कोई भी दल चुनाव जीते और जीतकर किसी को भी सीएम बनाये, छोटे-बड़े मलाईदार व महत्वपूर्ण पदों पर जातीय गोलबंदी शरू
यही वजह है कि जैसी आशंका थी, वैसा ही इस बार भी हुआ और हिंदूवाद के नाम पर जीती भाजपा अब प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नाम पर शासन-प्रशासन में ठाकुरवाद जबरन थोपकर जनता का जीना मुहाल किये हुए है।
कोई भी दल चुनाव जीते और जीतकर किसी को भी मुख्यमंत्री बनाये, उत्तर प्रदेश में एक नया ही तमाशा शुरू हो जाता है...और वह होता है मुख्यमंत्री बनाये गए नेता की जाति के लोगों की दबंगई और प्रदेश के तकरीबन हर छोटे-बड़े मलाईदार व महत्वपूर्ण पदों पर जातीय गोलबंदी।
यही वजह है कि जैसी आशंका थी, वैसा ही इस बार भी हुआ और हिंदूवाद के नाम पर जीती भाजपा अब प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नाम पर शासन-प्रशासन में ठाकुरवाद जबरन थोपकर जनता का जीना मुहाल किये हुए है। अब तो हद हो चुकी है, जब सड़कों पर भी करणी सेना का झंडा उठाकर झूठी राजपूती शान के लिए मासूम बच्चों तक को ठकुरई दिखाई जा रही है।
लोकतंत्र में घुल चुके जातिवाद के इसी जहर की वजह से तो हालत यह हो चुकी है कि यूपी में मुख्यमंत्री की कुर्सी तो एक है लेकिन उसके लिए सैकड़ों जातीय नेता लार टपकाये बैठे रहते हैं। और क्यों न टपकाएं, जब उनकी जाति के लोग उनकी हर बुराई भूलकर उन्हें ही अपना आदर्श पुरुष मानकर बैठे हैं।
मिसाल के तौर पर देख लीजिए, जैसे कि प्रदेश के सारे यादव एक सुर में फेसबुक व अन्य सोशल मीडिया पर जान लड़ाए रहते हैं। वे बराबर कहते हैं कि अखिलेश यादव से अच्छा नेता तो यूपी में कोई है ही नहीं...
जबकि प्रदेश के राजपूतों को योगी आदित्यनाथ में कोई प्राचीन क्षत्रिय राजा नजर आता है शायद... इसलिए वे भी दिन-रात रटते रहते हैं कि योगी ही यूपी के तारणहार हैं....इसी तरह दलित बहन मायावती, ब्राह्मण दिनेश शर्मा, मौर्य लोग केशव प्रसाद मौर्य को मुख्यमंत्री देखने के लिए लालायित हैं।
या यूँ कह लें तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सैकड़ों जातियों और ढेरों धर्म-समुदायों में कोई न कोई उनका नेता और उसके समर्थक जरूर होंगे, जिन्हें लगता होगा कि जब तक उनकी जाति का मुख्यमंत्री नहीं बनेगा, तब तक उत्तर प्रदेश का कुछ हो ही नहीं सकता।
जबकि इन सभी नेताओं में से ज्यादातर जातीय नेताओं को तो यूपी में या मुख्यमंत्री पद पहले ही मिल चुका है या फिर उप मुख्यमंत्री, गृह मंत्री जैसा कोई और मजबूत पद दिया जा चुका है। अगर इनमें से वास्तव में किसी एक भी नेता में काबिलियत रही होती तो यूपी और खुद उस जाति की हालत आज भी उसी तरह से बदतर नहीं रहती।
फिर भी न तो यहां की जनता जातीय नेता चुनने की अपनी जिद छोड़ने को राजी है और न ही यहां के नेता जातीय कार्ड खेलने की अपनी आदत से बाज आ रहे हैं।
जबकि कायदे से होना तो यह चाहिए कि जनता भले ही अपनी जाति का नेता चुने जाने पर दबंगई और गुंडई करने पर आमादा हो जाये लेकिन उस नेता को तो कम से कम अपनी टीम बनाते समय, प्रशासनिक फेरबदल करते समय या नीतियां बनाते समय अपनी जाति विशेष की तरफ नहीं झुकना चाहिए। इसके अलावा, मुख्यमंत्री को कानून-संविधान का पालन करवाने में सख्ती का इस्तेमाल करते समय भी कभी भी अपनी जाति या किसी अन्य जाति विशेष के उपद्रव या हिंसा आदि में नरमी नहीं बरतनी चाहिए। ताजा उदाहरण करणी सेना के नाम पर उपद्रव कर रहे राजपूतों का है।
यह परिपाटी बदलनी ही चाहिए कि ठाकुर मुख्यमंत्री ठाकुरवाद करेगा, यादव मुख्यमंत्री यादववाद, ब्राह्मण मुख्यमंत्री ब्राह्मणवाद या फिर दलित मुख्यमंत्री दलितवाद। शासक-प्रशासक को तो ऐसी नीतियां बनानी चाहिए कि हर वर्ग के गरीब, शोषित और कमजोर को बराबरी के मौके मिल सकें।
सबको बराबरी की शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रशासन में भागीदारी और संसाधनों में उचित हिस्सेदारी मिल सके। यदि मुख्यमंत्री पद पर बैठने वाले व्यक्ति अपनी जाति के उद्दंड और बेलगाम तत्वों पर अंकुश नहीं लगा सकेंगे तो उन्हें मुलायम, अखिलेश, मायावती या राजनाथ की ही तरह बार-बार सत्ता से बेदखली की जिल्लत झेलनी ही पड़ेगी। क्योंकि महज अपनी ही जाति को तरजीह देकर या सर्वोपरि रखकर वे कभी उत्तर प्रदेश जैसे जातीय और धार्मिक बहुलता वाले प्रान्त का मुख्यमंत्री बने नहीं रह सकते। खुद योगी आदित्यनाथ के मौजूदा ठाकुरवाद का खामियाजा जब नरेंद्र मोदी 2019 में यूपी में भुगतेंगे, तब कहीं जाकर उन्हें एहसास हो पायेगा कि यहां की जनता जितनी तेजी से सर पर चढ़ाती है, उतनी ही तेजी से धूल धूसरित भी कर ही देती है।
योगी आदित्यनाथ समेत सभी वर्तमान नेता यह भूल रहे हैं कि यह वही देश और प्रदेश है, जिसके इतिहास में चंद्रगुप्त मौर्य, समुद्र गुप्त और ललितादित्य जैसे शासक भी हुए हैं, जिन्होंने बिना किसी भेदभाव या जातिगत पूर्वाग्रह-दुराग्रह के जब शासन किया तो जनता ने न सिर्फ उन्हें बेरोकटोक शासन करने दिया बल्कि उनकी पीढ़ियों को भी कई कई सौ साल तक अपना शासक माना। जाहिर है, यहां की जनता जिसे अपना मानती है फिर उसे क्या उसकी सात पुश्तों को भी अपना मान लेती है...लेकिन उसे कभी अपना नहीं मानती, जो खुद किसी जाति विशेष को छोड़कर बाकी जनता को अपनी प्रजा ही नहीं समझता।
अश्वनी कुमार श्रीवास्तव की कलम से