कभी -कभी चीजें अपने ही वजन से टूट जाती हैं, कांग्रेस अपने वजन (भारी जीत ) से ही जाएगी
एक नज़र हम कांग्रेस का हाल -चाल देख लें ,क्योंकि इसी परिप्रेक्ष्य में समाजवादियों का हाल जानना होगा . पहले बतला चुका हूँ कि किस तरह इंदिरा गाँधी पर समाजवादी बुखार चढ़ रहा था .यह वही इंदिरा थीं ,जिन्होंने 1959 में कांग्रेस आलाकमान की हैशियत से ,महज़ इस आधार पर केरल की कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त करने केलिए दबाव बनाया था कि वहां सांस्कृतिक संकट उभर रहा था . यह संकट और कुछ नहीं छात्रों को कार्ल मार्क्स की जीवनी पढ़ाये जाने से उभर रहा था . लेकिन अभी उन्हें रंग -रोगन केलिए समाजवादी पाउडर की ज़रूरत थी .
1967 में इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्रित्व में जो चुनाव हुए उसके नतीजे कांग्रेस केलिए निराशाजनक थे . अनेक राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें तो बन ही गयी थीं ,केंद्र यानि लोकसभा में भी कांग्रेस सदस्यों की संख्या अबतक सबसे कम थी . तब लोकसभा सदस्यों की कुल संख्या 516 थी .कांग्रेस को 283 आयी थी ,बहुमत से पचीस अधिक . इन सब कारणों से कांग्रेस के भीतर की खेमेबाज़ी को बल मिला .मोरारजी ,कामराज ,अतुल्य घोष जैसे सीनियर नेताओं ने मिलजुलकर एक अघोषित ग्रुप बना लिया था ,जिसे सिंडिकेट कहा जाता था . कांग्रेस के भीतर ही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की तरह एक समाजवादी ग्रुप CFSA - congress forum for socialist action भी 1962 से ही काम कर रहा था ,जिसकी स्थापना गुलजारीलाल नंदा , चौधरी ब्रह्मप्रकाश , के डी मालवीय और सुभद्रा जोशी ने मिलकर किया था . बाद में युवा तुर्क कहे जाने वाले चंद्रशेखर ,रामधन ,मोहन धारिया आदि भी इससे जुड़ गए .इनलोगों ने एक दस सूत्री प्रोग्राम अपनी पार्टी के सामने रखा था ,जिसमे बैंकों और बीमा कंपनियों के राष्ट्रीयकरण ,प्रिवी पर्स की समाप्ति ,भूमि सुधार और मजदूरों के हितों के सवाल जुड़े थे . इंदिरा इनके करीब आ रही थी ,क्योंकि अपनी ही पार्टी के सीनियर नेताओं से उनकी दूरी बढ़ती जा यही थी . राष्ट्रपति चुनाव में गिरी के जीतने के बाद वह सोशलिस्ट फोरम के लोगों से भी अधिक बढ़ -चढ़ कर बोलने लगीं . कांग्रेस के भीतर वैचारिक रस्साकशी इतनी बढ़ गयी कि दोनों खेमे आमने सामने आ गए . निजलिंगप्पा तब कांग्रेस अध्यक्ष थे . नवंबर 1969 में इंदिरा गाँधी ने जगजीवन राम को पार्टी का नया अध्यक्ष बनवा दिया . पार्टी पूरी तरह टूट गयी . इंदिरा गाँधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को congress (R ) कहा गया . यहां R से तात्पर्य requisition से था ,जो बाद में ruling हो गया . सिंडिकेट वाले धड़े को congress (O ) -organisation - कहा गया .
कुछ समय बाद बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स के खात्मे केलिए इंदिरा गाँधी ने लोकसभा में बिल लाया . दरअसल वह मुल्क को बतलाना चाहती थीं कि वह तो समाजवादी कार्यक्रमों को लागू करना चाहती हैं ,लेकिन सिंडिकेट वाले रोक रहे हैं . बिल नहीं पारित होने की स्थिति में अध्यादेश लाये गए ,लेकिन प्रिवी पर्स वाले अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया .इंदिरा शायद यही चाहती थीं . 27 दिसम्बर 1970 को अचानक लोकसभा भंग करने की सिफारिश उन्होंने कर दी .1971 के मार्च में लोकसभा के मध्यावधि चुनाव होने तय हुए .
इंदिरा गाँधी ने इस चुनाव में धुंवाधार प्रचार किया .वह स्टार प्रचारक बन गयीं . महीने भर के भीतर 250 चुनावी सभाएं कर उन्होंने अपनी बातें रखी - " वे लोग कहते हैं इंदिरा हटाओ , मैं कहती हूँ गरीबी हटाओ " यही उनका मुख्य नारा था . इंदिरा कांग्रेस एक और रूप में बदला हुआ था ,कांग्रेस के पारम्परिक चुनाव चिन्ह जोड़ा बैल की जगह अब उसका चिन्ह गाय -बछड़ा था .
लोकसभा चुनावों में इंदिरा गाँधी को दो तिहाई बहुमत मिले . कुल 451 सीटें लड़कर उन्होंने 352 पर जीत हासिल की थी . बाकि सीटें सीपीआई और अन्य सहयोगियों केलिए छोड़े थे . कहना न होगा ग्रैंड अलायंस का बुरा हाल था .संगठन कांग्रेस और जनसंघ ,स्वतन्त्र पार्टी के नेता बुरी तरह हारे थे . सोशलिस्टों का अता -पता नहीं था . विपक्ष को इतने बुरे नतीजों की उम्मीद नहीं थी . हताशा में बहुत समय तक अदृश्य स्याही का स्यापा हुआ और सब कुछ जब शांत हुआ ,तब जनसंघ नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने संयत और कुछ -कुछ दार्शनिक लहज़े में कहा ,"कभी -कभी चीजें अपने ही वजन से टूट जाती हैं . कांग्रेस अपने वजन (भारी जीत ) से ही जाएगी ."