श्रीनगर का पहला दिन आज भी याद है। किसी भी शहर में जब मैं रिपोर्टिंग के लिए जाता हूं, तो सबसे पहले लोकल अखबार और लोकल न्यूज चैनल देखता हूं। लाल चौक के होटल में उस ठंडे सीलन भरे कमरे में आकर ऐसा लग रहा था, जैसे फ्रिज में आ गया हूं। फ्रेश होने के बाद जैसे ही टीवी पर लोकल न्यूज़ चैनल लगाए, मालूम पड़ा कि आज शाम को सय्यद अली शाह गिलानी की किताब का रस्मे इजरा (विमोचन) है। सोचा चलो यहीं से शुरूआत करते हैं।
रिक्शा वाले ने आसानी से सय्यद अली शाह गिलानी के घर पहुंचा दिया। पहली बार मालूम पड़ा कि जिसकी किताब का रस्मे इजरा है, वही सबसे मुख्य वक्ता है और दूसरे लोग केवल भर्ती के लिए बुलाए गए हैं। उन्होंने अपनी किताब का विमोचन लगभग खुद ही किया। भारतीय सुरक्षा बल उनकी हिफाजत में लगा था। वे खुल्लम खुल्ला पाकिस्तान की हिमायत कर रहे थे और हमारे जवान उनकी हिफाजत। उन्होंने पाकिस्तान को मसीहा बताया और अपनी मुहिम को जंगे आजादी कहते हुए कहा कि कश्मीरियों की आजादी की लड़ाई में सबसे बड़ा मददगार पाकिस्तान है। उन्होंने खुलकर भारत की निंदा की। भारत की धर्मनिरपेक्षता को भी कोसा और पहली बार धर्मनिरपेक्षता का उर्दू अनुवाद सुना - ला दीनीयात...। उनके प्रशंसक पाकिस्तान जिंदाबाद और भारत मुर्दाबाद के नारे भी लगाते रहे। ऐसे माहौल में किसी भी भारतीय को डर लगना था। पर पता नहीं क्यों मुझे नहीं लगा। उल्टे मुझे लगा कि यह सब नाटक सा है और मैं बहुत दिलचस्पी से सब कुछ देखने लगा।
रस्मे इजरा के भाषण के बाद गिलानी से स्थानीय पत्रकारों ने कुछ सवाल पूछे। अपन ने भी हाथ ऊंचा कर दिया। यह हाथ किसी पत्रकार का हाथ ना होकर एक नासमझ शख्स का हाथ था, जो बस कश्मीर समस्या को समझना चाहता था। कई बार ऐसी मासूम नासमझी और भोलापन आपके तर्को को वो ताकत दे देते हैं, जिनका जवाब देना किसी के लिए संभव नहीं होता। अपनेराम का पहला सवाल यही था कि कितने बरसों में आप कश्मीर को भारत से आजाद करा लेंगे?...यह सवाल सहज स्वाभाविक था। जब आप इतनी ताकत से आजादी आजादी कर रहे हैं, तो कोई रोड मैप तो आपके पास ज़रूर होगा। सौ साल में, पचास साल में, डेढ़ सौ साल में, पच्चीस साल में...। पहला सवाल उस मजमे में बम की तरह गिरा औऱ धमाके की बजाय खामोशी छा गई। सबका ध्यान मेरे कद बुत और बोलने के लहजे पर गया। साफ था कि मैं कश्मीरी नहीं हूं। फिर मैं कौन हूं? सेना का जासूस? पुलिस का मुखबिर? क्योंकि ऐसा कथित 'भारत विरोधी' सवाल पूछने की हिम्मत तो घाटी के लोकल पत्रकार में नहीं हो सकती। बकाया बड़े पत्रकार अपने राष्ट्रवाद के कारण ऐसा सवाल पूछेंगे नहीं। ऐसा सवाल तो नासमझ और दुनिया जहान की ऊंच-नीच से बेखबर शख्स ही पूछ सकता है।
इसका बहुत ही गोल-मोल सा जवाब दिया गिलानी ने। गाढ़ी ऊर्दू में शायद यह कहा कि यह तो सतत प्रक्रिया है, हम लड़ते रहेंगे, चाहे कितने ही बरस क्यों ना लगें।...अब तक मुझे समझ आ गया था कि ये आदमी गिलानी नीरा लंठ है और पहले ही सवाल से ध्वस्त हो गया है। सो अपने बचकाने मजे में मैंने दूसरा सवाल भी कर डाला - अगर आप कश्मीर को आजाद करा लेते हैं, तो कश्मीर में किस तरह की सरकार होगी? वो लोकतांत्रिक सरकार होगी या इस्लामी शासन पध्दति चलेगी?...आजाद कश्मीर की अवधारणा को स्पष्ट करने की मांग करने वाले सवाल शायद गिलानी से कोई बाहर का पत्रकार पहली बार पूछ रहा था। गिलानी ने फिर गोल मोल जवाब दिया मगर उन्होंने कहा कि हमारा कश्मीर जब आजाद होगा, तब वहां ला दीनीयात (धर्मनिरपेक्षता) के लिए कोई जगह नहीं होगी। कुछ और जिरह मैंने की तो उन्होंने कहा कश्मीर सोशल वेलफेयर स्टेट होगा। यह बड़े मजे की बात थी। हर तानाशाह अपने शासन को लोककल्याणकारी शासन कहता है। गिलानी साफ-साफ यह मानने को भी तैयार नहीं थे कि वे इस्लामी शासन के पक्ष में हैं। आखरी सवाल तो हद ही थी। इसमें अपनेराम की शरारत भी छुपी थी और कमीनापन भी। इतने सवाल पूछने के बाद इतना तो पता चल ही गया था कि सवालों से इस आदमी को बहुत कष्ट हो रहा है और ये बस जैसे तैसे अपनी आबरू बचा रहा है। सोचा कि इतना लिहाज भी खत्म ही कर डालते हैं। सवाल था कि कश्मीर अगर आजाद हो गया तो यहां की मुद्रा क्या होगी? यहां पर रुपया चलेगा, दीनार चलेंगे, डॉलर चलेगा या दिरहम...? इस सवाल पर तो गिलानी बुरी तरह अचकचा गए और लोकल पत्रकार हंसने लगे।
इतनी देर में सब समझ गए थे कि ये आदमी ना तो सेना का जासूस है और ना पुलिस का मुखबिर है, ये बस सवाल पूछने वाला एक ऐसा मसखरा है, जो समझ ही नहीं पा रहा कि कहां बैठा है और किससे क्या बात कर रहा है। बड़ी मुश्किल से मैंने गिलानी का पिंड छोड़ा। उन्होंने राहत महसूस की और सबको खाना खाने की दावत दी।
खाने पर पत्रकारों ने मुझे घेर लिया। मगर मेरी दिलचस्पी उस समय कश्मीर समस्या से ज्यादा उस कश्मीरी पुलाव में थी, जिसमें दुंबे का मुलायम गोश्त था, केसर थी, देसी घी था और कुछ खुश्बूदार मसाले थे। मैंने जितने सवाल नहीं पूछे थे, उससे ज्यादा पुलाव खाया। उम्दा बासमती का वैसा पुलाव फिर नहीं चखा। बाद में अपनी उंगलियां सूघते हुए मैंने लोकल पत्रकारों से बात की। हम अपने इंदौर को चाहे जो समझें, पर हकीकत यह है कि आसपास के राज्यों में भी बहुत लोग हैं जिन्होंने इंदौर का नाम ही नहीं सुना। मुझे यह समझाने में बहुत वक्त लगा कि इंदौर कहां है। भोपाल के नजदीक का शहर कहने से उनकी जिज्ञासा कुछ शांत हुई। उन्हें हैरत हुई कि कश्मीर समस्या को समझने के लिए ऐसे शहर से कोई आदमी पैसा लगाकर और खुद को खतरे में डालकर आया है जिसका नाम भी किसी ने नहीं सुना और ऐसे अखबार से आया है, जो (उनके लिए) एक अनजाना सा इवनिंगर है। बहरहाल यहीं पर कुछ पत्रकारों से दोस्ती हुई। मेरे सवालों पर सबने मेरी पीठ ठोकी और कहा कि ये अलगाववादी नेता ऐसे ही हैं। इनके पास कश्मीर को लेकर कोई रोड मैप नहीं है। बाद में यही पत्रकार मेरे मददगार बने। इन्होंने ही बताया कि कहां जाना चाहिए, किससे मिलना चाहिए। श्रीनगर में पहुंचने के छह घंटे के अंदर अंदर अपने राम के चर्चे श्रीनगर की पूरी पत्रकार बिरादरी में हो गए थे। नासमझी, भोलापन और थोड़ी बहुत मूर्खता भी बहुत काम आती है।
दीपक असीम