पटना

चुनाव सिर पर था, यहीं एक चूक हो गई!

Shiv Kumar Mishra
16 Jun 2021 12:05 PM GMT
चुनाव सिर पर था, यहीं एक चूक हो गई!
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नीतीश कुमार के हाथों की कठपुतली बनकर रह जाएँगे

विमलेंदु सिंह

नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान समकालीन ही हैं और इन्हें एक ही मुख्य धारा की तीन उप धाराएं मान लीजिए। राजनीतिक सफर की शुरुआत साथ ही हुई। जनता पार्टी-जनता दल में तो सभी साथ रहे। लेकिन बाद में राहें जुदा होती चली गईं। लालू जी के राजद और नीतीश जी की समता पार्टी और जदयू की तुलना में रामविलास पासवान जी की लोजपा को वह कामयाबी नहीं मिल पाई जो अन्य दोनों दलों को। कद तीसरे पायदान के लायक ही रहा। शायद जातीय जनाधार एक बड़ी वजह रही हो।

यादव और मुसलमान राजद के साथ जुड़े तो कोयरी कुर्मी नीतीश जी के साथ। इन जातियों की तुलना में पासवान जाति संख्या बल में उन्नीस पड़ जाते हैं। पासवान जी को निश्चित तौर पर यह खटकता होगा।

स्व. रामविलास पासवान ने बिहार विधानसभा चुनाव से पहले अपनी राह जुदा करने का मन बना लिया था। इस बाबत वह पुराने समाजवादी साथियों को फोन कर मन टटोल और हवा का रुख भाँप रहे थे। सियासत में कोई बात लंबे समय तक गोपनीय नहीं रह पाती और इस बात से नीतीश कुमार वाकिफ नहीं होंगे, यह मानने वाली बात नहीं है। लेकिन इसके बाद बड़े पासवान जी की तबियत ज्यादा खराब रहने लगी।

चुनाव सिर पर था। यहीं एक चूक हो गई। नीतीश कुमार के खिलाफ चुनाव लड़ने का जो मन बना लिया उस पर अडिग रहे। मुझे लगता है कहीं न कहीं चिराग स्वयं की शक्ति का सही आकलन नहीं कर पाए और भाजपा के भ्रमजाल में उलझकर रह गए। सामने वाले को चोट तो दे दिया लेकिन खुद ज्यादा जख्मी हो गए। नीतीश कुमार से नाहक ही दुश्मनी मोल ले ली।

पारस जदयू के खिलाफ मैदान में उतरने के पक्ष में नहीं थे। और जब उतर ही गए तो टिकट बंटवारे में इनकी चली नहीं। चुनाव में चाचा ने मुमकिन है कई लोगों को टिकट का आश्वासन दे रखा हो। बदले में कुछ पेटियों की भी बात पक्की हो गई हो। अब टिकट नहीं तो आर्थिक नुकसान भी तगड़ा वाला मिला होगा। पार्टी में हैसियत दोयम होने अहसास भी। खुन्नस तो बढेगी ही। बिहार या केंद्र सरकार में मंत्री पद के लिए भी मन मुंगेरी हो ही रहा होगा। पारस की अपने भाई से बगावत करने की हैसियत तो कभी रही नहीं। तो मौत का इन्तज़ार किया।

गलती चिराग से भी हुई। दरअसल यह गलती हर वह नेता पुत्र करता है जो विरासत में राजनीति संभालते हैं और पार्टी की स्टियरिंग भी। दरअसल ये जमीनी नेताओं और कार्यकर्ताओं को तरजीह नहीं देते और उनसे दूरी बनाकर रखते हैं। खुद को बाप का भी बाप समझने के भ्रम में जीते रहते हैं। यह सोच काफी भारी पड़ जाता है। चिराग ने यह गलती तो की है। तड़क भड़क और ग्लैमरस छवि से खुद को बाहर नहीं निकाल पाए। लुटिया तो डूबनी ही थी।

पारस पार्टी नहीं चला पाएँगे। पारस में पार्टी संभालने की न तो योग्यता है और न ही उन्हें पासवान समाज का साथ मिलने वाला। बहुत ज्यादा हुआ तो पारस बिहार में मंत्री बन जाएंगे या किसी को बनवा लेंगे। लेकिन बस नीतीश कुमार के हाथों की कठपुतली बनकर रह जाएँगे। पारस की जन स्वीकार्यता नगण्य है। अपने बूते चुनाव जीतने वाली हैसियत नहीं। सबसे बड़ी बात और दुःखद यह है कि वह भतीजा प्रिंस को भी ले डूबे। क्योंकि उसने राजनीति में अभी-अभी कदम ही रखा है। लंबे सफर के लिए भरोसे का साथी चाहिए। क्षेत्र से जुड़ाव भी। सँभले तो राजनीतिक पारी लंबी होगी वरना रन आउट।

लोकसभा चुनाव में भी एक बड़ी चूक हुई। हाजीपुर से पारस की जगह रीना पासवान अगर चुनाव लड़ी होतीं तो आज हालात कुछ और होते। चिराग अगर समझदारी दिखाएंगे तो सँभल जाएंगे। वह अपना भविष्य अब भाजपा के साथ नहीं बल्कि राजद के साथ जोड़कर देखें, फायदे में रहेंगे। यकीन मानिए।

#बस_यूँ_ही

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