कल सुप्रीम कोर्ट में रिया चक्रवर्ती की याचिका पर सुनवाई, जानिए इस केस के विधिक पहलू
सो मैं इस मामले के विधिक पहलू पर चर्चा करना चाहता हूं।;
हाईकोर्ट के अधिवक्ता चंदन श्रीवास्तव
कल सुप्रीम कोर्ट में रिया चक्रवर्ती की याचिका पर सुनवाई होनी है जिसमें उसने बिहार में उसके खिलाफ दर्ज एफआईआर को ट्रांसफर करने की मांग की है। मुझे लगता है इस मामले में सुप्रीम कोर्ट अकादमिक बहस करवा सकता है। इसलिए मेरी भी इस प्रश्न में रुचि बढ गई है। सो मैं इस मामले के विधिक पहलू पर चर्चा करना चाहता हूं।
यह याचिका सीआरपीसी की धारा 406 के तहत दाखिल की गई है, जिसकी उपधारा (1) महत्वपूर्ण है, जो प्रावधान करती है 'जब कभी उच्चतम न्यायालय को यह प्रतीत कराया जाता है कि न्याय के उद्देश्यों के लिए यह समीचीन है कि इस धारा के आधीन आदेश दिया जाए, तब उच्चतम न्यायालय यह निर्देश दे सकता है कि कोई विशिष्ट मामला या अपील एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय को या एक उच्च न्यायालय के अधीनस्थ दंड न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय के अधीनस्थ समान या वरिष्ठ अधिकारिता वाले दूसरे दंड न्यायालय को अंतरित कर दी जाए।'
जैसा कि उपरोक्त से स्पष्ट है कि यह धारा किसी दंड न्यायालय में चल रही प्रक्रिया को ट्रांसफर करने के लिए है, न कि एफआईआर अथवा विवेचना ट्रांसफर के लिए। इस तकनीकी लिहाज से देखें तो रिया चक्रवर्ती की याचिका पोषणीय (maintainable) ही नहीं थी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने पहले दिन मामले में सुनवाई करते हुए, जवाब वगैरह मांगे। क्योंकि कई बार शीर्ष अदालत न्याय हित में बहुत तकनीकी बिंदु पर न जाते हुए, मेरिट पर सुनवाई कर लेती है।
अब इस याचिका पर दूसरा प्रश्न है कि क्या रिया चक्रवर्ती को यह अधिकार प्राप्त है कि वह अभियुक्त होते हुए, यह चुन सके कि उसके खिलाफ जांच कौन करेगा? The issue is no longer res integra. अर्थात अब यह प्रश्न अनुत्तरित नहीं रह गया है। कई बार सुप्रीम कोर्ट इस बात को स्पष्ट कर चुकी है कि अभियुक्त को विवेचना चुनने का अधिकार नहीं है। आपको याद होगा कि पिछले साल अर्बन नक्सल्स के मामले में गौतम नवलखा की ऐसी ही मांग वाली याचिका भी सुप्रीम कोर्ट ने यही कहते हुए खारिज की थी। ई शिवकुमार बनाम भारत सरकार मामले में तीन जजों की बेंच भी यही ऑब्जर्वेशन कर चुकी है। अर्थात इस लिहाज से भी देखा जाए तो रिया चक्रवर्ती की याचिका पोषणीय नहीं है।
अब तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न, विवेचना के क्षेत्राधिकार वाला। आपको जानकारी होगी कि धारा 154 सीआरपीसी के तहत संज्ञेय अपराध की सूचना मिलने पर एफआईआर दर्ज की जाती है। जबकि धारा 174 सीआरपीसी आत्महत्या इत्यादि अप्राकृतिक मृत्यु की जांच के लिए है। जिसका उद्देश्य बहुत सीमित है। यहां हमारे लिए यह जानना भी आवश्यक है कि जांच और विवेचना में काफी अंतर है। धारा 174 के तहत की जाने वाली जांच मृत्यु के कारण का पता लगाने मात्र के लिए होती है। एक बार मृत्यु का कारण पोस्टमॉर्टम से पता चल गया, वहीं जांच समाप्त हो जाती है। परंतु यदि पुलिस अधिकारी को लगता है कि उक्त मृत्यु मानववध हो सकती है तब वह धारा 154 की प्रक्रिया के तहत ही आगे प्रोसीड कर सकता है। अशोक कुमार तोडी बनाम किश्वर जहां मामले में शीर्ष अदालत का यही ऑब्जर्वेशन है। लेकिन सुशांत मामले में मुम्बई पुलिस के आला अधिकारी व वहां के गृह मंत्री ने इसे आत्महत्या का मामला बताया अर्थात वे इस परिणाम पर पहुंच चुके थे कि उक्त मृत्यु आत्महत्या का मामला है, बावजूद इसके वे जांच करते रहे। यदि उन्हें आत्महत्या के दुष्प्रेरण (306 आईपीसी) की जांच भी करनी थी तो कम से कम एफआईआर दर्ज कर लेनी चाहिए थी।
अब प्रश्न है विवेचना के क्षेत्राधिकार का। सतविंदर कौर बनाम एनसीटी दिल्ली मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के उस ऑब्जर्वेशन को अस्वीकार कर दिया कि जिस थाने के पुलिस अधिकारी ने विवेचना की घटनास्थल उस पुलिस थाने के territorial jurisdiction में नहीं है। इसके अलावा रसिकलाल बनाम गुजरात राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बिना विवेचना के यह कहा जाना कि अमुक मामला पुलिस अधिकारी के पुलिस थाने के territorial jurisdiction के बाहर से सम्बंधित है, मनमाना और अनुचित है।
लेकिन यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि उपरोक्त दोनों ही मामले 2013 के पहले के हैं जब 'जीरो एफआईआर' का कंसेप्ट नहीं था। इसलिए इस मामले में अकादमिक बहस की सम्भावना है।