यूपी में सरकारी तोता बना महागठबंधन की राह में रोड़ा, होगा या नही बना सवाल?
सपा कंपनी इस लिए भयभीत है कि कही मुसलमान सीधे बसपा के पाले में न चला जाए इस लिए वह किसी भी सूरत में बसपा के साथ गठबंधन करना चाहते ही है।
लखनऊ से तौसीफ़ क़ुरैशी
लखनऊ। बसपा की सुप्रीमो मायावती को लेकर तरह-तरह की चर्चाओं को उस समय बल मिला जब छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी से हाथ मिलाकर व मध्य प्रदेश में अकेले विधानसभा का चुनाव लड़ने का ऐलान कर माया ने यह साफ़ कर दिया कि महागठबंधन की उम्मीदें पालने वाले बेकार अपना टाइम ख़राब कर रहे है। विपक्ष को मायावती के जाल में फँसा कर मोदी की भाजपा ने एक बार फिर साबित कर दिया कि केन्द्र की ताक़त के आगे विपक्ष कुछ भी नही होता मोदी की भाजपा की पहली राजनीतिक चाल ने विपक्ष को चारों खाने चित कर दिया है।
मायावती का दोनों राज्यों में विपक्ष की नीति से अलग जाना इसी और इसारा है की यूपी भी महागठबंधन से दूर ही रहेगा जो मोदी की भाजपा के लिये मुफ़ीद है वैसे यही क़यास पहले ही लगाए जा रहे थे कि सरकारी तोता (सीबीआई)जब अपनी भूमिका में आएगी तो विपक्ष की रणनीति के तोते उड़ जाएँगे वही चीज़ें दिखाई देने लगी है। अब महागठबंधन पर सवाल उठने लगे है कि होगा या नही होगा,होगा तो उसका प्रारूप क्या होगा मोदी की भाजपा की इस रणनीति का अगर किसी के पास इलाज है। तो वह मुसलमान है। अगर वह लामबंद होकर बसपा के पाले में सीधे जाकर खड़ा हो जाए तो सरकारी तोते के भी रणनीति फ़ेल हो जाएगी। लेकिन क्या ऐसा मुसलमान करेगा इस पर यक़ीन करना मुश्किल है।
क्योंकि जितनी नफ़रत दलित से हिन्दू करता है उतनी ही नफ़रत शायद मुसलमान भी करता है यही वजह है कि मुसलमान गठबंधन की पैरोकारी कर रहा है। क्या ज़रूरत है। गठबंधन की जब हमें यह मालूम है कि दलितों के साथ मिलकर हम साम्प्रदायिकता को हराकर उसके ठिकाने पर बैठा सकते है। तो क्यों हम गठबंधन की बात करें हो चाहे न हो हम साम्प्रदायिक ताक़तों को हराकर ही दम लेंगे फिर देखना यह सरकारी तोता कैसे फड़फड़ाता है।
क्या अभी भी यूपी में महागठबंधन को लेकर उम्मीदें रखनी चाहिए और बसपा के अनुरूप ही उसके प्रारूप पर ही गठबंधन को तैयार करना चाहिए। सब कुछ मायावती को ही तय करने के लिए अधिकृत कर देना चाहिए कि कौन गठबंधन में होगा और कौन नही? किसको कितनी सीटें मिलेगी। आदि-आदि अगर इस पर बारीकी से ग़ौर किया जाए तो सही भी है। बसपा के अलावा किसी दल के पास मज़बूत और टिकाऊ वोटबैंक नही है सबके पास ऐसा वोटबैंक है जो अपने राजनीतिक उद्देश्य के लिए किसी भी दल के साथ जा सकता है। जैसे सपा कंपनी की बात करे तो उसका मूल वोट यादव जाति है जो 2014 के आम चुनाव में हिन्दू बन गया था और वह भाजपा के पाले में चला गया था। उस चुनाव में उसके पास सिर्फ़ बन्धवा मज़दूर के तौर पर मुसलमान रह गया था इस बात की चर्चा 2014 में मिली करारी हार की समीक्षा बैठक में सपा कंपनी ने मुलायम की मौजूदगी में सपा के वरिष्ठ नेता आज़म खान ने कहा था कि नेता जी अल्लाह का शुक्र है मुसलमान अपनी जगह सही रहा, पर यादव भाग गया।
इस दलील का बैठक में किसी के पास कोई जवाब नही था और मुलायम का सर शर्म से झुक गया था, तो यादव जाति का क्या यक़ीन वह अब भी नही भाग सकता है। अब बात करते है कांग्रेस की वह भी मुसलमानों को ही लेकर आशान्वित है उसका तर्क है लोकसभा में मुसलमान हमें ही पसंद करता है और हमें ही वोट देगा उसके पास भी ऐसा वोट नही दिखाई देता कि वह वोटबैंक उसके साथ खड़ा है यह बात अलग है जो वोट मोदी की भाजपा से नाराज़ होकर बैक करेगा उसके चांस भी कांग्रेस में जाने के ज़्यादा होते है। क्योंकि और किसी दल पर वह यक़ीन नही कर पाता एक सच्चाई यह भी है कि जो आज मोदी की भाजपा का वोट है वह कभी कांग्रेस का वोटबैंक हुआ करता था।
बस यही निष्कर्ष निकल कर आता है कि उत्तर प्रदेश में एक भी लोकसभा सीट न जीतने वाली बसपा सभी पर भारी पड़ रही है।रही बात पश्चिम उत्तर प्रदेश की एक जाति जाट उसकी भी एक पार्टी हुआ करती थी जो एक रणनीति के तहत मुलायम के बेटे अखिलेश यादव ने 2013 में जाटों और मुसलमानों के बीच झगड़े कराकर जाटों को मोदी की भाजपा में सिफ्ट करा दिया था। जिसमें लाखों मुसलमानों का आर्थिक व जानी नुक़सान हुआ था सैकड़ों लोगों की जाने व कितनी ही बहन ओर बेटियों की आबरू लूटी गई थी आज भी जब उन दिनों की याद आती है तो पूरा शरीर काँप उठता है लेकिन यह इनके लिये मात्र गंदी राजनीति का हिस्सा भर था यह यादव कंपनी का गेम प्लान था कि अजित की सियासत खतम हो जाए जिसको खतम करने के लिए मुसलमान का इस्तेमाल किया गया।
जिसपर मुझे एक मिसाल याद आ रही है यादव कंपनी यह चाहती थी कि इसकी बकरी मरनी चाहिए चाहे मेरी दिवार भी गिर जाए तो उसमें सपा कंपनी की सरकार सफल रही। अजित की बकरी मर गई लेकिन साथ सपा कंपनी की दिवार भी गिर गई। परन्तु अजित की सियासत क़िस्तों में सांसे गिन रही है। यह बात अलग है कि अब जब उसका सियासी गुना भाग किया गया तो ग़लती का अहसास हुआ अब उसे वहाँ से लाने के प्रयास किए जा रहे है सपा कंपनी ओर चौ अजित सिंह के द्वारा कि जाटों को किसी तरह भाजपा से वापिस चौधरी के पाले में लाकर खड़ा कर दिया जाए,कैराना के उप चुनाव में यह प्रयास किये गए कहने को तो यह कहा जा सकता है कि जाटों में घर वापसी की उम्मीदें बढ़ गई है।
लेकिन सब दलों के साथ होने के बाद भी मोदी की भाजपा प्रत्याशी को भरपूर्व वोट मिला था जिससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जाटों ने उस संख्या में घर वापसी नही की जिसकी सियासी दलों ने उम्मीद लगा रखी थी पर हा यह कहा जा सकता है कि उनकी घर वापसी हो सकती है। इन सबसे निपटने के बाद मुलायम सिंह यादव के बुरे वक्तों के साथी रहे भाई शिवपाल सिंह यादव भी अपनी बेइज़्ज़ती से तंग आकर अलग कंपनी बनाकर खड़े हो गए है उसका क्या असर होगा या नही होगा यह कहना अभी जल्द बाज़ी होगा। कुल मिलाकर बसपा सबकी मजबूरी बन गई लगती है। सपा कंपनी इस लिए भयभीत है कि कही मुसलमान सीधे बसपा के पाले में न चला जाए इस लिए वह किसी भी सूरत में बसपा के साथ गठबंधन करना चाहते ही है।
लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार और राजनैतिक समीक्षक है.