बनारस के लोग बनारस को क्योटो बनने से बचा ले जाएंगे, इस विश्वास के साथ एक ऐसी छवि का जि़क्र करना चाहूंगा जो मुझे पहली बार प्रमुखता से इस बार की यात्रा में दिखाई दी। सुबह-सुबह मैं घाट से लौट रहा था। नई सड़क पर कतार में बैठे हुए लोग दिखाई दिए। कुछ लोग मोटरसाइकिल से आ रहे थे और एक या दो को पीछे बैठाकर ले जा रहे थे। बेनिया पार्क से तकरीबन चेतगंज के बीच सैकड़ों की भीड़ सुबह नौ बजे काम की तलाश में बैठी दिखी। मेरी स्मृति में ऐसी तस्वीर बनारस की नहीं थी। मैंने रिक्शेवाले से जि़क्र किया तो उसका कहना था कि पिछले दो साल से यहां दिहाड़ी मजदूर बैठ रहे हैं।
मैंने तमाम शहरों में लेबर चौक देखे लेकिन बनारस में कभी नहीं। ये जो भीड़ दो साल में काम की तलाश में जमा हुई है, सब बनारस के बाहरी इलाके के लोग हैं। इससे समझ में आता है कि बनारस के जनपद पर नई पूंजी का मुकम्मल असर पड़ चुका है। बाहरी इलाकों में प्रधानजी के चुनाव के वक्त जो ज़मीनें कीमतों के मामले में आसमान छू रही थीं, नोटबंदी के बाद एक झटके में उनके खरीदार गायब हो गए हैं। काम ठप है। इसीलिए चौबेपुर का भूमिहीन ग्रामीण जो पहले काम करने बाबतपुर की ओर जाता था, अब बनारस शहर में काम खोजने आता है। उधर जीएसटी की बंदिशों ने व्यापारियों में हताशा पैदा की है। इस शहर में स्वावलंबन का परंपरागत आधार (यानी अपना धंधा बैठाने की आज़ादी) नष्ट हो रहा है। परिधि वंचित हो रही है, केंद्र में भीड़ बढ़ रही है। बनारस की संकुचित भौगोलिकता और स्पेस को देखते हुए यह भयावह भविष्य का संकेत है।
पुराने नगरों का ढांचा शहर-गांव के परस्पर आर्थिक स्वावलंबन और निर्भरता पर टिका होता है। पूंजी आती है तो एक दरार पैदा करती है। शहर को गांव से विलगाती है। गांव की शहर पर एकतरफा निर्भरता को बढ़ाती है। बनारस में अब यह प्रत्यक्ष दिखने लगा है। वास्तव में, बनारस शहर के भीतर ही पक्का महाल और चौहद्दी के बीच का फ़र्क अब ज्यादा दृष्टिगोचर हो रहा है। मानसिकताएं भी इसी के हिसाब से शक्ल ले रही हैं। इसके बावजूद इस शहर की परंपरा रही है कि यह सबको अपनाता है। मऊ से लेकर सोनभद्र तक और प्रतापगढ़ से लेकर गोपीगंज तक के लोगों का शहर एक ही है- बनारस। यह शहर कैलास पर्वत से आए महादेव का शहर है। यह मूलत: प्रवासियों और शरणार्थियों की शरणगाह है। यह हारे हुए का घोंसला है। यह मरणासन्न इंसान का मुमुक्षु भवन है। यह शहर जिंदादिलों की चौपाल है। यह अवसादग्रस्त का एंटीडोट है। इसीलिए बनारस को रीक्लेम करना एक ऐतिहासिक राजनीतिक कार्यभार है।