बड़ी खबर: तो क्या फिर सोना गिरवी रखने की नौबत है!

Update: 2017-09-30 10:13 GMT
यह किसी से अब छिपा नहीं है कि मनमोहन सिंह की मेहरबानी से अमेरिका और चीन से मुकाबला कर रही भारत की अर्थव्यवस्था की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली की जोड़ी ने भारी दुर्गत कर दी है। लेकिन शायद कम ही लोगों को यह अंदाजा होगा कि देश एक बार फिर मनमोहन सिंह के आने के ठीक पहले 1991 की बदहाली के उसी दौर की तरफ बढ़ रहा है, जब भारत के पास अपना खर्च तक चलाने के पैसे नहीं बचे थे।

पाई पाई को मोहताज भारत ने तब मजबूर होकर दुनिया के साहूकारों के पास अपना सोना गिरवी रखकर जनता के लिए किसी तरह से दो वक्त की रोटी जुटाई थी। फिर देश में मनमोहन सिंह के रूप में एक ऐसे चमत्कार का उदय हुआ, जिसने दो जून की रोटी के लिए मोहताज भारत को अमेरिका, चीन और यूरोप की टक्कर में लाकर खड़ा कर दिया।

देशभर में आर्थिक समृद्धि की गंगा बह निकली। यह मनमोहन के चमत्कार का ही असर था कि मोदी और जेटली ने देश की कमान जब सम्भाली थी, तब ऐन उसी वक्त अमेरिका में चुनावी सभाओं में डोनाल्ड ट्रम्प भारत के अमेरिका से आगे निकल जाने का डर दिखाकर अपनी जनता से उन्हें राष्ट्रपति बनाये जाने की गुहार लगा रहे थे। चीन और भारत की बढ़ती आर्थिक ताकत से अमेरिका के लोग कितना खौफजदा थे, यह इसी से साबित हो जाता है कि ट्रम्प आज वहां के राष्ट्रपति बन चुके हैं।

लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि भारत अब ट्रम्प की चिंताओं में कहीं नहीं है। क्योंकि भारत में तब से लेकर अब तक मोदी और जेटली की नीतियों ने भयंकर आर्थिक तबाही मचा रखी है। कारोबारी माहौल ठप है, तमाम छोटी बड़ी कंपनियां त्राहि त्राहि कर रही हैं। गांव से लेकर शहर तक तकरीबन हर कारोबार और कारोबारी सरकारी नीतियों की मार से अधमरा हो चुका है। बैंक अब डूबे, तब डूबे की कशमकश में ही जूझते नजर आ रहे हैं। राजस्व घाटा अगस्त में ही साढ़े पांच लाख करोड़ से ऊपर हो गया है, जबकि इतने घाटे का अनुमान पूरे वित्तीय वर्ष यानी मार्च 2018 तक के लिए लगाया गया था।

जिन्हें नहीं पता, उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि राजस्व घाटा सरकार की आमदनी और खर्च के बीच के बढ़ते अंतर को कहा जाता है। जाहिर है, राजस्व घाटा इतना ज्यादा हो जाने के कारण अब सरकार के सामने भारी संकट इस बात का आ गया है कि वह अपनी योजनाओं और अन्य खर्चों के लिए धन कहाँ से जुटाएगी। जितनी आमदनी है, उससे साढ़े पांच लाख करोड़ रुपये ज्यादा तो वह अगस्त तक ही खर्च कर चुकी है। ऐसे में धन जुटाने के लिए टैक्स या कर्ज ही एकमात्र सहारा है सरकार के लिए।

टैक्स जुटाने के लिए तो जेटली के नेतृत्व में सरकार ने पहले ही अपने सारे घोड़े खोल रखे हैं। इसके बावजूद सरकार की झोली खाली ही है।

रही बात कर्ज की तो दुनियाभर के साहूकार कर्ज सिर्फ दो ही सूरतों में देते हैं...या तो यह कि उन्हें कर्ज से मोटा ब्याज हासिल हो। नहीं तो यह कि कर्ज के एवज में उन्हें कुछ ऐसे अभूतपूर्व फायदे मिलें, जिससे उनकी कंपनी, संस्था या देश के वारे न्यारे हो जाएं। दोनों ही सूरतों में कर्ज लेने पर भारत का भट्ठा बैठना तय है।

हालांकि इन दोनों तरीकों के अलावा एक तरीका वह भी है, जो भारत पहले भी अपना चुका है....और वह है देश के खजाने में मौजूद स्वर्ण भंडार में से सोना गिरवी रखकर कर्ज जुटाया जाए। लेकिन यह वह तरीका है, जिसमें न सिर्फ देश और जनता का आत्मसम्मान गिर जाता है बल्कि दुनियाभर में देश की साख खत्म हो जाती है। साख के खत्म होते ही कोई भी देश, संस्था या कंपनी फिर भारत को उधार या आंशिक एडवांस पर किसी भी तरह का कोई माल उपलब्ध नहीं कराएगी। इसका खामियाजा तेल, खाद्य पदार्थ आदि के आयात पर पड़ता है और देश या निर्यातकों को पूरा भुगतान करने पर ही माल मिल पाता है। ऐसे में विदेशी मुद्रा की जरूरत भी कई गुना बढ़ जाती है। और इस जरूरत के कारण ही देश को बाकी देशों के सामने घुटने टेकने पड़ जाते हैं।

खैर, आर्थिक हालात बदतर हो चुके हैं लेकिन सबसे बड़ी हैरानी इस बात की है कि भारत की आर्थिक नैया उस दौर में डगमगा रही है, जब कि दुनिया में कहीं बड़े पैमाने पर युद्ध नहीं चल रहा है, आर्थिक तौर पर भी मंदी का दौर नहीं है और न ही कहीं आर्थिक अफरातफरी का आलम है।

जबकि इससे पहले 1991 में जब भारत ने सोना गिरवी रखा था, तब पूरी दुनिया में भारी आर्थिक मंदी का दौर था। यही नहीं, अमेरिका-इराक की जंग और सोवियत संघ के बिखराव की वजह से पूरी दुनिया में राजनीतिक अनिश्चितता का भी माहौल था।

उस वक्त भारत की आर्थिक स्थिति भी बेहद कमजोर हो गई थी। यह वही वक्त था, जब रिजर्व बैंक ने तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से इजाजत लेकर 470 क्विंटल सोना विदेश में गिरवी रखा था। तब देश के वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा थे।

यह सोना दो जहाजों में लादकर बैंक ऑफ इंग्लैंड के पास गिरवी रखने के लिए भेजा गया था। उस वक्त विदेशी मुद्रा भंडार की हालत ये थी कि देश में सिर्फ 7 हजार 348 करोड़ रुपए रह गया था।

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