पटना

क्या सवाल सिर्फ कन्हैया का है?

क्या सवाल सिर्फ कन्हैया का है?
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हकीकत है कि जब कन्हैया जैेसे प्रखर चेहरे को राजनीति में पैठ बनाने के लिये इतनी जद्दोजहद करनी पड़ सकती है तो उन अनाम युवाओ का क्या होगा जिसने राजनीति में आकर अपने समाज और देश को बदलने का सपना देखा है.

यो तो बेगूसराय की राजनीति धारा के विपरीत चलने के लिये प्रसिद्द रही है. याद कीजिये जब समूचे देश में कांग्रेस की हवा चरम पर थी तो बेगूसराय वामपंथियो का लाेनिनग्राद बना था. शायद यही वजह रही कि देश में वामपंथ के जो भी बड़े लीडर रहे हो लेकिन उनका मथुरा और काशी बेगूसराय माना जाता रहा है.


समाजवादी आनदोलन की बयार को यहा की जनता ने धार दी तो गहरे लाल झंडे को फेककर बेगूसराय ने भगवा धारण कर लिया .शायद यही वजह रही कि बिहार का लेनिनग्रद कहलाने वाले बरौनी विधान सभा में भगवा लहराया और इसका असर बेगूसराय की लोकसभा सीट पर भी पड़ा. लेकिन कहा जाता है कि जब कोई दल या सत्ता अपने यौवन पर होती है तो उसकी निरंकुशता को बेगूसराय लगाम ही नही कुचलने का भी काम करती है.


शायद यही वजह रही कि 2014 को लोकसभा चुनाव में जब पूरे देश में मोदी सरकार का ड़ंका बज रहा था और कांग्रेस समेत पूरी विपक्षी पार्टियो की बोलती बंद थी उस समय रोहित वेमुला की आत्म हत्या के मामले को लेकर पूरे देश में भाजपा सरकार के खिलाफ पहली आवाज उठाने वालो में जे एन यू के तात्कालीन अध्यक्ष कन्हैया कुमार भी एक था. कन्हैया और उसके साथियो ने ना केवल बुलंदी से आवाजही उठायी बल्कि मोदी विरोध को धार भी दी. लेकिन जे एन यू की एक विवादित घटना में कन्हैया का नाम आने और उस पर देश द्रोह का आरोप लगने के बाद वह मोदी विरोध का प्रतीक बन गया.


हमारे समाज की एक बुनियादी सोच है कि अगर आपके खिलाफ कोई एफ आई आर दर्ज हो गया तो आप दोषी मान लिये जाते है. शायद यही कन्हैया के साथ हुआ और बीजेपी के भक्तो ने उसे देश द्रोही मान लिया और कोर्ट के द्वारा सजा नही मिलने के बावजूद भी उसे दोषी करार दे दिया गया. खैर जो हो कन्हैया को एक विशेष पहचान मिली और भाजपा विरोधी दलो का समर्थन भी . लेकिन क्या समर्थन केवल दिखाबा था. यह हकीकत का अहसास तब दिखाई पड़ने लगा जब बिहार में शीट शेयरिंग को लेकर विपक्षी दलो ने कन्हैया को अलग - थलग कर दिया. आखिर इसकी वजह क्या है. क्यो राजनीति के मठाधीश कन्हैया को राजनीति में इंट्री देने से परहेज कर रहे है. वजह साफ है अगर पिछले दो दशक की राजनीति को देखे तो एक भी युवा चेहरा देश स्तर ऐसा नही दिखा जो अपनी क्षमता से अलग पहचान बनाई .


विरासत की राजनीति करने वाले मठाधीशो को शायद इस बात का डर है कि कही कन्हैया, अल्पेश , जिग्नेश , हार्दिक पटेल ऐसा युवा राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत बना लेगा तो इन मठाधीशो का क्या होगा. यही वजह है कि कन्हैया तो एक प्रतीक है , हकीकत है कि जब कन्हैया जैेसे प्रखर चेहरे को राजनीति में पैठ बनाने के लिये इतनी जद्दोजहद करनी पड़ सकती है तो उन अनाम युवाओ का क्या होगा जिसने राजनीति में आकर अपने समाज और देश को बदलने का सपना देखा है.


देखना है अपनी पुरानी परंपरा को बरकरार रखते हुए दिनकर की यह धरती एक बार फिर, रामनारायण चौधरी रामचरित्र सिह, रूद्र नारायण झा कां0 चंद्रशेखर , सीताराम मिश्र , रामजीवन सिंह , भोला सिह , बासुदेव सिंह, शत्रुध्न प्रसाद सिंह की तरह आशिर्वाद देकर उसे राजनीतिक क्षितिज पर स्थापित कर पाती है या फिर उसे असमय ही राजनीति की कब्र पर दफना देती है. लेकिन क्या यह सवाल सिर्फ कन्हैया का नही है वह तो एक प्रतीक है.


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