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गुप्तेश्वर पांडे भले ही डीजीपी का पद छोड़कर चुनावी मैदान में अपना भाग्य आजमाने चले हैं, लेकिन बिहार में रिटायर्ड डीजीपी का सत्ता सुख का भाग्य जरा कमजोर ही रहा है। बिहार के चुनावी रण में ज्यादातर डीजीपी हारे हैं और दारोगा जीते हैं। आंकड़े यही बताते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में बिहार में डीजीपी रहे आशीष रंजन सिन्हा ने नालंदा सीट से कांग्रेस टिकट पर किस्मत आजमाई। हार गए।
2003 तक बिहार में डीजीपी रहे डीपी ओझा 2004 में बेगूसराय से चुनावी मैदान में उतरे। डीजीपी रहते सीवान के शहाबुद्दीन को पस्त करने वाले चुनाव मैदान में पस्त हो गए। जमानत तक जब्त हो गई। आईजी रहे बलवीर चंद ने भी 2004 में गया से भाजपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव में ताल ठोकी और पराजित हो गए।
2019 में पटना साहिब से निर्दल चुनाव लड़े पूर्व डीजीपी अशोक कुमार गुप्ता को तो नोटा से भी कम वोट मिले। अब तक बिहार के एक मात्र आईपीएस ललित विजय सिंह चुनाव जीत सके हैं। 1989 में ललित ने जनता दल के टिकट पर बेगूसराय से जीत हासिल की थी।
उधर बगल के झारखंड में डीजीपी रहे वीडी राम सांसद हैं। राम गंगाजल वाले हैं यानी भागलपुर आंख फोड़वा कांड वाले सब हार गये।
उधर दरोगा ने दी आईपीएस को मात
अब दरोगा की बात। बिहार में ऐसे बीस दरोगा हैं, जिन्होंने समय-समय पर किस्मत आजमाई। बीस साबित हुए। मैदान मारा। बाजी जीती। खाकी से खादी पहनी। 2010 में औरंगाबाद के ओबरा थाने में तैनात सोमप्रकाश सिंह नौकरी छोड़ निर्दलीय ही चुनावी मैदान में उतरे और जीत गए। 2015 में राजगीर सीट से जदयू ने रवि ज्योति को अपना उम्मीदवार बनाया।टिकट मिलने के ठीक दो दिन पहले रवि ज्योति ने वीआरएस ली। वह चुनाव जीत गए। रवि मौजूदा विधायक हैं और फिर एक बार चुनावी मैदान में उतरने जा रहे हैं।