शब्द नहीं करते कभी खुदकुशी- सरला माहेश्वरी

Update: 2018-01-29 14:27 GMT
हिमा अग्रवाल
जयपुर: समानांतर साहित्य उत्सव के तीसरे दिन मुक्तिबोध मंच पर राजनीति की भाषा का पतन सत्र का आयोजन किया गया जिसमें वरिष्ठ कथाकार एवं प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव राजेंद्र राजन, दीपक मल्लिक, प्रो. नरेश दाधीच और पूर्व सांसद सरला माहेश्वरी की भागीदारी रही। कार्यक्रम का संचालन बीबीसी संवाददाता नारायण बारेठ ने किया। वक्ताओं का मत था कि राजनीति की भाषा में निरंतर गिरावट आई है और यह पतन की ओर अग्रसर है। आजादी के बाद राजनीतिक मूल्यों के पतन साथ भाषा का पतन भी हुआ है। 
प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव एवं वरिष्ठ कथाकार राजेंद्र राजन ने कहा कि राजनीति की आलोचना करो और अपने को पवित्र बनाओ। राजनीति हमारे जीवन का अनिवार्य हिस्सा है। हमारा जीवन राजनीति से अलग नहीं है। वाल्मिकी हमारे आदि कवि है जिन्होंने हमें प्रेम और सद्भाव की भाषा दी। हमारे कवि भक्तिकाल में आम आदमी के लिए लिख रहे थे। इसी कारण प्रतिपक्ष बन पाया। हमारे कवि चाहे वाल्मिकी हो या कबीर सभी सत्ता को चुनौती देते है। इसी कारण वह महान बन पाए। संत साहित्य ने भाषा में विद्रोह पैदा किया। आजादी के आंदोलन में हिंदी को माध्यम बनाया गया। आज की राजनीति में मूल्य के नाम पर प्रश्न चिन्ह खड़ा है। नेताओं के जीवन में मूल्य खत्म हो गए है और इसलिए भाषा खत्म हो रही है। उन्होने कहा कि अगर भाषा जनता के साथ नहीं जुड़ी तब तक भाषा की यही दशा रहेगी।
पूर्व सांसद एवं माक्र्सवादी विचारक सरला माहेश्वरी ने कहा कि भाषा की गिरावट का मामला जीवन की संपूर्ण गिरावट का मामला है। आज का लोकतंत्र चुप्पी और डर का बन गया है। बाजार और नियामक निर्णायक बनता जा रहा है। शक्ति ही सर्वाच्च है। भाषा विचारों को भ्रष्ट करती है तो विचार भी भाषा को भ्रष्ट करते हैं। उन्होंने जॉर्ज ऑरवेल का कथन उदृत किया कि- शब्द नहीं करते खुदकुशी। हिटलर के जमाने में मनुष्य शक्ति की तानाशाही का शिकार होता रहा है।
प्रो. नरेश दाधीच ने कहा कि राजनीति की भाषा बहुत बदल गई है। भाषा के पतन का कारण सामाजिक जीवन की बदलती धारा भी है।
दीपक मल्लिक ने कहा कि भाषा कब उभरी और कब उसमें गिरावट आई। भाषा का गिरना विमर्श का भी गिरना है। आजादी की लड़ाई ने नए शब्दों को जन्म दिया जो सबसे अहम रहा है। नेहरू युग की अपनी भाषा थी, वह खास तरह का समाजवाद था। वामपंथ के दबाव से भाषा के नए युग का निर्माण हुआ। सियासत की भाषा आंदोलनों से रची जाती है। राजनीति की सम्मान जनक भाषा समाप्त हो रही है। भाषा पर राजनीति में आज के प्रधानमंत्री के बारे में क्या कहा जाए? उनकी भाषा से क्या उम्मीद की जाए?। उन्होंने कहा कि आज जन आंदोलन बहुत सीमित हो गए हैं। 2014 में दक्षिण पंथी विमर्श नस्ली विमर्श में बदलता दिखाई दिया। भाषा के बिखरने का कोई ढ़ांचा नहीं है, इसी कारण भाषा लगातार निकल रही है। वर्ष 2014के बाद हमारी पुरानी भाषा सरस्वती नदी की तरह विलुप्त हो गई है

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