निबट गयो शामली को ब्याह!
चलो आखिरकर काणी और लंगड़ी लड़की शामली का ब्याह होगया । शामली के नसीब में कन्नू जैसा शराबी-कबाबी पति लिखा था, अंततः उसे मिल गया। पत्रकार आंदोलन का हश्र भी कन्नू और शामली जैसा हुआ।;
चलो आखिरकर काणी और लंगड़ी लड़की शामली का ब्याह होगया । शामली के नसीब में कन्नू जैसा शराबी-कबाबी पति लिखा था, अंततः उसे मिल गया। पत्रकार आंदोलन का हश्र भी कन्नू और शामली जैसा हुआ। आखिरकार लंबी भाग दौड़ और हाथा जोड़ी के बाद भी पत्रकार अपनी इज्जत बचाने में नाकामयाब रहे। दिखावे के लिए पत्रकार साथी कितना भी जश्न मनाले, आतिशबाजी फोड़ ले, लेकिन हकीकत यही है कि पत्रकारों को पूरी तरह सरकार के सामने नतमस्तक होना पड़ा। ना कोई लिखित समझौता हुआ और ना ही कोई पुख्ता आश्वासन । फिर समझौता कैसा ? यह समझौता नही था, इज्जत को रोज रोज जो पलीता लग रहा था, उसको बचाने का मात्र प्रयास था।
कल जयपुर में दो बड़े हादसे हुए। एक विद्द्याधरनगर में भीषण हादसे में पांच लोगों की मौत और दूसरा नारायण सिंह सर्किल के पास पत्रकारों की अस्मिता का होली दहन। सवाल पैदा होता है कि आंदोलनकारी नेताओ की जब पहले जन सम्पर्क सचिव अरिजीत बनर्जी से बातचीत हो चुकी थी, तब आंदोलन क्यो ? इस बात की क्या गारंटी है कि सरकार अब मांग मान ही लेगी। अगर सरकार ने मांग नही मानी तब क्या होगा ?
देश के इतिहास में न्याय देने सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को भी जब न्याय नही मिला तो उन्हें मीडिया की शरण मे आना पड़ा। मीडिया के लिए और कोई गर्व की बात नही हो सकती। लेकिन जयपुर में कुछ लोगो ने अपनी नासमझी की वजह से पूरे मीडिया को शर्मसार कर दिया। जिस जगह काला दिवस का बैनर लगा था, अब वहां धिक्कार दिवस का बोर्ड लगा देना चाहिए। पत्रकारों के लिए इससे बड़ी और क्या गैरत की बात हो सकती है कि एक अधिकारी ने आंदोलन के संदर्भ में कहाकि "बच्चे कई दिनों से पतंग और मांझे के लिए रो रहे थे। आखिर रोते बच्चो को टरकाना तो था ही।" इस प्रतिक्रिया से पत्रकार अपना बखूबी मूल्यांकन कर सकते है। शुक्र मनाओ कि कोई त्रिपाठी नामक अधिकारी आ गया। वरना कोई चपरासी भी आता तो पत्रकार ससम्मान उसकी बात भी मानकर आंदोलन की रस्सी तुड़ा कर भाग जाते।
अब सवाल यह उत्पन्न होता है कि आखिरकार आंदोलनकारी करते भी तो क्या ? 32 दिन तक दिन भर टकटकी लगाने के बाद भी जब कोई सरकारी नुमाइंदे ने झांकने की जुर्रत तक नही की तो इन आंदोलनकारियों के पास रस्सा तुड़ा कर भागने के अलावा कोई विकल्प बचा ही नही। दूल्हा लंगड़ा-लूला, काणा कैसा भी मिले, शामली का ब्याह तो करना ही था। इसी विवशता के वजह से आंदोलनकारियों को अफसरों के (सरकार नही) के घुटने टेकने पड़े।
हकीकत यह है कि पत्रकारों की मांग जायज हो सकती है। लेकिन आंदोलन पूरी तरह दिशाहीन था। इस आंदोलन की सबसे बड़ी कमी यही थी कि ना तो कोई वजनी अखबार से जुड़ा व्यक्ति था और ना ही कोई वजनी पत्रकार। सब जानते है कि जितना बड़ा जूता होता है, पालिस उतनी ज्यादा लगती है। मुख्यमंत्री बखूबी जानती थी कि अधिकांश वास्तविक मीडिया उनके साथ है, फिर वे ऐरे-गैरो को तवज्जो क्यो देने लगी ? यह भी सब जानते है आज पत्रकारों को सम्मान की दृष्टि से नही, शनि की निगाहों से देखा जाता है। आंदोलन से जुड़ा एक भी व्यक्ति ना तो कुछ बिगाड़ने की हालत में था और ना ही फायदा पहुँचाने की स्थिति में।
जुड़ने को कई पत्रकार संगठन आंदोलन में सम्मिलित थे। लेकिन किसी की दुकान में कोई सामान नही था। आंदोलनकारी इस बात की समीक्षा करें कि पत्रकार संगठनों से जुड़े कितने लोग वास्तविक पत्रकार है। केवल किसी संगठन की सदस्यता ग्रहण करने से कोई पत्रकार नही बन जाता। पूपाड़ी बजाने वाले, कपड़ो पर प्रेस करने वाले, जूतों पर पालिश करने वाले जब पत्रकारों की जमात काबिज होकर अपना दबदबा कायम कर लेंगे, तब आंदोलन का यही हश्र होगा। ऐसे ही लोग भूखण्ड पाने वालों की पंगत में है । सबसे पहले पत्रकारों को अपनी आतमलोचना करनी होगी, तभी सरकार उनको तवज्जो देगी। वरना 32 तो क्या 320 दिन भी आंदोलन क्यो ना करलो, सरकार के कानों पर जूं रेंगने वाली है नही। जहाँ तक ताकत और एकता का सवाल है, पत्रकारों में राजपूतो या गुर्जर जैसी एकता भी नही है जिसके दम पर सरकार घुटनें टेक दे। खुशी है कि जैसे-तैसे शामली को ब्याह तो निबट गयो।