बाप, और बापू... जीवन का अनोखा पहलू

बेटी सेंसटिव है, ओबेडिएंट है, उसे अलग ढंग से समझाता हूँ। बेटा थेथर है, बहुत शैतान है, ज्यादातर झिड़की खाता है, उदास हो जाता है, फिर फिर भूल जाता है।

Update: 2019-10-08 07:17 GMT

मनीष सिंह वरिष्ठ पत्रकार 

फॉरेन सॉइल पर बच्चो का पहला कदम है, पासपोर्ट पर पहला ठप्पा। मेरे पिता ने लगभग पूरा देश घुमाया था, मैं रवायत को कुछ आगे बढ़ा रहा हूँ। घूमना, देखना पर्सपेक्टिव को विविधता देता है, सोच के दायरों को विस्तार देता है। उदाहरण के लिए, इस देश मे अंग्रेजी की कोई इज्जत नही। इतनी एथिनिसिटी, इतने धर्म और कल्चरल डाइवर्सिटी है, मगर सब मजे से साथ है। चार भाषाएं ऑफिशियल है, मगर सब अपने मे मस्त है। दूसरे से तकलीफ भी नही। बगैर समझाए बच्चों को इसका मर्म समझ आ जाये, तो एक बड़ी शिक्षा पूरी हो जाएगी।

मगर बात कुछ निजी अनुभव की भी है। हो ये रहा है कि बच्चे एक्साइटेड है। अनजान जगहें है, रेलमपेल है। बाप थोड़ा डरता है, इनके इधर उधर मटकने पर डाँटता है, झिड़कता है। जो हो सकता है, हर बात पूरी की जा रही है। जो सम्भव नही, या नॉनसेंस है, मना भी कर रहा हूँ। मुंह फुलाते है, गुस्सा होते हैं, मान जाते हैं।

बेटी सेंसटिव है, ओबेडिएंट है, उसे अलग ढंग से समझाता हूँ। बेटा थेथर है, बहुत शैतान है, ज्यादातर झिड़की खाता है, उदास हो जाता है, फिर फिर भूल जाता है। मिनटों में फिर वही करेगा, जो करना है। इंटेलिजेंट है, सो हर बात पर उसका अपना लॉजिकल ओपिनियन है, जो मेरे पीठ पीछे मां को बताया जाता है। शायद उस स्टेज में है, जहां बाप के निर्णय से बेहतर निर्णय उंसके पास होते है। निजी अनुभव यही है कि जब पिता जब जीवित थे, कमोबेश ऐसे ही उच्चस्तरीय आइडियाज अपने पास भी होते थे। बिलाशक, हम ज्यादा जानते थे पिता कम..

पिता पुत्र के रिश्ते उम्र के पड़ाव पर अलग अलग होते हैं। किशोर अवस्था मे बाप से ज्यादा जानने की शुरुआत हो जाती है। सर तना हुआ होता है। जैसे जैसे उम्र बढ़ती है, दुनिया समझ मे आने लगती हैं। दबाव, दायरे, फैसलों का मर्म और उसके मर्म में बच्चो के लिए खोज कर निकली गई बेहतरी की उम्मीदें समझ मे आने लगती है। वक्त हर फैसले को सही साबित करे, या गलत दांव की श्रेणी में गिरा दे.. पिता का समर्पण और त्याग किसी शुबहे में नही आ सकता। जब हमें अपने फैसले करने का वक्त आता है, शनै शनै पिता के फैसलों में ही रोशनी, रास्ता समझ आने लगता है। तनी गर्दन झुक जाती है। पिता देवताओं के तारामंडल में दिखने लगता है। मेरा निजी अनुभव यही है, आपका आप समझें

बापू उर्फ गांधी को लेकर बमचक मची है। भगतसिंह, सुभाष, अहिंसा, चरखे को लेकर आलोचनाएं है। ज्यादातर आलोचक उसी उम्र के हैं जिस उम्र का स्थायी लक्षण बाप से बेहतर आइडियाज, अवज्ञा और तनी गर्दने होती हैं। भारत एक युवा राष्ट्र है। इसे अधेड़ और पकी उम्र का होने दीजिये। गांधी की प्रासंगिकता और सम्मान वापस लौटेगा।

विश्वास बनाये रखिये। बाप पर, बापू पर.. । हां, और बच्चों से भी निराश न हों। ये उम्र ही शैतानियों की है। अभी कर ले तो बेहतर , हमारे रहते ही उबर जाएं। वरना उम्रदराज होकर भी बचपने के बियाबान में भटकते लोग आगे की पीढियां बर्बाद कर जाते हैं। 

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