पटना

बिहार के दो दिग्गज अलग अलग अस्पताल में, लेकिन बने हुए दोस्ती की मिशाल

Shiv Kumar Mishra
12 Sep 2020 8:01 AM GMT
बिहार के दो दिग्गज अलग अलग अस्पताल में, लेकिन बने हुए दोस्ती की मिशाल
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इस देश में अगर राजनीतिक दोस्ती की मिसाल दी जाएगी तो लालू प्रसाद यादव और रघुवंश बाबू का नाम लिया ही जाएगा। ऐसा नहीं है कि रघुवंश बाबू ने एकतरफा लालू जी के लिए किया लालू जी भी रघुवंश बाबू के लिए हाल हाज़िर रहते थे।

श्याम रजक, तस्लीमुद्दीन, रामकृपाल यादव, अखिलेश सिंह, पप्पू यादव, गुलाम गौस यहाँ तक कि लालू जी के साले सुभाष और साधु यादव इन जैसे सैंकड़ों नेताओं को लालू प्रसाद यादव ने राजनीति में खड़ा किया इनमें से सब के सब बुरे वक्त में लालू जी को छोड़ कर चले गए। सिवाए जगदानंद सिंह और रघुवंश प्रसाद सिंह और अब्दुलबारी सिद्दीकी के। खासकर जगदानंद सिंह और रघुवंश प्रसाद सिंह।

हालांकि अब यह दोनों दोस्त बिलकुल अलग थलग हुए पड़े है, एक रिम्स के अस्पताल में है तो दूसरा एम्स दिल्ली में है। आज अभी उनकी तबियत और बिगड़ने की बात सामने आई है। फिलहाल लालू ने उनके स्वास्थ्य के लिए कामना की है।

लालू परिवार पर कोई भी विपत्ति आई हो ये दोनों नेता पूरी मजबूती से लालू जी के साथ खड़े रहे। इन दोनों नेताओं के बारे में लालू जी कहा भी करते थे ये दोनों बरगद और पीपल के पेड़ हैं किसी भी आंधी में नहीं झुकेंगे।

एक समय ऐसा भी आया जब लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल के चार सांसद जीते थे। लालू यादव के अलावा वो तीन रघुवंश प्रसाद सिंह, जगदानंद सिंह और उमाशंकर सिंह (उमाशंकर सिंह के आकस्मिक निधन के बाद उपचुनाव में प्रभुनाथ सिंह जीते।) थे। उस समय ये चाहते तो पार्टी में दो फार कर सकते थे लेकिन इनलोगों ने मतलबपरस्ती के बजाए लालू यादव के नेतृत्व के प्रति अपनी निष्ठा और वफादारी बनाए रखा।

यूपीए-1 के दौरान जब रघुवंश बाबू केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री थे उस समय मनमोहन सिंह सरकार की महत्वाकांक्षी योजना महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) की फाइल श्रम मंत्रालय में धूल फांक रही थी तब मनरेगा को ग्रामीण विकास मंत्रालय में शिफ्ट किया गया। ग्रामीण विकास मंत्रालय में आते ही सुस्ताई हुई मनरेगा जोड़ पकड़ कर फर्राटा मारने लगी। रघुवंश बाबू ने न केवल मनरेगा को कानूनी अमलीजामा पहनाया बल्कि अपने भगीरथ प्रयासों से पूरे देश में इम्प्लीमेंट कराया।

अकादमिक और बुद्धिक जगत में मनरेगा का श्रेय देने की जब बात आती है तब मनमोहन सिंह समेत अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन, प्रोफेसर ज्यां द्रेज और यूपीए की सुपर कैबिनेट "राष्ट्रीय सलाहकार परिषद" की खूब चर्चा होती है। लेकिन रघुवंश बाबू के योगदान को हमारे बुद्धिजीवियों द्वारा हमेशा दरकिनार किया गया। जबकि रघुवंश बाबू और उनके दूरदर्शी ओएसडी ए ए ए फैजी (जो कि पॉपुलरली ट्रिपल ए के फ़ैज़ी के नाम से लोकप्रिय हैं।) के बिना मनरेगा की कल्पना बेईमानी होगी।

जेएनयू के शोधार्थी और छात्र राजद से जुड़े जयंत जिज्ञासु एक दफ़ा रघुवंश बाबू से मिलने गए। उनके साथ एक और सज्जन थे जिन्होंने मनरेगा के उपर अपना पीएचडी किया था और हाल ही में अपना थीसिस सबमिट किया था। बातचीत के क्रम में जब रघुवंश बाबू को मालूम हुआ कि इन्होंने मनरेगा के उपर पीएचडी किया है तो उन्होंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए उनसे कहा कि बताइए आप मनरेगा पर पीएचडी कर लिए और हमसे कभी मिले नहीं।

इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे लिबरल और प्रोग्रेसिव तबके ने किस तरह रघुवंश बाबू के योगदानों की अनदेखी किया है। कल को मैं ही पानी पर पीएचडी करूँ और आदरणीय मरहूम अनुपम मिश्र जी को कोट न करूँ फिर उस थिसिस का क्या महत्व होगा? कितनी विडम्बनापूर्ण बात है कि रवीश कुमार और पुण्य प्रसून वाजपेयी जैसे पत्रकारों से एकबार भी रघुवंश बाबू के देश के लिए किए गए योगदानों का जिक्र नहीं सुना हूँ। इस मामले में मुझे समाजिक न्याय की बात करने वाले और सबाल्टर्न का मुद्दा जोर शोर से उठाने वाले उर्मिलेश जी ने भी निराश किया है।

2005-6 में जब पूरे ग्रामीण भारत की सड़क गड्ढों में तब्दील थी तब रघुवंश बाबू ने प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत गाँव-गाँव में पक्की सड़क का जाल बिछा दिया। नॉर्थईस्ट हो या सुदूर दक्षिण या फिर पूरब और पश्चिम किसी भी राज्य के साथ किसी भी तरह का भेदभाव किए बिना रघुवंश बाबू सबको बराबर फंड एलोकेट करते थे।

संजय बारू ने अपनी किताब "एक्ससिडेंटल प्राइम मिनिस्टर" के चार पन्ने रघुवंश बाबू के नाम किया है। बारू लिखते हैं "यूपीए-2 के दौरान राष्ट्रीय जनता दल संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का घटक दल नहीं था इसके बावजूद खुद मनमोहन सिंह और संप्रग अध्यक्ष मैडम सोनिया गांधी रघुवंश बाबू से व्यक्तिगत रूप से सरकार में शामिल होकर कैबिनेट मंत्री का पदभार संभालने का आग्रह करते हैं लेकिन रघुवंश बाबू ने लालू प्रसाद यादव और राजद के प्रति अपनी निष्ठा जताते हुए मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के आग्रह को विनम्रतापूर्वक ठुकरा दिया।"

बतौर लोकसभा सदस्य रघुवंश बाबू 15वीं लोकसभा में जनहित के मुद्दे जोरशोर से उठाते रहते हैं। राजनीति में नए आने वाले नौजवानों को लोकसभा की आर्काईव से ढूंढकर रघुवंश बाबू का लोकसभा का भाषण सुनना चाहिए।

कहते हैं कि "हर प्रीत जगत की ऐसी है, हरेक सुबह की शाम हुई।" 2011 के बाद जबकि राजनीति का रुख बदल रहा था। अन्ना हजारे के कंधे को आगे कर देश की विघटनकारी ताकत भाजपा द्वारा कांग्रेस सरकार को खोखला करने का षड्यंत्र किया जा रहा था और नरेंद्र मोदी अपने भाषणों से आम भारतीय के आँखों में धूल झोंकते हुए लोगों को सब्जबाग दिखा रहे थे। इसके बाद रघुवंश बाबू के संसदीय सफलता के पैमाने पर अवसान के दिन शुरू हो गए।

2014 आते-आते कांग्रेस पार्टी तहस-नहस हो गई थी। किसी ने सच ही कहा है कि बवंडर जब आता है तो लफंडर भी बादशाह बन जाता है। जरूरी नहीं कि बहुमत का निर्णय सही ही हो। यही कारण है कि 16वीं और 17वीं लोकसभा में रघुवंश बाबू अपने से दोयम दर्जे के कैंडिडेट रमा सिंह और वीणा सिंह जो कि योग्यता में रघुवंश बाबू के पैर के धूल के समान भी नहीं हैं से चुनाव हार जाते हैं। लेकिन रघुवंश बाबू चुनाव जीते या हारे वे जनता के मुद्दे पर हमेशा सड़कों पर संघर्ष करते मिलते हैं।

स्वभाव के बेहद भावुक रघुवंश बाबू के बारे में उत्तर प्रदेश के पत्रकार और किसान नेता राजीव चंदेल ने एकबार बताया था कि "रघुवंश बाबू से मेरी मुलाकात इलाहाबाद में सामाजिक न्याय के मसीहा और पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के अंत्योष्टि के दौरान हुई हुई थी। राजा मांडा के पार्थिव शरीर से कुछ दूरी पर रघुवंश बाबू छोटे बच्चे की तरह फुट फुटकर रो रहे थे। वे कह रहे थे हम तो अनाथ हो गए मेरे गार्जियन ही चले गए"

कैबिनेट मंत्री रहे व्यक्ति की ईमानदारी ऐसी कि संपत्ति के नाम पर वैशाली के गाँव में पैतृक आवास पर साधारण सा घर, पुस्तैनी कुछ बीघा जमीन और पटना में डुप्लेक्स नुमा छोटा सा मकान। कपड़े के नामपर कुछ जोड़ी धोती-कुर्ता और बंडी। बच्चे के द्वारा यात्रा करने के लिए दी गई ओल्ड मॉडल की गुजरात नम्बर वाली स्कार्पियो। बेटे बेटियों का राजनीति से दूर-दूर का नाता नहीं है। सारे बच्चे प्राइवेट सेक्टर में हाड़तोड़ मेहनत की नौकरी कर जीवनयापन कर रहे हैं।

इस देश में अगर राजनीतिक दोस्ती की मिसाल दी जाएगी तो लालू प्रसाद यादव और रघुवंश बाबू का नाम लिया ही जाएगा। ऐसा नहीं है कि रघुवंश बाबू ने एकतरफा लालू जी के लिए किया लालू जी भी रघुवंश बाबू के लिए हाल हाज़िर रहते थे।

रघुवंश बाबू राष्ट्रीय जनता दल के वर्तमान नेतृत्व से इधर के दिनों में नाराज चल रहे थे। कुछ दिन पहले उन्होंने राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। हाल में वे कोविड जैसी महामारी से उबरे थे और अभी दिल्ली एम्स में निमोनिया का इलाज करा रहे हैं। आज एम्स से ही उन्होंने राजद छोड़ने का हस्तलिखित इस्तीफा पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव को भेज दिया।

बेहद नपे-तुले शब्दों में लिखे गए इस्तीफा पत्र से रघुवंश बाबू के सामाजिक न्याय और जेपी-लोहिया-कर्पूरी के विचारों के प्रति प्रतिबद्धता और व्यक्तिगत पीड़ा को समझा जा सकता है। उम्र के इस पड़ाव में रघुवंश बाबू किसी भी दूसरे राजनीतिक दल में जाए बिना बतौर नागरिक सामाजिक जीवन का हिस्से बने रहे। ताकि इतिहास में उनका मूल्यांकन उसी आदर और सम्मान के साथ होता रहे जैसा अब तब होते रहा है।

रघुवंश बाबू निमोनिया को जल्द मात देकर पूर्णतः स्वस्थ होकर लौटे और शतायु होवें। मैं तो यह कहूँगा आज देश जिस संकट के मोड़ पर खड़ा है 74 साल के यह नौजवान जेपी की भूमिका निभाते हुए सम्पूर्ण क्रांति-2 का आगाज़ करे। क्योंकि रघुवंश बाबू जैसा खोजने पर भी दूर-दूर तक दूसरा कोई इतना ईमानदार व्यक्ति नजर आता है।

Rajeev Singh Jadaun

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