गोपालगंज से लेकर बिहार के मुख्यमंत्री पद तक का लालू प्रसाद यादव का सफर
लालू का कोई विकल्प नही है अगर लालू का कोई विकल्प हैं तो वो लालू खुद हैं।;
बहुत दिनो से सोच रहा था की इनके बारे में लिखूँ लेकिन विवादों से बचने के कारण ऐसा सम्भव नही हो पाया था लेकिन इनके बारे में अध्ययन अवश्य कर रहा था! खैर बात इन्ही की करते हैं।
लालू यादव गुमनाम तो बिल्कुल नही थे ये उस वक्त का दौर था जब इनका घर फूस का हुआ करता था और ये बहुत लम्बी लम्बी बाते करते रहते थे इनकी इकलौती बहन गंगोत्री देवी के मुताबिक इनकी बातोँ को हर कोई हवा में उड़ा देता था।
1970 के दशक में इनका राजनैतिक आगमन हुआ जे पी की अगुआई वाली आँदोलन में शामिल हो गये।1977 के दशक में छपरा लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी के तरफ से नामित हुये।
बाद में 29 साल के युवा साँसद का ठप्पा भी लगा जो की बिहार के लिये गौरव की बात थी,लालू यादव के बारे में कहा जाता रहा है की उनका कभी भी व्यक्तिगत मतभेद किसी से नही रहा है लेकिन वैचारिक मतभेद से हमेशा इन्होने सुर्खियाँ बटोरी हैं लेकिन सुर्खियों के साथ साथ राजनैतिक दुश्मनों का जमावड़ा भी इनके विरुद्द होने लगा था जैसा की इनकी बहन गंगोत्री देवी कहा था की इनके दोस्त इनसे जलते थे।
1990 से 1997 के दौर में बिहार में नायक फिल्म के अनिल कपूर की तरह काम करने का जज्बा था इनका क्या SP क्या DM सबकी सीधी क्लास ली जाती थी ऐसा करते करते ऐसा भी दौर आया जब वो गरीबों के मसीहा के रूप में स्थापित हो गये चूँकि इसमें कोई गुरेज नही है और सत्य है की इनकी तूती अवश्य बोलती थी बिहार में,साथ ही साथ बिहार में यादव समुदाय का अधिपत्य के मुखिया भी यही थे जो शायद इनके हिसाब से गरीबों के लिये जरूरी रहा होगा।
आडवाणी जी का रथ रोककर इन्होने एक सेकुलर नेता के रूप अपना लोहा मनवाया,स्टेशन पर कुल्हड़ में चाय हो या हेमामालिनी के गाल वाला वो बयान हर जगह कुछ न कुछ नया सोचते रहे बोलते रहे और उसे अमलीजामा भी पहनाया। कुछ ऐसे कार्य भी इनके माध्यम किये गये जिसमें इन्हे विरोध भी झेलना पड़ा जैसे चारा घोटाला इनमें शामिल हैं हो सकता है विरोधियों या राजनैतिक वैचारिक मतभेद के कारण इनको दंश झेलना पड़ रहा हो खैर इन्तेज़ार की घड़ी आज शायद खत्म हो जाये?
लालू यादव को के समर्थकों को लोग गुंडा बोलते हैं खैर इस बात से इस्तेफाक नही रखता हूँ लेकिन उदंड किस्म का रवैया अवश्य अपनाया जाता है इनके समर्थकों द्वारा चाहे वो बिहार बंद हो या रैली? लेकिन इसमें नुकसान राजनैतिक परिवेश में इन्ही का होता है।
इनके बारे में जानने के बाद सोचता हूँ की गरीबों का मसीहा कहा जाने वाला व्यक्ति आज कैसे हाशिये पर चला गया है लेकिन महसूस करने में वक्त नही लग रहा है की इनका उदय शायद ही होगा क्योँकि एक् तरफ वैचारिक दुश्मनों की लम्बी कतार ऊपर से संगीन आरोप,उसके अलावा इनके पुत्र के जनता के नब्ज को न पहचानने की कला जो इन्होने 1990 के दौर में किया था।
तेज प्रताप को लोग मजाक में लेते हैं कोई सीरीयस नही है उनके बारे में,तेजस्वी में सम्भावना दिख रही है लेकिन जमीनी हकीकत से वो कोसोँ दूर हैं ट्वीटर और फेसबूक में उलझकर भोज की चटनी की तरह बनते जा रहे हैं जो भोज के अंत में हमेशा खत्म हो जाता है वो इसीलिये की चटनी जायकेदार होती है और खूब खाई जाती है जैसे विरोधी दल इस चटनी को खाये जा रहे हैं ट्वीटर और फेसबूक के माध्यम से।
लालू का कोई विकल्प नही है अगर लालू का कोई विकल्प हैं तो वो लालू खुद हैं। बेशक वो जेल में हैं या कुछ दिन और रहने पड़ सकते हैं लेकिन जवाब इन्होने हमेशा अपने अँदाज में दिया है जिससे विरोधी खेमा हमेशा से सकते में रहा है।
लेखक क्षत्रिय राकी के अपने विचार है