दूसरों से अलग क्यो दिखना चाहिए?

Update: 2020-01-25 14:01 GMT

मनीष सिंह 

स्कूल यूनिफॉर्म का शिक्षा से क्या लेना-देना होता है? सेना की वर्दी का युध्द कौशल से क्या लेना देना होगा। धर्मों और सम्प्रदायों की शिक्षा का खास तरह के वस्त्रों से क्या लेना देना होता है। धोती-तिलक-चोटी का माहात्म्य किस ग्रन्थ में लिखा है, टोपी-पायजामा क्या हजरत की शिक्षाओं का भाग है?

धर्मों-सम्प्रदायों और कल्चर को गौरवान्वित करने के नाम पर हमने बदन पर प्रदर्शनी लगा रखी है। घूंघट और बुर्का एक ही दकियानूसी सोच की उपज हैं। मगर अपना वाला कल्चर और दूसरे का जाहिलियत है।

दरअसल ये रेजीमेंटेशन और मार्केटिंग का हिस्सा होता है। अब किसी स्कूल की छुट्टी पर हजार बच्चे एक तरह की ड्रेस में बाहर आते हैं, तो उसकी लोकप्रियता और स्ट्रेन्थ का पता चलता है। एक तरह का गमछा गले में डाले कार्यकर्ता नारे लगाते हैं, उस दल की आउटरीच का भबभड़ बनता है। एक तरह की चड्डी पहने लठैत जब पथ पर संचलन करते हैं, तो उनकी संख्या देखकर भय फैलता है, उनके खुद के लोगो को संगठित होने का नशा मिलता है।

एक रंग की यूनिफार्म में चीखते फौजी जब आपकी तरफ आते हैं, तो आपका मोरेल डाउन होता है। प्रतिक्रिया में आपकी वर्दी पहने फौजियों की उतनी ही प्रति-चीख निकलनी चाहिये।

मार्केटिंग और नशा, ये दो चीजें चाहिए होती हैं, चाहे नई दुकान हो, नया धर्म हो, नया सम्प्रदाय, या नए राजा का राज.. । उसकी उच्चता, लोकप्रियता, ताकत और स्वीकार्यता का प्रदर्शन, उंसके चिन्हों के वाइडस्प्रेड यूज से मजबूत होता जाता है। वक्त के साथ वो कल्चर, परम्परा और पहचान बन जाता है। ये सब कबीलाई समाज की विरासतें हैं।

एक लोकतांत्रिक, समानता वादी, कानून की सर्वोच्चता वाले शासन तंत्र में इस तरह के "अलग दिखूं फितूर" से बचने की जरूरत है। लक्षणों पर आधारित रेजीमेंटेशन आपको कभी भी कबीलाई युग की तरफ ले जा सकता है। विशेष अवसरों को छोड़कर,जहां कल्चर और धर्म को सप्रेम सेलिब्रेट किया जाए.. नॉर्मल लाइफ में नार्मल भारतीय की तरह रहने की जरूरत है।

खासकर युवाओं को समझने की जरूरत है, धोती-भगवा या टोपी-हरा का परचम किसी उच्चता का प्रमाण नहीं, विभाजन का सबब जरूर हो जाता है। एक रंग छोड़ें, तिरंगे के आगोश में रहें, कास्मोपोलिटन दिखें, हंसे खेलें। अपना धर्म बदन पर न लपेटें। अपने घर के भीतर, या महीने आठ दिन में मन्दिर मस्जिद के भीतर ही बन्द रखें।

इक्कीसवीं सदी में, ईसा पूर्व अथवा सातवीं सदी वाले रेजीमेंटेशन और मार्केटिंग का जीवित जीवाश्म बनकर मत घूमें। अलग दिखना नही, एक जैसा दिखना फिलहाल इस देश की सबसे बड़ी जरूरत है, वरना सरकार तो कपड़ो से पहचानने को तैयार है ही।

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स्कूल, फ़ौज, सुरक्षा संगठनों की यूनिफॉर्म की अपनी स्पस्ट उपयोगिताए भी हैं। जिस पर इससे भी लम्बा किस्सा लिखा जा सकता है। बात धर्मो और सम्प्रदाय के परिप्रेक्ष्य में है। कृपया उसे ही समझिये, विचारिये।

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