सियासत की जंग , पिछड़ा बनाम पिछड़ा

हर दिल के टुकड़े हजार हुए कुछ यहां गिरे कुछ वहां गिरे.;

Update: 2017-08-03 14:12 GMT

अशोक कुमार मिश्र 

बात नब्बे की दशक की है. एक दिन मैं आर ब्लाक एम एल ए फ्लैट की सड़क से गुजर रहा था तो सामने में पूर्व विधान सभा अध्यक्ष स्व शिवचन्द्र झा जी पर नजर पड़ी. वही शिवचन्द्र झा जिन्होंने विधान सभा में मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद को सदन का नेता नही माना और स्व कर्पूरी ठाकुर जी सदन में विरोधी दल के नेता के रूप में मान्यता नही दी. यानि उनके सामने अगड़ा पिछड़ा एक समान.


हालांकि इस वजह से उन्हे दोनों पक्षो की ओर से गाली भी सुननी पड़ी.प्रतिभा की प्रतिमूर्ति लेकिन अकेले अपने सरकारी आवास पर बैठे थे. मेरी इच्छा हुई उनसे मुलाकात कर लू.जाते ही मैने अपना परिचय दिया फिर बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ. हां एक बात याद दिला दूं कि उस समय केन्द्र में स्व बीपी सिंह की सरकार थी तो राज्य में लालू प्रसाद यादव सत्तासीन हो चुके थे. पूरी समाजवादी मंडली स्व देवी लाल जी के नेतृत्व में एक झंडे के तले थी. शरद यादव , लालू प्रसाद यादव , नीतीश कुमार , रामविलास पासवान वशिष्ठ नारायण सिंह , नरेन्द्र सिंह समेत सभी नेता एक साथ. हां तो मैने उनसे राजनीति के वर्तमान हालात पर बात चीत शुरू की और कहा कि ये कैसी राजनीति है कि आप भागवत झा के खिलाफ तो राधानंद झा जी , नागेन्द्र झा जी जगन्नाथ मिश्रा जी एक दूसरे के खिलाफ हैं जबकि कांग्रेसी होने के बावजूद रामलखन सिंह यादव जी लालू जी के साथ है. आपने अपने कार्यकाल में कांग्रेसी होने के बावजूद भागवत झा आजाद के खिलाफ काम किया तो कर्पूरी जी को नही बख्सा. कुछ देर तक उन्होनें सोचा फिर बोलना शुरू किया. उन्होनें कहा कि न्याय की कुर्सी पर बैठकर कोई अपना पराया नही होता.


एक बात और सुन लो अशोक जिन पिछड़े लोगों की तुम बात कर रहे हो जब इनमें भी चेतना जगेगी तो सत्ता का संघर्ष इनके बीच भी शुरू होगा. उस समय झा जी की बात मुझे कपोल कल्पना लगी . लेकिन पांच साल बीतते बीतते सब कुछ बदल गया. चारा घोटाला के बाद लालू , रामविलास , नीतीश , रामलखन सिंह यादव सभी अलग - अलग हुए. हर दिल के टुकड़े हजार हुए कुछ यहां गिरे कुछ वहां गिरे. लेकिन इन सबो के बीच लालू काफी बड़े नेता होकर उभरे और 2005 तक तो बिहार में उनकी हुकुमत रही तो 2005 से 2010 तक वे केन्द्र में मत्री रहे ये अलग बात है कि जिस कांग्रेस के विरोध से लालू की राजनीति शुरू हुई थी उसी के सहयोग से राज्य और केन्द्र दोनों में लालू ने सत्ता का स्वाद चखा. लेकिन फिर भी लालू मंडल के मसीहा बने और माय समीकरण के सबसे बड़े नेता.


लेकिन लालू की सत्ता से माय के अलावे अन्य पिछडी जातियो में आक्रोश बढ़ा और लालू के एकाधिकार को नीतीश ने चुनौती दी. पहले उन्होनें वामदलो के साथ समझौता करने की कोशिश की लेकिन सफलता नही मिली. विधान सभा चुनाव मे भी नीतीश केवल 7 सीट पाने में कामयाब हुए. लेकिन नीतीश ने हार नही मानी और लालू को मात देने के लिये उस बीजेपी से हाथ मिलाया जिसे मंडल विरोधी कहा जाता है. नीतीश के इस कदम से देश की सियासत बदली एन डी ए का स्वरूप बदला तो केन्द्र और राज्य दोनों जगह लालू को मात देकर नीतीश सत्ता पर आसीन हुए. यानि नीतीश और लालू दोनों को उस सामंतशाही का सहयोग लेना पड़ा जिसके वे विरोधी थे.


लेकिन अब जमाना बदल गया है. केन्द्र में पिछड़ो के नेता नरेन्द्र मोदी ने बिहार में मंडल के नायक लालू और नीतीश दोनों को मात दी. तो बिहार में लालू नीतीश ने मिलकर मोदी को विधान सभा चुनाव में पटकनी दी. लेकिन समाजवादियों के बारे में मान्यता है कि जब वे सत्ता में रहते है तो ज्यादा दिनो तक साथ नही रह सकते और विपक्ष में रहने पर अलग नही. यह बिहार में सच साबित हुआ है.. लालू नीतीश दोनों एक दूसरे से अलग हुए है.


नीतीश को बड़े मोदी और छोटे मोदी जो दोनो पिछड़े हे उनका साथ है तो लालू को एक बार फिर शरद यादव का साथ मिलने की संभावना है. नीतीश और लालू के बीच अब पिछड़ो का असली मसीहा बनने की होड़ है. वजह साफ है सत्ता संघर्ष में अब माय समीकरण और लव कुश के अलावे उन पिछड़ी और दलित जातियों का वोट महत्वपूर्ण हो गया है जो अब तक उपेक्षित है. यही वजह है कि दोनों एक दूसरे पर सामंतवादी होने का आरोप लगा रहै.


एक तरफ भ्रष्टाचार जैसी तेज धार वाली हथियार लेकर नीतीश खड़े है तो दूसरी तरफ सेक्यूलर की सेफ चादर ओढकर लालू मैदान में है. यानि सत्ता की जंग अब पिछड़ा बनाम पिछड़ा के बीच शुरू हो गया है. परिणाम आने में अभी वक्त है. लेकिन जिस तरह से शतरंज की चाल शुरू हो गयी है आने वाला समय बिहार और देश की राजनीति के लिये दिलचस्प होने वाला है. शेष जो तथाकथित सामंत वादी ताकते हैं फिलहाल उनके पास तमाशा देखने के अलावा कोई चारा तो नही दिखता.

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