फाल्गुनी देवी के गम में, जिसने रास्ता रोका, उसे ही काट दिया

अगर दिल में प्रेम के साथ जूनून और दीवानगी पैदा हो जाए तो इंसान क्या नही कर सकता।

Update: 2019-05-29 05:40 GMT

बिहार। धड़कते हुई दिल का आभास है, जो कभी किसी के आगोश में धड़का करता था। एक जुनून है जो उम्र के साथ और बढ़ता जा रहा है। जिंदगी तो वैसे भी बिखरी हुई थी अपनी, अब अस्तित्व को बिखरा कर अच्छा नहीं किया, दीवानगी को गुजरे तो अर्से गुजर गए, प्रेम तो वो भी है, जब वो आपके बिना कहे ही समझ जाये कि आप खुश हो या दुखी, इन चंद शब्द के लाईनों को समझा जाय बहुत कुछ व्या करती हुई नजर आती है। नही तो ये कुछ नही।

अगर दिल में प्रेम के साथ जूनून और दीवानगी पैदा हो जाए तो इंसान क्या नही कर सकता। दशरथ मांझी, एक ऐसा नाम जो इंसानी जज़्बे और जुनून की मिसाल है। वो दीवानगी, जो प्रेम की खातिर ज़िद में बदली और तब तक चैन से नहीं बैठी, जब तक कि पहाड़ का सीना चीर दिया। जिसने रास्ता रोका, उसे ही काट दिया। बिहार में गया के करीब गहलौर गांव में दशरथ मांझी के माउंटन मैन बनने का सफर उनकी पत्नी का ज़िक्र किए बिना अधूरा है। गहलौर और अस्पताल के बीच खड़े जिद्दी पहाड़ की वजह से साल 1959 में उनकी बीवी फाल्गुनी देवी को वक़्त पर इलाज नहीं मिल सका और वो चल बसीं. यहीं से शुरू हुआ दशरथ मांझी का सफर और ये सफर तब तक नही रुका जब तक कि वो मुकाम पर नही पहुंच गया।

22 साल की मेहनत से पत्नी के चले जाने के गम से टूटे दशरथ मांझी ने अपनी सारी ताकत बटोरी और पहाड़ के सीने पर वार करने का फैसला किया। लेकिन यह आसान नहीं था, शुरुआत में उन्हें पागल तक कहा गया, दशरथ मांझी ने बताया था, 'गांववालों ने शुरू में कहा कि मैं पागल हो गया हूं, लेकिन उनके तानों ने मेरा हौसला और बढ़ा दिया' साल 1960 से 1982 के बीच दिन-रात दशरथ मांझी के दिलो-दिमाग में एक ही चीज़ ने कब्ज़ा कर रखा था। पहाड़ से अपनी पत्नी की मौत का बदला लेना, और 22 साल जारी रहे जुनून ने अपना नतीजा दिखाया और पहाड़ ने मांझी से हार मानकर 360 फुट लंबा, 25 फुट गहरा और 30 फुट चौड़ा रास्ता दे दिया।

दशरथ मांझी के गहलौर पहाड़ का सीना चीरने से गया के अतरी और वज़ीरगंज ब्लॉक का फासला 80 किलोमीटर से घटकर 13 किलोमीटर रह गया. केतन मेहता ने उन्हें गरीबों का शाहजहां करार दिया. साल 2007 में जब 73 बरस की उम्र में वो जब दुनिया छोड़ गए, तो पीछे रह गई पहाड़ पर लिखी उनकी वो कहानी, जो आने वाली कई पीढ़ियों को सबक सिखाती रहेगी.दशरथ मांझी ने असंभव काम को करके अपनी पत्नी को ऐसा तोहफा दिया जो कि अविस्मरणीय है

आपको बतादे कि दशरथ मांझी एक बेहद पिछड़े इलाके से आते थे और दलित जाति से थे। शुरुआती जीवन में उन्हें अपना छोटे से छोटा हक मांगने के लिए संघर्ष करना पड़ा। वे जिस गांव में रहते थे वहां से पास के कस्बे जाने के लिए एक पूरा पहाड़ गहलोर को पार करना पड़ता था। उनके गांव में उन दिनों न बिजली थी, न पानी, ऐसे में छोटी से छोटी जरूरत के लिए उस पूरे पहाड़ को या तो पार करना पड़ता था या उसका चक्कर लगाकर जाना पड़ता था। उन्होंने फाल्गुनी देवी से शादी की।

दशरथ मांझी को गहलौर पहाड़ काटकर रास्ता बनाने का जुनून तब सवार हुया, जब पहाड़ के दूसरे छोर पर लकड़ी काट रहे अपने पति के लिए खाना ले जाने के क्रम में उनकी पत्नी फगुनी पहाड़ के दर्रे में गिर गयी और उनका निधन हो गया। यह बात उनके मन में घर कर गयी। इसके बाद दशरथ मांझी ने संकल्प लिया कि वह अकेले दम पर पहाड़ के बीचों-बीच से रास्ता निकलेगा और अतरी व वजीरगंज की दूरी को कम करेगा। दशरथ मांझी का अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नई दिल्ली में पित्ताशय के कैंसर से पीड़ित मांझी का 73 साल की उम्र में, 17 अगस्त 2007 को निधन हो गया था। 

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