पटना

लघु कथा: एक छोटी सी मुस्कान

लघु कथा: एक छोटी सी मुस्कान
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शुक्रवार की शाम करीब 6 बजे मै घर जाने के लिये ट्रेन पकड़ने पटना जंक्शन के प्लेट फार्म नं0 एक पर पहुंचा तो एक काला कोट धारी दुबला पतला चश्मा पहने बंगाली युवक से पूछा कि अभी तक वाराणसी सियालदह एक्सप्रेस क्यो खड़ी है. शायद उसने मेरी बात नही समझी. उसने कहा कि मै यहा इस लिये खड़ा हूं कि किसी भी बिना टिकट वाले को अंदर प्रवेश नही करने दूं. यही लोग बेवजह प्लेटफार्म पर भीड़ भी लगाते है और लोगों का सामान भी चुराते है मै अपना काम पूरी इमानदारी से करता हूं और एक पैसा नाजायज नही लेता. फिर उसने मुस्कुराते हुए कहा अंकल मेरी ट्यूटी कैसी लगी आपको .


मै कुछ कहता कि ट्रेन खुल गयी और एक लड़का दौड़कर बाहर से ट्रेन पकड़ने के लिये जा ही रहा था कि बाज की भाति उस टी सी ने उस लड़के पर झपट्टा मारा. फिर क्या लड़का हक्का बक्का , वह कुछ बोले उसके पहले ही उसे बुक स्टाल के बगल में ले जाकर उस टी सी ने धोस दिखाया और फाइन के नाम पर कुछ डिमांड किया. हालांकि बेटिकट वह लड़का हट्ठा कट्ठा था लेकिन बंगाली मौसाय के धौस के सामने सब कुछ फीका.उसकी ट्रेन तो छूटी ही कुछ पैसे देकर अपना पिंड छुडाया. अपनी सफलता से हुई जेब गरम से उस टी सी के चेहरे पर एक मुस्कान आयी और उसका विजयी मुद्रा भाव साफ झलक रहा था . लेकिन उसे क्या पता कि उसके ईमानदारी की पोल तुरत खुल गयी है. अभी यह मामला खत्म ही हुआ था और मै टी सी से उसकी ईमानदारी पर कुछ बात करता कि लोकमान्य तिलक से जयनगर जाने वाली ट्रेन प्लेट फार्म पर धड़धड़ाते हुए पहुंच गयी. मै आगे बढ़ा औरें ट्रेन मे सवार हुआ ही था कि पार्सल आफिस के सामने .से आवाज सुनाई पड़ी ले लो बाबू 10 रूपये में नमकीन चटनी के साथ. खिड़की से देखा तो करीब 30 - 35 साल की विवाहित महिला पूरी तरह से साफ सुथड़ी आधे हाथ में चूंडिया मधुर आवाज . एक टोकरी में मैदा की नमकीन और चटनी लेकर बैठी है. शाम का वक्त ठिठुराती ठंढ हवा को चीरती उसकी कर्णप्रिय आवाज देखकर चौका तो देखता हूं कि वह जोर - जोर से आवाज लगा रही है लेकिन कोई ग्राहक ध्यान नही दे रहा. आवाज लगाते - लगाते शायद वह थक सी गयी है और ग्राहक के नही आने से उसके चेहरे पर उदासी छायी हुई है.


लेकिन यह क्या एकाएक ट्रेन में बैठे मजदूर यात्रियो की टोली उसके पास टूट पड़ती है और देखते ही देखते 10 - 10 रूपये देकर उसकी टोकरी का अधिकाश हिस्सा ये मजदूर ले लेते है. यानि सब कुछ 10 मिनट में खत्म. इतने में गाड़ी की सिगन्ल होती हैऔर अपनी आवाज लगाकर ट्रेन चल पड़ती है. गाड़ी के खुलते ही एक चायवाला उस महिला के सामने उतरता है और अपनी भाषा में कुछ कहता है और वह महिला खिलखिलाकर हंस पड़ती है. साथ ही अपने सामने से गुजरती हुई ट्रेन को एक टक देख रही है और उसे धन्यवाद दे रही है कि वह बार - बार आये और उसके चेहरे पर मुस्कान लाये.


लेकिन ट्रेन की रफ्तार तेज होने के बाद मै यह सोच रहा हूं कि क्या यही हमारा गणतंत्र है. हमारे देश के गणतंत्र के करीब 70 साल पूरे होने है. लेकिन अभी भी सत्ता में बैठे हुक्मरान चाहे छोटी कुर्सी पर हो या बड़ी कुर्सी पर वह जनता की जेब से जबरन पैसे निकालकर अपने चेहरे पर मुस्कान लाते है भले ही जनता कितनी भी उदास क्यो ना हो. लेकिन हकीकत है अब भी करीब एक अरब जनता और आधी आवादी की एक गरीब महिला के चेहरे पर खुशी ट्रेन में सफर करने वाला एक मजदूर और चाय वाला ही ला सकता है जो खुद अभाव में जी रहा हो वह चाय बेचने वाला नही जो आज देश की सर्वोच्च कुर्सी पर बैठा हो.

अशोक कुमार मिश्र

अशोक कुमार मिश्र

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