बीजेपी के लिए उपचुनाव में BJP को लगाना पड़ रहा है ज्यादा जोर

Update: 2019-10-09 09:31 GMT

लखनऊ. उपचुनाव (Bye Election) को अक्सर सत्तारूढ़ दल (Ruling Party) के पक्ष में झुका हुआ माना जाता रहा है. इस पर भी यदि सत्तारूढ़ दल बेहद मजबूत स्थिति में हो तो फिर क्या कहना. वोटों की गिनती (Counting) से पहले ही जनता को नतीजे मालूम होते हैं. उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में 11 विधानसभा सीटों पर इसी महीने होने जा रहे 11 सीटों पर उपचुनाव को इस नजरिये से देखें तो सत्ताधारी बीजेपी (BJP) के खाते में सभी सीटें जाती हुई दिख रही हैं. लेकिन, न्यूज़ 18 हिंदी आपको बतायेगा कि बीजेपी लाख मजबूत हो लेकिन, उपचुनाव में सभी सीटों पर उसकी राह आसान नहीं है. तो क्या हैं पीएम मोदी (PM Modi) और सीएम योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) की बीजेपी के सामने इस उपचुनाव की पांच बड़ी चुनौतियां?

चुनौती नंबर 1- घोसी (मऊ)

सत्तारूढ़ बीजेपी के लिए उपचुनाव की चुनौती पूरब से लेकर पश्चिम तक बनी हुई है. सबसे पहले बात करते हैं मऊ जिले की घोसी सीट की. 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने घोसी सीट काफी कम अंतर से जीता था. तब बीजेपी के फागु चौहान महज सात हजार वोटों से सीट जीत पाये थे. वो भी उस चुनाव में जिसमें बीजेपी की आंधी नहीं बल्कि तूफान चला था. 2017 में घोसी सीट पर बीजेपी को 37 फीसदी जबकि दूसरे नंबर पर रही बीएसपी को 34 फीसदी वोट मिले थे. यानी महज चार फीसदी का अंतर. पार्टी की मजबूत स्थिति के बावजूद जीत का इतना कम अंतर होना इस बार उपचुनाव लड़ रहे विजय राजभर के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है. राजभर विधायकी के चुनाव में पहली बार उतरे हैं. ये भी कम बड़ा चैलेंज नहीं है. जाहिर है सीट बचाने के लिए बीजेपी ने घोसी में एड़ी चोटी का जोर लगा रखा है.

चुनौती नंबर 2- जलालपुर (अंबेडकरनगर)

अंबेडकरनगर में तो बीएसपी और एसपी का किला ध्वस्त करने के लिए बीजेपी छटपटा रही है. वो पिछले 20 वर्षों से 1996 का वो इतिहास दोहराने के लिए जूझ रही है जब उसे इस सीट पर पहली और आखिरी बार जीत मिली थी. इसके पहले और बाद में बीजेपी कभी भी यहां फाइट में नहीं रही. उसे हमेशा तीसरे या चौथे नंबर पर रहकर संतोष करना पड़ा लेकिन, 2017 में ये सीन बदल गया. पार्टी के कैंडिडेट राजेश सिंह उसे दूसरे नंबर तक उठाने में सफल रहे. हालांकि इसके पीछे उनसे ज्यादा उनके पिता शेर बहादुर सिंह की राजनीतिक विरासत काम आयी जो 1996 में बीजेपी से ही एमएलए बने थे लेकिन, बाद में वो निर्दलीय, एसपी और बीएसपी से यहां के विधायक चुने जाते रहे. दलित, मुस्लिम और ब्राह्मण बाहुल्य इस सीट पर 2017 के विधानसभा चुनाव में रनर अप रहने के बाद बीजेपी की लालसा बढ़ गयी है. उसे लग रहा है कि इस बार उपचुनाव में वो इस किले को फतह कर लेगी. इसी उम्मीद के चलते इस बार उसकी चुनौती पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गयी है क्योंकि इस उपचुनाव में भी पार्टी ने मैदान नहीं मारा तो संकट और गहरा जायेगा.

अयोध्या के साकेत पीजी कॉलेज में प्रोफेसर डॉ. अनिल सिंह ने बताया कि बीजेपी की तैयारी तो औरों से कोसों आगे है ही लेकिन, विपक्षी खेमे में बिखराव उसे और ज्यादा ताकत दे रहा है. उन्होंने ये भी रेखांकित किया कि बीएसपी का उपचुनाव में उतरना बीजेपी की राह और भी आसान करने जैसा है. विपक्षियों के बिखराव को एक नजीर से समझाते हुए डॉ. सिंह ने कहा कि जलालपुर की सीट पर ही एसपी, बीएसपी के साथ-साथ सीपीआई और सीपीएम ने भी अपने कैंडिडेट उतार दिये हैं. ऐसे में बीजेपी के विरोधियों ने ही उसके लिए रेड कार्पेट बिछा दिया है. उन्होंने ये भी बताया कि बीजेपी के खिलाफ महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार की वजह से जो सत्ता विरोधी लहर पैदा भी हो रही थी उसे विपक्षियों के बिखराव ने पाट दिया है.

चुनौती नंबर 3- गंगोह (सहारनपुर)

पश्चिमी यूपी में हमेशा से चौंकाने वाले नतीजे सामने आते रहे हैं. सहारनपुर की गंगोह सीट भी बीजेपी कभी हल्के में नहीं ले सकती. यहां मुकाबला लगभग हर चुनाव में चतुष्कोणीय (चौतरफा) रहा है. बीजेपी, एसपी और बीएसपी के साथ-साथ इस जिले में या यूं कहें कि इस सीट पर कांग्रेस भी काफी मजबूती से लड़ती रही है. आंकड़ों पर गौर करिये, वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 39 फीसदी, कांग्रेस को 24 फीसदी जबकि एसपी और बीएसपी को 18-18 फीसदी वोट मिले थे. बीजेपी उम्मीदवार प्रदीप कुमार 14 फीसदी वोटों के अंतर से तब चुनाव जीते थे. इस सीट पर हमेशा से इस बात का डर रहा है कि इतने वोटों का किसी के पक्ष में स्विंग होना कोई बड़ी बात नहीं है, यदि सामने वाला कैंडिडेट सही रणनीति बना ले जाये. ऐसे में गंगोह सीट पर उपचुनाव लड़ रहे बीजेपी के कीरत सिंह के लिए भी मुकाबला इतना आसान नहीं है.

चुनौती नंबर 4- जैदपुर (बाराबंकी)

लखनऊ से सटे बाराबंकी जिले की जैदपुर सीट भी बीजेपी के लिए हलवा नहीं है. उसका मुकाबला बाराबंकी से सांसद रहे पीएल पुनिया के बेटे तनुज पुनिया से है. पुनिया परिवार का बाराबंकी में खासा असर है. हालांकि बीजेपी के हाथों तनुज पुनिया दो बार बाराबंकी से हार चुके हैं लेकिन, अभी भी उन्होंने दम-खम नहीं छोड़ा है. 2017 का विधानसभा चुनाव तनुज 30 हजार वोटों से हार गये थे. दस फीसदी वोटों का अंतर वैसे तो बड़ा होता है लेकिन, इतना नहीं कि इसके सहारे आराम से जीत की उम्मीद की जा सके. हमीरपुर उपचुनाव की नजीर बीजेपी के सामने है जहां उसकी जीत का अंतर उपचुनाव में 2017 के मुकाबले कम हो गया. ऐसे में जैदपुर की सीट बीजेपी के अंबरीश रावत के लिए संघर्ष का विषय है.

चुनौती नंबर 5 - रामपुर 

बीते तीन-चार दशकों से रामपुर और आज़म खान जैसे एक ही शख्स के दो नाम होकर रहे गये हैं. एक का नाम लीजिए तो दूसरे का नाम अपने आप जुबां पर आ जाता है. रामपुर की सीट पर आज़म खान की ऐसी किलेबंदी है कि इसे 1996 को छोड़कर कभी भी भेदा नहीं जा सका. आज़म खान साल 1980 से इस सीट पर अंगद की तरह अपना पैर जमाये बैठे हैं. एक बार सिर्फ 1996 में कांग्रेस के अफरोज़ अली खान ने आज़म खान को पटखनी दी थी. तब से लेकर अब तक आज़म अजेय बने हुए हैं. बीजेपी की हालत तो इस सीट पर पहले से ही पतली रही है. वो हमेशा तीसरे या चौथे नंबर पर रही है लेकिन, 2017 में बड़ी छलांग लगाते हुए उसने दूसरा स्थान कब्जा किया था. यह बताने की जरूरत नहीं कि रामपुर सीट बीजेपी के टॉप एजेंडे में है. ऐसे में बीजेपी के भारत भूषण गुप्ता उपचुनाव में जीत जाते हैं तो ना सिर्फ यूपी बल्कि नेशनल लेवेल पर फेम पायेंगे.

वरिष्ठ पत्रकार रामेश्वर पांडेय ने भी माना कि इन पांच सीटों पर लड़ाई बहुत दिलचस्प होने वाली है. उन्होंने ये जोड़ा कि चुनौती सिर्फ बीजेपी के लिए ही नही बल्कि एसपी और बीएसपी के लिए भी है. रामपुर का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि लंबे समय बाद आज़म खान को रामपुर में वहीं के बाशिंदों से चुनौती मिल रही है. उनके खिलाफ दर्ज हो रहे मामले इसी ओर इशारा करते हैं. ऐसे में बीजेपी के लिए वहां सेंध लगाने की गुंजाइश बनती दिख रही है. अब बीजेपी के लिए रामपुर इसलिए चुनौती का कारण बना हुआ है क्योंकि आज़म के गढ़ को ध्वस्त करने का इससे अच्छा मौका उसे शायद ही दोबारा मिल पाए. 

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