घूंघट में कैद नहीं हो सकते सपने

Update: 2019-03-10 08:07 GMT

शिवानी पांडेय

(राइटर, फिल्ममेकर और फोटोग्राफर)

इस बार वूमेन्सडे पर मैं कुछ ज्यादा ही सक्रिय रही। सुबह फोटोएक्जीविशन में गई तो शाम को हिंदुस्तानी क्लासिकलम्यूजिकल_कंसर्ट में और रात को डाक्यूमेंट्री देखने।फोटो एक्जीविशन देखते हुए मैं थोड़ी देर को स्मृतियों में खो गई। स्मृतियां मुझे कुछ साल पहले इंडिया हैबिटेट सेंटर में लगाई अपनी एक फोटो एक्जीविशन की तरफ खींच ले गईं। मेरी पहली एक्जीविशन महिलाओं और खासकर ग्रामीण और दस्तकारमहिलाओं पर फोकस थी।


मुझे तब अपनी प्रदर्शित एक महिला की घूंघटवाली फोटो और उसपर आधारित कविता की याद आई। फोटो के साथ यह कविता भी प्रदर्शित की गई थी। दरअसल गुजरात के आदिवासी इलाकों में घूमते हुए मेरी मुलाकात पल्लू में मुंह ढ़के कुछ उन महिला दस्तकारों से हुई थी, जिनके आंखों में सपने थे और होंठो पर उन सपनों को हकीकत में बदलने के गीत। इस कविता ने वहीं जन्म लिया था।आज मैंने वह फोटो ढूंढी और कविता भी। कविता अंग्रेजी में थी। शाम को छत पर चाय की चुस्कियों और पौधों व चिड़ियों की चहचहाहट बीच मैंने इसका अनुवाद किया। शायद आपको मेरी यह कोशिश अच्छी लगे।

#कैद_सपने

पर्दा, पल्लू या नकाब

कुछ भी हो,

क्या आंखों को सपने देखने से

रोक सकते हैं?

रूखे होंठक्या

मुस्कुराना छोड़ सकते हैं?

इंसान के हकीकत के नज़ारे

कितने ही खराब क्यों न हो?

दिल के अरमानों के शहर

हमेशा आबाद हो सकते हैं!!!

(शिवानी पांडेय की फेसबुक वॉल से साभार) 

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