आम आदमी पार्टी को लेकर पिछले छह साल से लेकर आज तक लिखे कडुवे सच, मत मानिए बात, केवल पढ़ सको तो पढ़ लीजिये

Update: 2020-02-26 04:06 GMT

हम जब आठ साल पहले लिख रहे थे कि अन्ना आंदोलन आरएसएस की उपज है, तब उसके मंच पर चढ़ने की बेताबी में माले की नेत्री को धकियाया गया। हम जब 2014 में लिख रहे थे कि अरविंद का बनारस से मोदी के खिलाफ उतरना मोदी की ऐतिहासिक जीत को सुनिश्चित कर देगा, तब पूरा माले और उसके आसपास का वाम समूह एडमिरल रामदास के आगे अटेंडेंस लगा रहा था। हम जब 2015 में लिख रहे थे कि आम आदमी पार्टी की दिल्ली में जीत बनारस का रिटर्न गिफ्ट है, तब समूचा लेफ्ट बिजली पानी और स्कूल के अराजनीतिक नारे में फंस चुका था। हम जब 2020 में लिख रहे थे कि आम आदमी पार्टी की दूसरी जीत का मतलब इतिहास का दोहराव प्रहसन के रूप में होगा, तब समूचा लेफ्ट आम आदमी के सामने सरेंडर कर चुका था।

हम जब दिल्ली के दंगों के दौरान दो दिन से कुछ भी लिख पाने की स्थिति में खुद को नहीं पा रहे हैं, तब माले का चेयरमैन बिहार में अपनी ऐतिहासिक रैली का लाल परचम ट्विटर पर लहरा रहा है और उसके सांस्कृतिक दूत अटेंडेंस रजिस्टर लेकर प्रगतिशील पत्रकारों की दीवार पर फैली चुप्पी को दर्ज कर के ताने दे रहे हैं और संस्कृति कर्म को धंधा बना चुके लोग ऐसे पत्रकारों को ब्लॉक करने की सलाह दे रहे हैं।

हमारा लिखा न आप पढ़ते हैं, न हमारे कहे को सुनते हैं, न कभी हमसे बहस करते हैं। उस पर से व्यापक वाम का शिगूफा रहे रहे हर चुनाव से पहले छोड़ देते हैं। दिल्ली में दंगा होता है तो आपकी पार्टी पटना में फंसी होती है। फासीवाद के खिलाफ आप जब मुट्ठी तानते हैं तो ढंकी हुई कांख में आम आदमी पार्टी से मिले लाभ लोभ छुपे रहते हैं। आप किस मुंह से बोलते हैं कॉमरेड? कितने मुंह हैं आपके?

लोग कहते हैं कि नाज़ुक वक़्त में आपसी मतभेद भुला कर साथ आना चाहिए, साझा दुश्मन के खिलाफ खड़ा होना चाहिए। रतौंधी ऐसी है कि आप लोग दस साल से दुश्मन को ही पहचान नहीं पा रहे और पहले की तरह सेक्टेरियन बने हुए हैं। देश को विरोध करते दो महीना हुआ, आपके संस्कृति संकुल को अपनी सहूलियत के हिसाब से १ मार्च की तारीख मिली है विरोध दर्ज करवाने के लिए, जब पर्याप्त खून बह गया। किस पंडित से पतरा निकलवाए हैं कॉमरेड? ये पाखंड कब तक छुपाए रखेंगे, कॉमरेड? हमारे भजन कीर्तन को छोड़िए, अपने वेदपाठी ब्राह्मण को टटोलिए, कॉमरेड!

सवाल प्रगतिशील पत्रकारों पर नहीं, उन राजनीतिक ताकतों पर है जिनके भरोसे कुछ पत्रकार अब तक प्रगतिशील बने होने की ताकत रखे हैं। हमारा भरोसा टूटा तो आपकी अटेंडेंस रजिस्टर को भरने के लिए कोई नहीं मिलेगा।

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