क्या है कर्बला का पैगाम?

कर्बला के इस वाक़िए (घटना) को 1400 साल गुज़रने के बाद भी कर्बला के शहीदों की अज़मत को याद किया जाता है

Update: 2022-08-03 10:10 GMT

ज़िल-हिज्जा साल का आख़िरी महीना है जिसकी 10 तारीख़ को हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की अज़ीमुश्शान क़ुरबानी को याद किया जाता है और मुहर्रम साल का पहला महीना है इसकी 10 तारीख़ को भी एक दूसरी अज़ीमुश्शान क़ुरबानी की याद ताज़ा की जाती है।

जिस तरह इबराहीम (अलैहि०) ने अपने रब की मर्ज़ी को पूरा करने के लिए अपने बेटे इस्माईल (अलैहि०) की गर्दन पर छुरी रख दी थी और अल्लाह का क़ुर्ब (नज़दीकी) हासिल करने के लिए अपने जज़्बात और एहसासात की परवाह किये बाग़ैर अपने बेटे तक को क़ुर्बान करने के लिए तैयार हो गए थे, उसी तरह दीन में मामूली सा इनहिराफ़ (तब्दीली) को बर्दाश्त न करते हुए हज़रत हुसैन (रज़ि०) ने उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और यहाँ तक कि कर्बला के मैदान में शहीद हो गए।

कर्बला के इस वाक़िए (घटना) को 1400 साल गुज़रने के बाद भी कर्बला के शहीदों की अज़मत को याद किया जाता है, यहाँ तक कि ग़ैर-मुस्लिम हज़रात ने भी उनकी अज़मत को तस्लीम किया है।

लेकिन

¶ क्या हज़रते-हुसैन (रज़ि०) की शहादत की अज़मत का एतिराफ़ करते रहना ही हमारे लिए काफ़ी है?

¶ क्या उनको मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से ख़िराजे-अक़ीदत पेश करते रहने से हमारे ऊपर के फ़र्ज़ और ज़िम्मेदारियाँ पूरी हो जाती हैं?

¶ क्या कर्बला के शहीदों पर ढाए गए मज़ालिम पर मातम करके और उनकी शहादत की रौशनी में अपनी ज़िन्दगी के लिए कोई राहे-अमल (कार्यशैली) मुतैयन न करके हम कर्बला के शहीदों से सच्ची अक़ीदत रखने वाले मोमिन कहलाने के हक़दार हो सकते हैं?....... नहीं! हरगिज़ नहीं!!

अगर हम वाक़ई हुसैन (रज़ि०) से अक़ीदत रखते हैं तो ग़ौर करना होगा कि वो मक़सद क्या था जिसके लिए हुसैन (रज़ि०) ने अपनी जान तक क़ुर्बान कर दी थी? आख़िर वो ये इन्तिहाई क़दम उठाने पर क्यों मजबूर हुए?

जिन लोगों से हज़रत हुसैन का मुक़ाबला था क्या वो इस्लाम को छोड़कर काफ़िर हो गए थे?

क्या वो शिर्क करने लगे थे?

क्या वो लोग रिसालत के मुनकिर हो गए थे?

क्या उन्होंने अक़ीदाए-आख़िरत को मानने से इनकार कर दिया था?

ज़ाहिर है इनमें से कोई बात नहीं थी।

फिर क्या नऊज़ुबिल्लाह हुसैन (रज़ि०) हुकूमत और शान-शौकत के ख़ाहिशमन्द थे?

क्या वो नाऊज़ुबिल्लाह दौलत और शोहरत के तलबगार थे?

तारीख़ (इतिहास) का मामूली मुताला करने वाला शख़्स पुकार उठेगा कि नहीं!..हरगिज़ नहीं।

फिर वो क्या बात है जिसके लिए हज़रत हुसैन 72 लोगों के साथ उस शख़्स के आगे सीना तानकर खड़े हो गए जिसकी सल्तनत ज़मीन के बड़े हिस्से तक फैली हुई थी?

इस्लाम बुनियादी तौर पर तज़किया (गंदगियों और ख़राबियों को पाक करके पाकीज़गी की बुनियाद पर डेवेलपमेंट) चाहता है। ये तज़किया एक फ़र्द का भी होना चाहिये, ख़ानदान और समाज का भी। प्यारे नबी (स०) ने इस काम को अपनी ज़िंदगी में कमाल दर्जे तक करके दिखा दिया और क़ियामत तक के लोगों के लिये एक नमूना छोड़ दिया था। यानी प्यारे नबी (स०) ने एक फ़र्द से लेकर रियासत तक के तज़किया का काम अंजाम दिया और उसी काम को अपने साथियों को सौंप गए, जिन्होंने उस काम को बहुत अच्छी तरह अंजाम दिया।

आप (स०) ने रियासत की तशकील इस तरह की थी कि उसमें क़ानून किसी इनसान या इनसानों के किसी गरोह का बनाया हुआ नहीं था और इस हुकूमत को चलाने की ज़िम्मेदारी भी किसी ख़ास फ़र्द, ख़ानदान या किसी ख़ास गरोह की नहीं थी, बल्कि इस हुकूमत को चलाने की ज़िम्मेदारी अवाम के ज़रिए उन लोगों को सौंपी जानी थी जो दीन और शरीअत के सबसे ज़्यादा जानकार भी हों और वो सिर्फ़ जानकार ही न हों बल्कि अल्लाह से डरनेवाले भी सबसे ज़्यादा हों, यानी वो हक़ीक़ी तक़वा भी रखते हों। जो-

 क़ानून अल्लाह का लागू करें लेकिन अपने-आपको क़ानून से बालातर न समझें,

 ख़ुदा से डरते हुए तमाम लोगों के साथ बेलाग तरीक़े से इनसाफ़ करने का हौसला रखते हों, और

 अवाम को ख़ादिम या सेवक न समझते हों, बल्कि ख़ुद अवाम के ख़ादिम हों।

ताकि हुकूमती सतह पर करप्शन के चांस कम से कम तर हों, समाज में ख़ुशहाली आए और अवाम सुख-चैन की साँस ले सके। (इस तरह की तर्ज़े-हुकूमत को इस्लामी इस्तिलाह में ख़िलाफ़त कहा जाता है) 

तमाम वाक़िआत पर ग़ौर करने से मालूम होता है कि वाक़िआए-करबला में असल इख़्तिलाफ़ की जड़ ये थी कि मुहम्मद (स०) की (तज़किया की बुनियाद पर) क़ायम की हुई हुकूमत (ख़िलाफ़त) की बागडोर उस वक़्त ऐसे लोगों ने ज़बरदस्ती अपने हाथों में ले ली थी जो उसके अहल नहीं थे। जो

• बड़ा तो एक अल्लाह को ही मानते थे लेकिन हुकूमत पर क़ब्ज़ा करना अपना हक़ समझते थे।

• क़ानून तो अल्लाह ही का चलाते थे लेकिन अपने-आपको उस क़ानून से बालातर समझते थे।

• नमाज़ और रोज़े के तो पाबंद थे लेकिन अवाम के बैतुल-माल को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ अपने ऊपर ख़र्च करने का अपने आपको हक़दार मानते थे।

• अपने लोगों के साथ बर्ताव अलग अंदाज़ से करते और दूसरे लोगों के साथ दूसरे अंदाज़ के करते थे।

फिर वो ज़बरदस्ती और ज़ुल्म के ज़रिए हासिल की हुई उस हुकूमत पर हज़रत हुसैन की भी बैअत चाहते थे।

बज़ाहिर ये बहुत मामूली सी तब्दीली थी लेकिन एक ग़ैरतमन्द और हक़-परस्त मोमिन होने के नाते वो इस ज़ुल्म और ज़बरदस्ती को कैसे बर्दाश्त कर सकते थे? इसलिए अपनी जान-माल, घर-परिवार की परवाह किये बग़ैर उन जाबिर हुक्मरानों से आँख में आँख डालकर बात करने को उठ खड़े हुए थे।

असल में हुसैन (रज़ि०) बातिल पर पड़े हुए हक़ के झूटे निक़ाब को उतार फैंकना चाहते थे और यज़ीदी ताक़त चाहती थी कि हज़रते-हुसैन अपने मॉक़फ़ व नज़रिये को तब्दील करके उसकी मुलूकीयत को तस्लीम करें। उसके हाथ में हाथ देकर अपनी इताअत का यक़ीन दिलाएँ, लेकिन हज़रते-हुसैन (रज़ि०) ने कर्बला में दास्ताने-हक़-व-हुर्रियत (हक़ और आज़ादी की दास्तान) को अपने ख़ून की सुर्ख़ी अता करके एक तारीख़ लिख दी कि अपना सर तो दे दिया लेकिन ज़ालिम व जाबिर के हाथ में अपना हाथ नहीं दिया।

यूँ तो कर्बला की दास्तान में मुसलमानों के लिए बहुत-से पैग़ाम हैं। लेकिन उनमें सबसे नुमायाँ और अहम पैग़ाम ये है कि

■ नाज़ुक से नाज़ुक हालात में भी हम हक़ पर जमे रहें। और हक़ की ख़ातिर अपनी सलाहियतें, अपना वक़्त और माल यहाँ तक कि अपनी जान तक की क़ुरबानी से पीछे न हटें।

यहाँ पर ये बात भी क़ाबिले-ग़ौर है कि लोग नाहक़ के लिए भी अपना सब कुछ क़ुर्बान कर देने के लिये तैयार हो जाते हैं तो हक़ के लिए हमें क्यों तरद्दुद हो।

इस सिलसिले में ये बात भी समझने की है कि हक़ के लिए सब कुछ क़ुर्बान कर देने का जज़्बा ईमान की मज़बूती के बग़ैर कभी पैदा नहीं हो सकता। लिहाज़ा सबसे पहले और सबसे ज़्यादा हमें अपने ईमान को मज़बूत करने की फ़िक्र करनी होगी।

मैदाने-कर्बला से दूसरा पैग़ाम हमें ये मिलता है कि

■ यज़ीदी सिफ़त रखने वाले लोगों की बैअत का हम इनकार कर दें और हक़ को तलाश करके फ़ौरन उस पर लब्बैक कहें और लपक कर बैअत कर लें। ये यज़ीदी सिफ़त रखने वाले लोग सियासी हुक्मराँ भी हो सकते हैं, दीनी जमाअतों और तहरीकों के पेशवा भी हो सकते हैं और मदरसों और ख़ानक़ाहों के ज़िम्मेदार भी।

शहादते-हुसैन (रज़ि०) से एक पैग़ाम ये भी मिलता है कि

■ माद्दी (भौतिक) फ़ायदों के लालच में आकर हम अपने ज़मीर (अन्तरात्मा) का सौदा हरगिज़ न करें। ज़रा ग़ौर फ़रमाइये कि हज़रत हुसैन अगर चाहते तो उन्हें हर तरह की ऐश व इशरत ख़ूब मिल सकती थी। यज़ीद की बैअत कर लेते तो ख़ूब ख़ुशहाल और इत्मीनान की ज़िन्दगी गुज़ारते, लेकिन आपने ऐसा नहीं किया। आपने अपने ज़मीर का सौदा नहीं किया, दीन में बज़ाहिर मामूली सी तब्दीली को देखकर हक़ को ज़िन्दा करने के लिए कमरबस्ता हो गए और जान तक चले जाने की परवाह न की क्योंकि वो ज़िन्दगी की हक़ीक़त को बहुत अच्छी तरह समझते थे।

आज दुनिया के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में इस्लाम और मुसलमानों को मिटाने की साज़िशें हो रही हैं। मुसलमान और उनके मुल्क आज बातिल क़ुव्वतों के निशाने पर हैं। लेकिन इन मुल्कों के हुक्मराँ अपनी वक़्ती और आरिज़ी जॉ-बख़्शी को ही आफ़ियत का परवाना समझे बैठे हैं और अपनी इस ग़ुलामी को अपनी तक़दीर समझकर वक़्त के फ़िरऔनों के सामने नतमस्तक (घुटनों के बल गिरे हुए) हैं। इन ज़ालिम व जाबिर फ़िरऔनों के गरेबानों पर हाथ डालने का हौसला अगर मुस्लिम हुक्मरानों और मज़हबी पेशवाओं के पास नहीं है तो इसकी एक और इकलौती वजह ये है कि इन्होंने पूरी क़ौम को हज़रते-हुसैन की शहादत पर नौहा करने और सीना पीटने पर तो लगा रखा है लेकिन उनकी शख़्सियत को नमूना बनाने की तरफ़ मुतवज्जेह नहीं किया जाता। पूरी क़ौम को बातिल के हथियारों और उसकी टेक्नॉलॉजी का डर दिखाकर ख़ामोश रहने ही की तरफ़ उभारा जाता है। लेकिन हम ये भूल जाते हैं कि नवासाए-रसूल ने कर्बला के मैदान में यज़ीदी क़ुव्वत का मुक़ाबला फ़ौज और हथियारों की ताक़त के बल पर नहीं किया था। वो तो अंजाम की परवाह किये बग़ैर सिर्फ़ और सिर्फ़ हक़ की ख़ातिर मैदान में उतर आए थे और डट कर मुक़ाबला किया। हालाँकि इस बेजोड़ जंग में ज़ाहिरी तौर पर जीत यज़ीदी क़ुव्वत ही की हुई लेकिन दुनिया की तारीख़ में ये बात लिख दी गई कि

"यज़ीद ने सिर्फ़ मोर्चा जीता था, जंग हारी थी।"

आओ अहद करें

आज जबकि हम हज़रत हुसैन (रज़ि०) की याद मना रहे हैं और कर्बला के शोहदा को ख़िराजे-अक़ीदत पेश कर रहे हैं तो हमें ये अहद करना चाहिए कि हम शहीदे-कर्बला के उसूलों को अपने लिए नमूना बनाएँगे।

हज़रते-हुसैन (रज़ि०) ने आज से लगभग 1400 साल पहले कर्बला के मैदान में ज़ुल्म के ख़िलाफ़ जो आवाज़ बुलन्द की थी वो आज भी फ़िज़ाओं में गूँज रही है और मातम करने वालों से मुतालबा कर रही है कि इस तरह मातम करने और जुलूस निकालने से हज़रत हुसैन की रूह को तस्कीन मिलने वाली नहीं है। वो तो उसी वक़्त मुमकिन है जबकि दीन के उस मिज़ाज को समझने की कोशिश की जाए जिसमें बज़ाहिर मामूली तब्दीली को भी हुसैन (रज़ि०) ने गवारा नहीं किया था।

हज़रत हुसैन (रज़ि०) की शुजाअत और जवाँमर्दी आज इन्सानी क़दरों की पासदारी और हक़ की हिमायत व वफ़ादारी के लिए और जज़्बाए-दीनी के साथ बातिल से पंजाआज़माई के लिए ग़ैरत दिला रही है कि इन मातम करने वालों में कोई है जो दौरे-हाज़िर की यज़ीदी ताक़तों के सामने हिम्मत और हौसले के साथ सीना सिपर हो सके?

इसका मतलब ये हरगिज़ नहीं है कि हम हर वक़्त लड़ने और मारने को तैयार रहें। बल्कि सही बात ये है कि जब किसी पर हक़ वाज़ेह हो जाता है तो उस हक़ पर चलने और आगे बढ़ने में सबसे पहली रुकावट उसका ख़ुद का अपना नफ़्स होता है। इसका मतलब ये हुआ कि इन्सान को सबसे पहले अपने नफ़्स ही से जिहाद करना होगा।

इस मौक़े पर हमें अपना जायज़ा लेना होगा कि हम नवासाए-रसूल की तरह अल्लाह और उसके रसूल से कितनी मुहब्बत करते हैं और उनके कितने वफ़ादार हैं। इस मुहब्बत और वफ़ादारी का तक़ाज़ा ये है कि

हम अल्लाह और उसके रसूल के दीन से इस तरह शदीद मुहब्बत रखें कि इसकी रूह को सही मानों में समझने की कोशिश करें।

इस दीन की ख़ातिर हर तरह की क़ुरबानी देने के लिए इस तरह तैयार हो जाएँ कि इसके पैग़ाम को बन्दगाने-ख़ुदा तक पहुँचाने के लिए तन, मन, धन सब कुछ लगा दें।

इस दीन के बारे में इतने फ़िक्रमन्द हों कि इसे ज़ाहिर और ग़ालिब करने की जिद्दोजुहुद के लिए कमरबस्ता हो जाएँ।

इस दीन की ख़ातिर आने वाली हर परेशानी और मुसीबत पर इस तरह सब्र से काम लें कि हमारे इरादों और हौसलों में कोई कमी न आने पाए और इस दीन में घुस आनेवाली हर बिदअत और ख़ुराफ़ात को जड़ से उखाड़ फेंकें।

जब हम ये काम करेंगे तो हमें साफ़ नज़र आने लगेगा कि इस्लाम का लिबादा ओढ़े कितने ही यज़ीद सिफ़त लोग हमारी उम्मत में पेशवाई के मक़ाम पर बैठे हुए हैं जो दीन में बिगाड़ पैदा करके उसे अपने हक़ में इस्तेमाल कर रहे हैं। अगर ग़ौर किया जाए तो आज भी हुसैनी किरदार निबाहने की ज़रूरत है। यानी दीन को उसकी ख़ालिस शक्ल में पेश करके क़ायम व दायम किया जाए ताकि इन्सानियत हक़ीक़ी इस्लाम की बेशबहा रहमतों और नेमतों से फ़ैज़याब हो सके।

यक़ीन जानिये आज इन्सानियत सिसक रही है अल-अतश, अल-अतश (प्यास-प्यास) की आवाज़ लगा रही है। जिस आबे-हयात (अमृत) की उसे ज़रूरत है वो सिर्फ़ और सिर्फ़ इस्लाम है। इस आबे-हयात को सिसकती हुई इन्सानियत तक पहुँचाएँ ताकि क़रीबुल-मर्ग (मौत के क़रीब पहुँची हुई) इस इन्सानियत में जान पड़ जाए, इसका चेहरा दमक उठे यानी समाज के अन्दर शान्ति और सलामती का बोलबाला हो सके। और इस तरह इस्लाम का रहमत व हक़ होना एक बार फिर लोगों के दरमियान साबित हो जाए।

अल्लाह हमारा हामी व नासिर हो

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