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लाइफ स्टाइल
वोद्का डायरीज़ के फिल्मकार को अपनी मूर्खताएं रिलीज़ के दो दिन के भीतर समझ में आ गई
अभिषेक श्रीवास्तव जर्न�
21 Jan 2018 2:52 PM IST

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Vodka Diaries | Kay Kay Menon | Mandira Bedi |
घटियापे की फेहरिस्त में फुकरे, गोलमाल, 1921 को मैं रखूंगा लेकिन जो बात 'वोद्का डायरीज़' में परसों मुझे दिखी मैं उसका लंबे समय से इंतज़ार कर रहा था।
कई मित्रों ने इधर बीच आई फिल्मों पर मेरी राय जाननी चाही। दो महीने से सोच रहा था कि तब लिखूंगा जब लगेगा कि किसी फिल्म पर लिखना चाहिए। वैसे पिछले दिनों के दौरान मुक्काबाज़, 1921, फुकरे रिटर्न्स, गोलमाल अगेन, करीब करीब सिंगल, टाइगर जि़ंदा है, सीक्रेट सुपरस्टार आदि फिल्में देखने के बाद किसी पर भी कायदे से राय देने का मन नहीं किया। हां, टाइगर में मज़ा आया, मुक्काबाज़ अपने किस्म की लगी, करीब करीब सिंगल काफी स्मूथ रही लेकिन तीनों ही नायक-प्रधान थीं। विनीत कुमार सिंह पर नज़र रहेगी। सीक्रेट सुपरस्टार लाउड थी। घटियापे की फेहरिस्त में फुकरे, गोलमाल, 1921 को मैं रखूंगा लेकिन जो बात 'वोद्का डायरीज़' में परसों मुझे दिखी मैं उसका लंबे समय से इंतज़ार कर रहा था। पता है क्यों?
इंटरनेट पर इस फिल्म की सारी रिव्यू पढ़ जाइए। सबने एक स्वर में फिल्म को खारिज कर दिया है। मैं नहीं करता। वोद्का डायरीज़ एक ऐसी फिल्म है जिसे उसका पटकथाकार और निर्देशक कायदे से बुन नहीं पाया है। बनी-बनाई लीक पर एक कामयाब और परफेक्ट फिल्म रच देना बड़ी बात नहीं। लीक तोड़कर मूर्खतापूर्ण तरीके से कोई रिस्क लेना संभावना को दिखाता है। वोद्का डायरीज़ एक झटके में आपको 'रोग' या 'नो स्मोकिंग' की याद दिलाती है। यानी इसकी एक रीकॉल वैल्यू है। 'नो स्मोकिंग' से एक दृश्य जस का तस कॉपी है, सिवाय इसके कि वहां नायक गटर से निकलकर खुद को साइबेरिया में पाता है लेकिन यहां वह अपने कमरे से सोलांग घाटी की वादियों में पहुंच जाता है। कई साल पहले 'नो स्मोकिंग' को मैंने मुक्तिबोध की एक डार्क कविता लिखा था जनसत्ता में। 'वोद्का डायरीज़' किसी अकवि लौंडे द्वारा मुक्तिबोध की ऐसी नकल है जिसके अंत में कविता की व्याख्या करनी पड़ जाती है। मने कविता समझ में ही नहीं आती। अपनी दुरूहता के कारण नहीं, घटिया नकल के कारण।
आज के दौर में कोई 'वोद्का डायरीज़' जैसा कच्चा ही सही, प्रयोग करता हो तो उसकी मैं सराहना करूंगा। मैं सोच रहा था कि अगर केके की जगह इस फिल्म में इरफ़ान होते तो क्या होता? यह 'रोग' का घटिया सीक्वेल बन सकती थी। शायद इसी से बचने के लिए केके को लिया गया होगा, लेकिन केके फिल्म को बचा नहीं पाए। दर्शक इंटरवल में गाली देते हुए उठकर भाग गया। मुझे याद है 'नो स्मोकिंग' में मेरे साथ केवल तीन लोग सिनेमाहॉल में थे। वह अनुराग कश्यप का साहस था। यहां कोई बड़ा बैनर या नाम नहीं है। न कोई गिरोह। फिर भी प्रयोग किया गया। यह अच्छी बात है। ऐसे ही बददिमाग फिल्मकारों की ज़रूरत है बॉलीवुड को।
हो सकता है वोद्का डायरीज़ के फिल्मकार को अपनी मूर्खताएं रिलीज़ के दो दिन के भीतर समझ में आ गई हों। संभव है अगली बार वे इंसानी मनोविज्ञान और मनोविकार पर फिल्म बनाते वक्त थोडा पढ़ लिख भी लेंगे। हो सकता है पहले ही झटके में वे बहरिया दिए जाएं। यह भी संभव है कि अगली बार वे पांच काल्पनिक मर्डरों का बोझ सिर पर न ले बैठें बल्कि एक किरदार के मर्डर से ही काम चला लें, जैसा 'रोग' में था। वैसे भी 'रोग' ही कौन सी ओरिजिनल थी। उसे भी हॉलीवुड की 'लॉरा' से कॉपी मारा गया था। दिक्कत नकल में नहीं है। गंदी नकल में है। सुंदर नकल भी एक कला है। 'बर्फी' से बढि़या उदाहरण क्या होगा?
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अभिषेक श्रीवास्तव जर्न�
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