क्या सपा के लिए राहुल गांधी साबित हो रहे हैं अखिलेश यादव?

अखिलेश मुलायम की राजनीतिक विरासत को बरकरार रखने में लगातार फेल हो रहे हैं.

Update: 2019-05-25 08:22 GMT

अरुण मिश्रा, उपसंपादक


अखिलेश यादव, जी हां समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री. जिस समय मुलायम ने अखिलेश को कुर्सी पर बिठाया था उस समय अखिलेश के सितारे बुलंद थे. फिर पांच साल तक यूपी की सत्ता पर काबिज रहे. लेकिन अपने कार्यकाल की आखिरी साल में अखिलेश के जीवन में भूचाल आया जहां उन्होंने अपने पिता और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह को किनारे लगाया पार्टी अपने कब्जे में ली और चाचा शिवपाल यादव से प्रमुख मंत्रालय भी वापस ले लिए. उसके बाद उनके राजनीतिक जीवन में राहु काल शुरू हुआ और सितारे गर्दिश में जाते नजर आए. अखिलेश मुलायम की राजनीतिक विरासत को बरकरार रखने में लगातार फेल हो रहे हैं.

 

ऐसे में सवाल खड़ा होने लगा है कि क्या अखिलेश यादव भी पार्टी के लिए राहुल गांधी की तरह साबित हो रहे हैं?

उनके लिए राजनैतिक गुरु बने चाचा रामगोपाल ने पूरा कब्ज़ा जमा लिया था. अब वो हर बात नेता जी (मुलायम) और चाचा शिवपाल से न पूछकर प्रोफ़ेसर रामगोपाल से पूछ रहे थे. इस बात पर शिवपाल और मुलायम खासे नाराज नजर आ रहे थे और यह बात पूरे परिवार में जहर का काम कर रही रही थी. अब परिवार में दो ग्रुप बन चुके थे और यूपी विधानसभा चुनाव में सिर्फ छह महीने बचे थे. एक ग्रुप की कमान अखिलेश के हाथ थी जिसका परदे के पीछे से संचालन प्रोफेसर रामगोपाल कर रहे थे. जबकि दुसरे ग्रुप की कमान शिवपाल यादव के हाथों में थी और परदे के पीछे से उसका संचालन अखिलेश की सौतेली मां कर रही थी. अब परिवार में दो ग्रुप बन चुके थे.

अब पार्टी छीनने की प्रक्रिया बन चुकी थी कि समाजवादी पार्टी आखिर है किसकी? मामला आपस में न सुलझकर चुनाव आयोग के सामें पहुँच चुका था. अखिलेश ग्रुप ने सभी पदों से शिवपाल को बर्खास्त कर दिया था वहीं मुलायम और शिवपाल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रामगोपाल को बेदखल कर दिया था. और बाद में अखिलेश को भी 6 साल के लिए निकाल दिया था..अखिलेश अब अपने ग्रुप के लिए सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन चुके थे.

दोनों पक्ष चुनाव आयोग में अपने-अपने दावे प्रस्तुत कर चुके थे अब विधानसभा चुनाव में भी थोड़ा समय बाकी था और चुनाव आयोग किसी भी दिन आदर्श आचार संहिता लागू कर सकता था. उसी समय अखिलेश को लगा कहीं चुनाव आयोग पार्टी के मामले को लम्बा न खींच दे तो चुनाव किस चिन्ह पर लड़ेंगे यह चिंता का विषय बन चुका था.

उधर, रातों-रात यह बात दिमाग में आई क्यों न कांग्रेस से गठबंधन कर लिया जाए और चुनाव की तैयारी में जुटा जाए. रामगोपाल ने इस पर मुहर लगाई और अगले दिन कांग्रेस से बात कर गठबंधन की घोषणा कर दी. इधर यह बात सुनकर मुलायम को बड़ा सदमा लगा क्यूंकि मुलायम सिंह हमेशा कांग्रेस के प्रवल विरोधी रहे. अब मुलायम सिंह का रुख अखिलेश के प्रति नरम होता दिख रहा था जबकि समय-समय पर शिवपाल के फेवर में स्टेटमेंट देकर असमंजस की स्तिथि पैदा कर देते थे.

उधर चुनाव आयोग में मुलायम ने अपनी अर्जी वापस ले ली और साइकिल का चुनाव-चिन्ह अखिलेश यादव को लड़ने के लिए मिल चुका था. स्तिथि को संभालते हुए मुलायम सिंह ने समझाया और एक बार फिर सबको एक साथ चुनाव लड़ने के लिए तैयार कर लिया. इधर आचार संहिता लागू हो चुकी थी अखिलेश ने भी अपने रूख को नरम करते हुए शिवपाल को उनकी परंपरागत सीट जसवंत नगर से उम्मीदवार घोषित कर दिया लेकिन बार बार की उठापटक से दिलों में बानी दूरियां अब समर्थकों में भी ग्रुप का रूप ले चुकी थी. अब एक ग्रुप अखिलेश समर्थकों का था तो एक ग्रुप शिवपाल समर्थकों का था?

चूंकि संगठन का काम नेता जी के समय शिवपाल किया करते थे इसलिए जो जमीनी स्तर के नेता थे वो ज्यादातर शिवपाल के साथ थे और हवा-हवाई वाले लोग अखिलेश के साथ थे? अब चुनाव हो चुका था. मतगणना के दिन जो चुनाव नतीजे आए उन्होंने अखिलेश-मुलायम और शिवपाल सहित पूरे परिवार को झंकझोर दिया. क्यूंकि 224 सीटों वाली पूर्ण बहुमत वाली सरकार सिर्फ 47 सीटों पर सिमट चुकी थी. यही नहीं सपा के अब तक के राजनीतिक करियर में सबसे कम 47 विधानसभा सीटें मिलीं. जबकि कांग्रेस से गठबंधन कर चुनाव लड़े थे और राहुल गाँधी ने भी जमकर प्रचार किया था.

2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने 23 लोकसभा सीटों पर जीता दर्ज कर देश की तीसरी सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी बनी थी जबकि राज्यसभा में पार्टी के 13 सांसद थे. 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा सिर्फ पांच सीटों पर जीत दर्ज कर पाई जिनमें पांचो सीट मुलायम परिवार के लोग ही जीते थे. बाद में हुए उपचुनाव में पार्टी ने गोरखपुर-फूलपुर सीट पर भी कब्ज़ा कर लिया था.

अब शिवपाल यादव पूरी तरह सपा से अलग हो चुके थे और प्रगतिशील लोहिया पार्टी भी बना चुके थे. अब परिवार में लड़ाई काफी आगे बढ़ चुकी थी. इधर अखिलेश की बसपा सुप्रीमों मायावती से गठबंधन की बात चल रही थी क्यूंकि मायावती की मूक सहमति से गठबंधन प्रत्याशी तीन लोकसभा जीत चुके थे.

इधर शिवपाल राजबब्बर के माध्यम से कांग्रेस से नजदीकियां बढ़ाने लगे थे लेकिन उनकी बात कांग्रेस से नहीं बनीं इधर अखिलेश और मायावती में गठबंधन हो गया. इस गठंबंधन में अजित सिंह भी शामिल हो गए. लेकिन सीटों को लेकर काफी दिन तक चले असमंजस ने फिर परंपरागत वोटरों के दिलों में मायूसी पैदा कर दी. अब सीटों का bantbaara हो चुका था. लोकसभा चुनाव का प्रचार भी चल रहा था. लेकिन इधर शिवपाल ने रामगोपाल के बेटे अक्षय के खिलाफ फिरोजाबाद से अपनी दावेदारी पेश कर दी. क्यूंकि शिवपाल को अखिलेश से ज्यादा रामगोपाल से नाराजगी थी.

अब लोकसभा चुनाव चल रहा था तो नेताजी भी अखिलेश के समर्थन में खुल कर सामने आ गए थे. और मैनपुरी में मायावती और मुलायम ने करीब 26 साल बाद मंच साझा किया. लोगों को लग रहा था था ये नया गठबंधन प्रदेश में भाजपा का सफाया कर देगा लेकिन चुनाव परिणाम ने अखिलेश को झटका देते हुए फिर से पांच सीटों के आंकड़े में समेत दिया जिसमें तीन सीटें, रामपुर से आज़म खान, मुरादाबाद से एसटी हसन और सम्भल से सफीकुर्ररहमान बर्क मैनपुरी से मुलायम सिंह और आजमगढ़ से खुद अखिलेश चुनाव जीत सके. जबकि अखिलेश की परंपरागत सीट से पत्नी डिम्पल और बदायूं से चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव और फिरोजाबाद से अक्षय यादव समेत बाकी उम्मीदवार भी बड़े मार्जन से चुनाव हार गए थे. सपा का 2014 से 4 फीसदी वोट कम हो गया.उधर शिवपाल खेमा अक्षय को हराकर अपने मकसद में कामयाब हो गया था.

वहीं मायावती को इसका सबसे ज्यादा फायदा मिला क्योंकि उनकी पार्टी बसपा यूपी में जीरो से 10 पर पहुंच गईं.  

दिलचस्प बात यह है कि 2014, 2017 और 2019 के चुनाव में सूबे में बीजेपी एक फॉर्मूले को लेकर चुनावी जंग फतह करती रही, लेकिन अखिलेश इसकी काट नहीं तलाश पाए. इसके अलावा उन्होंने जितने भी राजनीतिक प्रयोग किए वह भी फेल रहा, चाहे राहुल गांधी के साथ गठबंधन हो या फिर मायावती के साथ मिलकर चुनावी मैदान में उतरने का फैसला.

लोकसभा चुनाव के नतीजे बाद बाद अखिलेश और राहुल गांधी के सियासी करियर को राजनीतिक नजरिए से देखें तो राहुल गांधी की तरह ही संकट में अखिलेश यादव हैं. अखिलेश की पार्टी सिर्फ यूपी में है और संकट बड़ा है.

अब पार्टी की निगाह अखिलेश के अगले कदम की तरफ है क्या वो अपने नाराज चाचा और पिता को इकठ्ठा करेंगे और उन्हें वो ही सम्मान वापस देंगे. कुल मिलाकर 2019 के चुनाव में अखिलेश और समाजवादी पार्टी की स्थिति ज्यादा खराब हुई है. राहुल ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफे की पेशकश करके हार की नैतिक जिम्मेदारी ली है वहीं, अखिलेश ने समाजवादी पार्टी के सभी प्रवक्ताओं को हटाकर यह जताने का प्रयास किया है पार्टी की बातें सार्वजनिक मंचों पर ठीक से नहीं रखी गईं इसलिए ऐसी हार हुई है. 

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