पत्रकारिता लोकतंत्र का सबसे मजबूत स्तम्भ माना जाता है। खेद का विषय है कि आज खम्बे के पाए पूरी तरह जर्जरित हो चुके है। जिस दिन पाए धाराशायी होगये, उस दिन लोकतंत्र का भी अंतिम संस्कार होना लाजिमी है। पत्रकारिता के बिना मजबूत और स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना करना भी बेमानी है। अगर लोकतंत्र को मजबूत बनाना है तो पत्रकारिता की सेहत भी ठीक रखने के पुख्ता उपाय करने होंगे। ये उपाय कोई आयातीत एजेंसी नही, खुद पत्रकार करेंगे।
जिस प्रकार हर कारोबार और वर्ग में माफियागिरी घुस गई है, उसी प्रकार पत्रकारिता भी माफिया बन चुकी है। पत्रकारिता में सही कलमकार बमुश्किल 20 फीसदी होंगे । शेष 80 फीसदी पेशेवर गुंडे, भूमाफिया, अवसरवादी तथा सरकार को चूना लगाने वाले घुसपैठ कर चुके है। दफ्तर के रियायती दर पर जमीन, रहने के लिए फोकट में आवास, मकान निर्माण के लिए भी रियायती जमीन की ना केवल दरकार रखते है बल्कि उसको भोग भी रहे है। सुखाड़िया से लेकर गहलोत जो बंदरबांट का सिलसिला प्रारम्भ हुआ, वह आज भी कायम है। स्व भैरोसिंह शेखावत ने तो सारी सीमाओ को लांघते हुए सरकारी कर्मचारियों के लिए सुरक्षित सरकारी आवास भी पत्रकारों में बांटकर अपनी मनमानेपन का परिचय दिया। अगर हाईकोर्ट से सरकार को लताड़ नही पड़ती तो गांधीनगर के तमाम सरकारी आवासों पर पत्रकार काबिज हो जाते।
फर्जी दस्तावेज और फर्जी प्रसार संख्या बताकर अखबार मालिकों ने जयपुर सहित प्रदेश के अन्य शहरों के पॉश इलाको में कौड़ियो के भाव जमीन हथियाकर उन्हें आलीशान काम्प्लेक्स में तब्दील कर आइडिया, एयरसेल आदि बड़े कॉरपोरेट हाउसों को मोटे किराये पर देकर अपनी बेशर्मी का परिचय दिया है। राजनेताओ से बड़े लुटेरे साबित हो रहे है अखबार मालिक। ऐसे में पत्रकारिता निष्पक्ष और निर्भीक रह सकती है ? कदापि नही।
सवाल अब उन पत्रकारों का है जिनकी आधी से ज्यादा जिंदगी कलम घसीटते हुए स्वाह हो गई। और कोई कारोबार है नही। बच्चे बड़े होते जा रहे है। क्या वास्तविक श्रमजीवी पत्रकारों को बुनियादी सुविधाओं से महरूम रखना अधर्म और अन्याय नही है ? जयपुर में पत्रकार लंबे समय से अपनी वाजिब मांगो को लेकर अनशन पर है। पत्रकारो को दुख मांगे नही मानने का नही है। दुःख है तो केवल सरकार की खामोशी और अन्य पत्रकारो की उपेक्षा का। जो लोग सारी सुविधाएं थोक के भाव बटोर चुके है, वे आंदोलनकारियों को हेय दृष्टि से देख रहे है । समर्थन करना तो दूर रहा, आंदोलनकारियों की हौसलाअफजाई के हौसले से भी थर थर कांप रहे है। यह पत्कारिता का नही, पत्रकारों का घोर पतन है। बेचारे इस बात से भयभीत है कि कहीं सरकार हमसे दी हुई सुविधा नही छीन ले । इतनी ही कंपकपाहट और खौफ है तो किसने कहा पत्रकार बनने को। तेल मालिश करके इससे भी ज्यादा रुपया कमा सकते थे।
जयपुर के पत्रकारों की मांग और नेतृत्व को लेकर सवाल खड़े किए जा सकते है । लेकिन इन सवाल के बीच वास्तविक और श्रमजीवी पत्रकारो को क्यो घन चक्कर बना रखा है। सब जानते है वसुंधरा राजे जिद्दी है। लेकिन इस बात को भी नही भूलना चाहिए कि वे एक संवेदनशील महिला भी है। मुख्यमंत्री को आग्रह-पूर्वाग्रह भूलकर पत्रकारो को एक खुद बुलाकर बात करनी चाहिए। इससे उनके कद में इजाफा होगा। अगर मांग नाजायज है या कानून के दायरे से बाहर है तो पत्रकारों को बताने में हर्ज क्या है ? मुख्यमंत्री जी, आप पहल कर दीजिए अपनी सदाशयता का परिचय। खामोशी ना तो सरकार के लिए उचित है और ना ही पत्रकारो के लिए।