समीक्षा सत्ता संग्राम 2019 , पूर्वांचल से उखड़ने लगे बीजेपी के पैर, क्षत्रपों के सहारे नाव , कार्यकर्ताओं में गुस्सा

Update: 2019-04-05 08:57 GMT

पूर्वांचल की राजनीति में अब भाजपा को अपनों से अधिक क्षत्रपों पर विश्वास बढ़ा है. लोकसभा चुनाव 2019 की घोषणा के साथ ही जिस प्रकार से जातीय समीकरण को साधने की कोशिश की जा रही है, उसे देखकर ऐसा कहा जा सकता है.

2014 के लोकसभा चुनाव में जब "मोदी लहर" चल रही थी तब पूर्वांचल की 29 सीटों में से तीन आजमगढ़, रायबरेली और अमेठी को छोड़कर सभी पर भाजपा प्रत्याशी जीते थे. आजमगढ़ में सपा के मुलायम सिंह यादव, रायबरेली में कांग्रेस की सोनिया गांधी और अमेठी में राहुल गांधी ने "मोदी लहर" को रोका था.

पांच वर्ष बाद अब बीजेपी के समक्ष अपनी प्रतिष्ठा को बचाने की चुनौती है. और इसके लिए वो जातीय आधार पर गठित राजनीतिक दलों को अपने खेमे में शामिल करने की रणनीति पर काम कर रही है. क्षेत्रीय दल तो 2014 में भी उसके साथ थे लेकिन यह दायरा पहले की अपेक्षा बढ़ गया है. गोरखपुर और फूलपुर में 2017 के यूपी के विधानसभा चुनाव के बाद हुए लोकसभा के उपचुनाव में इन दोनों सीटों को गंवाने के बाद यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अब अपनी जमीनी हक़ीकत का एहसास हो गया है.

उल्लेखनीय है कि गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ और फूलपुर से उनके डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य सांसद थे. उनके इस्तीफा देने से दोनों सीटें खाली हुईं थीं. और इन दोनों सीटों को सपा ने बसपा से तालमेल करके उनसे छीन लिया. और यही पूर्वांचल में भाजपा की चिंता का कारण भी है. अब सपा-बसपा का गठबंधन भाजपा के महारथियों को डरवा रहा है. क्योंकि इसका स्वाद वो गोरखपुर व फूलपुर के लोकसभा उपचुनाव में विगत वर्ष चख चुके हैं.

पूर्वांचल में सपा-बसपा गठबंधन की हवा निकालने के लिए भाजपा ने उनके साथियों पर ही डोरा डालना शुरू कर दिया है. गोरखपुर में जिस निषाद पार्टी के प्रवीण निषाद को टिकट देकर सपा ने लोकसभा उपचुनाव में योगी आदित्यनाथ को पटकनिया दी थी, अब वो एनडीए में शामिल हो गए हैं. यानी यह कहा जा सकता है कि जिस पहलवान से योगी बाबा अपने ही अखाड़े में पटकनी खा चुके हैं, उसके सामने आत्मसमर्पण कर दिए हैं.

उधर, जौनपुर के मछलीशहर में भाजपा ने अपने ही सांसद रामचरित्र निषाद का टिकट काटकर बसपा से अभी दस दिन पहले आए बीपी सरोज को टिकट थमा दिया है. सरोज 2014 में इसी सीट पर बसपा से चुनाव लड़े थे और दूसरे नम्बर पर रहे. निषाद का टिकट कटने के पीछे कारण जातीय समीकरण माना जा रहा है.

अपना दल की अनुप्रिया पटेल और योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भासपा से भाजपा का पहले से ही गठबंधन है. लेकिन सीटों के बंटवारे को लेकर हुई आपसी नोकझोंक की कहानियां भी सतह पर आ चुकी हैं. ओमप्रकाश राजभर तो मंत्री रहते हुए भी भाजपा सरकार की कार्यप्रणाली की तीखी आलोचना करने के लिए हमेशा अखबार की सुर्खियों में बने रहते हैं.

उधर, बलिया के सांसद भरत सिंह का टिकट काटकर भाजपा ने भदोही के अपने सांसद बीरेन्द्र सिंह 'मस्त' को टिकट दे दिया है, जिसके विरोध में सांसद भरत सिंह के समर्थकों ने बीजेपी कार्यालय पर प्रदर्शन व धरना दिया था. भरत सिंह ने भी जनता के नाम चिट्ठी लिखकर भाजपा प्रत्याशी बीरेन्द्र सिंह पर कई गंभीर आरोप लगाए हैं. चुनाव में इस अन्तरविरोध का खामियाजा भाजपा को उठाना पड़ सकता है.

पूर्वांचल में भाजपा अब निषाद, कुर्मी, पटेल, राजभर आदि जातियों के क्षत्रपों को अपने खेमे में मिलाकर सपा-बसपा गठबंधन की काट तलाश रही है. और यही कारण है कि अपने कार्यकर्ताओं से अधिक उसे इन क्षत्रपों पर विश्वास बढ़ा है.

पूर्वांचल की राजनीति में जबसे जाति और धर्म आधारित राजनीति का वर्चस्व बढ़ा है, तब से कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों का जनाधार सिकुड़ता चला गया है. ये दोनों पार्टियां अपना जनाधार बचाने के लिए छटपटा रही हैं. क्योंकि धर्म और जाति की राजनीति ने उनके समक्ष गम्भीर चुनौती खड़ा कर दी है.

#भाजपा ने धार्मिक राजनीति के बल पर पूर्वांचल में अपने जनाधार का विस्तार किया था. लालकृष्ण आडवाणी की "राम रथयात्रा" की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका रही है. जिसकी फसल नरेन्द्र मोदी ने काटी. लेकिन अब पूर्वांचल की पिछड़ी और दलित जातियों में बढ़ती राजनीतिक चेतना ने भाजपा की धार्मिक राजनीति को चुनौती दी है. और यही कारण है कि भाजपा के महारथियों की रणनीति की बागडोर अब जातीय क्षत्रपों के हाथ में चली गई है. अब वो भी #राजसत्ता में अपनी भागीदारी चाहते हैं.

सवर्ण जातियां यानी ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहार जो कभी पूर्वांचल की राजनीति में प्रमुख भूमिका निभाते थे, अब अपनी प्रतिष्ठा बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. मुख्यधारा के राजनीति की लगाम अब उनके हाथ से निकल चुकी है. वो भाजपा से जुड़कर #धर्म के सहारे अपनी लाज बचाने के लिए राजनीतिक जद्दोजहद में फंसे हैं. लेकिन बनारस के विश्वनाथ मंदिर काॅरिडोर क्षेत्र में घर / मंदिर को ध्वस्त कर #मुक्तिधाम बनाने में उनकी अपनी कोई सोच नहीं है. "मंदिर बनाना और मंदिर तोड़ना" दोनों में फर्क है. उनकी कोशिश है कि लोकसभा चुनाव के दौरान यह मुद्दा विमर्श के केंद्र में न आए.

गंगा में बढ़ते प्रदूषण और तेजी से घट रहे जलस्तर के मुद्दे को भी #चुनावी_विमर्श से बाहर करने की कोशिश की जा रही है. मुख्यधारा की मीडिया भी इस खेल में शामिल है. क्षत्रपों की अपनी निजी महत्वाकांक्षा के कारण जनता से जुड़े खेती-किसानी, बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के मुद्दे पूर्वांचल की राजनीति में चुनावी विमर्श व बहस के केंद्र में नहीं आ रहे हैं. और भाजपा की यही रणनीति भी है. वह 2019 का लोकसभा चुनाव जातीय समीकरण व क्षत्रपों के सहारे फतह करने की कोशिश कर रही है. अब यह देखना मजेदार होगा कि सपा-बसपा गठबंधन व कांग्रेस कहां तक भाजपा की इस रणनीति को रोकने में सफल हो पाते हैं.

सुरेश प्रताप सिंह की कलम से 

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