोहे की पहली पंक्ति है –
दास कबीर जतन करि ओढ़ी,
ज्यों की त्यों . . .।
सोनिया ने वाकई इसे सार्थक कर दिया।