दर्दनाक कहानी: वहां रहती हूं जहां राह चलती लड़की के सीने पर हाथ मारना मामूली बात है

आह, ओह, बेचारी... के बीच चटखारेदार सवाल कौंधते हैं? हमदर्दी जताने आया मजमा खुद ही रसीले जवाब पकाता है. कहां छड़ घुसेड़ी गई, कहां काटने के जख्म हैं! रेप के बाद पूरी जिंदगी रेप का फ्लैशबैक बनकर रह जाती है.

Update: 2019-11-04 08:12 GMT

किस्सा सालों पुराना है लेकिन जख्म एकदम हरा. झुग्गी में बच्चों को पढ़ाने पहुंची थी. साथ में एक हमपेशा भी था. मौका देखकर उसने झपट्टा मारा. मैं कोने में गिरी थी. उठी तो दोगुनी ताकत से हमला हुआ. बचकर भाग निकली. बाद के महीनों पागलखाने में और सालों घर के भीतर बीते. साल 2005 में रेप से बच निकली उषा विश्वकर्मा कहती हैं- रेप की हजारों खबरें, लाखों किस्से और करोड़ों बातें वो तकलीफ बयान नहीं कर सकतीं, जो असल में होती है.

आह, ओह, बेचारी... के बीच चटखारेदार सवाल कौंधते हैं? हमदर्दी जताने आया मजमा खुद ही रसीले जवाब पकाता है. कहां छड़ घुसेड़ी गई, कहां काटने के जख्म हैं! रेप के बाद पूरी जिंदगी रेप का फ्लैशबैक बनकर रह जाती है. 

हम सेल्फ डिफेंस सिखा रहे थे. कराटे, ताईक्वांडो, बॉक्सिंग- सबकी मिली-जुली तकनीक. सीखने वालों में आम बच्चियों के साथ सर्वाइवर लड़कियां भी थीं. थोड़ी देर बाद अचानक एक आवाज आई- ये आपलोग क्या सिखा रहे हैं? सारे चेहरे आवाज की तरफ मुड़ गए. वो लड़की रेप सर्वाइवर थी. पूछ रही थी- रेप कोई इजाजत लेकर करता है क्या? सूने में एकदम से हमला होता है. तब ऐसा सेल्फ डिफेंस किसी काम का नहीं रहता. उस लड़की के बाद ही कई लोग ये बोलने लगे. सबकी सब रेप झेल चुकी लड़कियां थीं.

जिस सेल्फ डिफेंस पर हम इतने खुश हो रहे थे, दरअसल वो किसी काम का नहीं था.

तभी वही लड़कियां सामने आईं. वो अपने साथ हुए सारे हादसे को दोहराने के लिए तैयार थीं. कहा- हम बताएंगे कि कैसे क्या-क्या हुआ. इसके बाद स्टेप-दर-स्टेप वे बताने लगीं. किसी को गाड़ी में खींचा गया था. किसी को बालों से पकड़कर पटका गया था. किसी को सिगरेट से दागते हुए काबू किया था. कमरे में सिर्फ सिसकियां थीं और सिर्फ गुस्सा. अब हमें इन तरीकों का तोड़ निकालना था.

कुछ दिनों की कोशिशों के बाद हमारी टीम ने मार्शल आर्ट के अलावा सेल्फ डिफेंस के 25 तरीके तैयार किए और उसे नाम दिया निशस्त्र कला. ये तरीके रेप की शिकार 25 लड़कियों की आपबीती से निकले थे. उषा बताती हैं.

लखनऊ शहर में रेड ब्रिगेड चला रही उषा याद करती हैं- 28 साल पहले गरीबी में अपना गांव छोड़कर लखनऊ आ गए. दूसरे गांववालों की तरह पिता ने भी सोचा कि शहर में और कुछ नहीं तो रोटी तो जुट ही जाएगी. महीनों की बेरोजगारी के बाद कारपेंटर का काम मिला. स्लम में रहते. ज्यादातर रातें खाली पेट सोते. गुरबत की हालत में भी परिवार बढ़ता गया. लड़के के इंतजार को तीन बहनों के बाद विराम मिला. बड़ा होने के नाते मुझे पढ़ाई छोड़नी पड़ी. काम ढूंढना शुरू किया. साल 2004 के आखिर की बात है. लखनऊ तब भी बड़ा शहर था. काम की तलाश हो तो हर गली में कोई न कोई काम इंतजार करता मिल जाता.

मैं गली-गली घूमती. कहीं सिलाई, कहीं बुनाई, कहीं बड़ी-अचार बनाने का काम. मुझे ऐसा काम चाहिए था जो मुझे किताबों से जोड़े रखे.

एक NGO से जुड़कर झुग्गी के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया. वो भी मेरे साथ पढ़ाया करता था. लगभग मेरी उम्र और मेरी तरह हालातों का मारा. हम साथ जाते, साथ लौटते. अपनापा सा बन रहा था. वो 2005 की शाम थी. जिस झुग्गी में हम पढ़ाया करते, उससे सारे बच्चे एक-एक करके जा चुके थे. मैं भी अपना सामान समेटने लगी, तभी उसने एकदम से मुझे अपनी तरफ खींचा.

इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाती, वो बेरहमी से घसीटने-पटकने लगा था. मेरे हर विरोध पर चेहरे पर जोरदार तमाचा पड़ता. किसी तरह बचकर घर पहुंच सकी.

उस रोज के बाद जिंदगी बदल चुकी थी. सोते-जागते मरने का ख्याल आता. खुद से घिन होती. दिन में कई-कई बार नहाया करती. चेहरे को इतना पोंछती कि खाल निकल जाती. मैं वो शख्स थी, जिसके पास 2 ही भाव बचे थे- रोना और गुस्सा. इन्हीं दो भावों के साथ मुझे जिंदगी बितानी थी. NGO के लोग मिलने आए, मैंने मिलने से मना कर दिया. कभी घर से बाहर खड़ी हो जाऊं और रास्ते से कोई मर्द गुजरे तो मैं भीतर छिप जाती.

अपराध के लिहाज से बेहद खतरनाक माने जाने वाले इसी इलाके में मैं पली-बढ़ी

माता-पिता की पहली औलाद हूं. प्यार तो खूब था लेकिन समझ नहीं. किसी ने कहा- लड़की पर कोई साया है. वे शहर की हर मस्जिद में मुझे फुंकवाने ले गए. साया तब भी नहीं टला.

फिर किसी ने सुझाया कि शायद कोई प्यार का चक्कर हो. इसकी शादी करा दो. वे शादी के लिए लड़का देखने लगे. आखिरकार एक डॉक्टर ने कहा कि मुझे किसी बात का सदमा लगा है. आज से पंद्रह साल पहले की बात है. दवाओं से बात नहीं बनी तो मुझे मानसिक चिकित्सालय में भर्ती करा दिया. महीनों इलाज चला. लौटी तो मेरी कहानी सबको पता थी. लड़का शहर छोड़कर जा चुका था. पिता ने रिपोर्ट कराने की कही लेकिन मैं कुछ और ही सोच रही थी.

उदास करने की हद तक खूबसूरत शामों, पुराने इमामबाड़ों, चिकन के कपड़ों और बादशाही कबाब वाले लखनऊ शहर का एक कोना है मड़ियांव थाना. अपराध के लिहाज से बेहद खतरनाक माने जाने वाले इसी इलाके में मैं पली-बढ़ी.

शाम बाहर निकलो तो दुपट्टा खींचा जाना आम बात है. चलते हुए लड़के आपके सीने पर हाथ मारकर निकल जाएंगे. पीछे मुड़कर कुछ कह दें तो एक पूरा जत्था आपके घर के बाहर खड़ा हो जाए. आसपास की लड़कियों के साथ मिलकर प्रोटेस्ट शुरू किया. प्रोटेस्ट क्या, बस सहमी हुई शिकायत हुआ करती. उषा बताती हैं- हम लड़कियां इकट्ठा होकर लड़कों के घर जातीं और उनके मां-बाप से उनकी हरकत बतातीं. कुछ तो सुन लेते, कुछ सामने बुलाकर तलब करते तो ज्यादातर मां-बाप हमपर ही चढ़ जाते.

कितनी ही बार सुना- तुम लोग कॉलगर्ल हो, तभी तो लड़कों के घर पहुंचकर बेधड़क बोल रही हो.

तब हमने घर जाकर चिरौरी बंद कर दी और नुक्कड़ नाटक करने लगे. पहली बार लाल और काली सलवार-कमीज पहनकर सड़क पर निकले तो खूब फब्तियां मिलीं. अब झुंड में जमा लड़कियों की छातियों पर हाथ तो मार नहीं सकते तो मजाक उड़ाने लगे. तितलियां जा रही हैं. लाल परियां जा रही हैं. कयामत का रंग लाल है... इसी बीच आवाज आई- रेड ब्रिगेड बोलो रे, रेड ब्रिगेड जा रही है. बस. तपाक से हमने ये नाम लपक लिया.

ग्रुप में लड़कियों के साथ लड़के भी हैं जिनके साथ एक-एक की ट्रेनिंग होती है

निर्भया मामले के बाद हमें सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग देने 5 देशों से लोग आए. बाद में रेप सर्वाइवर लड़कियों की मदद से हमने सेल्फ डिफेंस के नए-नए तरीके खोज निकाले. लाखों लड़कियों को सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग दे चुकी उषा की संस्था का तरीका थोड़ा अलग है. वे खूब मजे में कहती हैं- हमारे ग्रुप में लड़कियों के साथ लड़के भी हैं. ये लड़के डमी हैं. हम स्कूल-कॉलेज जाते हैं. वहां लड़कियों को सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग देते हैं.

इसके बाद अपने 4 लड़कों को छुट्टा छोड़ देते हैं. उन्हें लड़कियों को छेड़ने की छूट होती है. जैसे ही वे लड़कियों को छेड़ते हैं, ट्रेन्ड हो चुकी लड़कियां अपने दांवपेंच आजमाती हैं.

आज भी सेल्फ डिफेंस सिखाने वाले लोग लड़कियों के साथ लड़कियों को लड़ाते हैं. लड़कियां, लड़कियों का रेप नहीं करतीं, लड़के करते हैं. यही वजह है कि हम लड़कों और लड़कियों को भिड़ाते हैं. हर बार जब कोई लड़की चार लड़कों को एक साथ पटकती है तो मुझे सालों पहले की डरी हुई उषा याद आती है.

लगभग डेढ़ साल बैगा-ओझा, दवाओं और मानसिक चिकित्सालयों के बीच थमी रही उषा आज रात 11 से पहले घर नहीं लौटतीं. डर नहीं लगता! पूछने पर पहले उनकी हंसी सुनाई देती है, फिर आवाज.

कहती हैं- स्कूटी से लौटते हुए अगर मैं कोई खास रास्ता टालती हूं तो इसलिए क्योंकि वहां से रात में ट्रकें गुजरती हैं. अब एक्सिडेंट का डर तो है लेकिन लड़की होने का नहीं.

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