कैराना पर पर्याप्‍त गरमा चुके मीडिया का शीघ्रपतन हो गया

मीडिया दरअसल उस रिक्‍शेवाले की तरह है जो अपने रिक्‍शे पर बैठाकर मतदाताओं को भारतीय जनता पार्टी नाम का अश्‍लील सिनेमा दिखाने कैराना ले गया था।

Update: 2018-06-01 09:46 GMT
अनायास ही ''नदी के द्वीप'' का एक प्रसंग याद आ गया। उसमें एक पत्रकार है चंद्रमाधव। मेफेयर सिनेमा में कोई अश्‍लील फिल्‍म लगी है। घर में पत्‍नी के खटराग से चटकर वह बाहर निकलता है। रिक्‍शा करता है। रिक्‍शे वाले को कहता है मेफेयर चलो। मेफेयर का नाम सुनकर रिक्‍शेवाला अपनी गति बढ़ा देता है। उसके ज़ेहन में अश्‍लील फिल्‍म का पोस्‍टर लहरा रहा है। वह जितना तेज़ पैडल मारता है, उतना गरमाता है। सिनेमा पर रुक के चंद्रमाधव को सलामी भी बजाता है। अज्ञेय इसे प्रातिनिधिक सुख का नाम देते हैं। मने सिनेमा देखने कोई और जा रहा है लेकिन गरम कोई और हो रहा है। बीरबल के बल्‍ब टाइप।
कल से लोग कह रहे हैं कि मीडिया मातम में है, सदमे में है। ये लोग मीडिया को नहीं समझते। मीडिया दरअसल उस रिक्‍शेवाले की तरह है जो अपने रिक्‍शे पर बैठाकर मतदाताओं को भारतीय जनता पार्टी नाम का अश्‍लील सिनेमा दिखाने कैराना ले गया था। रिक्‍शेवाले की तरह मीडिया बहुत उत्‍साह में था। सिनेमाहॉल पहुंचा तो फिल्‍म ही उतर चुकी थी। मतदाताओं ने तो दूसरी फिल्‍म से काम चला लिया, लेकिन फिल्‍म के नाम पर पहले से पर्याप्‍त गरमा चुके मीडिया का शीघ्रपतन हो गया। फटा पोस्‍टर, निकला जीरो।
कांग्रेसी या गैर-भाजपाई सरकारों में मीडिया इतना नहीं गरमाता है। वहां सेक्‍स, रोमांच, मारधाड़ की अपर्याप्‍तता है। भाजपा हीट करती है। मीडिया हीट होता है। अब मर्यादा है, तो सीधे मीडिया सिनेमाहॉल में नहीं घुस सकता। आरोप लग जाएगा। सो जनता को हॉल के भीतर बैठाकर बाहर से मौज लेता रहता है। कल मीडिया का यही प्रातिनिधिक सुख अचानक छिन गया। इसीलिए चेहरे लटके हुए हैं। संपादक झरे हुए हैं। बह गया संसार सरि सा... मैं तुम्‍हारे ध्‍यान में हूं...!

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