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- प्रेस क्लब ऑफ इंडिया...
किसी ने कहा था कि सत्ता की विचारधारा ही समाज की विचारधारा होती है। साल भर प्रेस क्लब ऑफ इंडिया की प्रबंधन कमेटी में बतौर निर्वाचित सदस्य इस बात का अहसास मुझे गहरे सालता रहा है, जहां कुल पांच पदाधिकारियों के गिरोह के सामने 16 कार्यकारी सदस्यों की हैसियत मोदी कैबिनेट जैसी थी। साल भर तक मेरे उठाए लिखित सवालों के जवाब देना तो दूर, मेरी लिखित आपत्तियों की पावती तक नहीं दी गई। इसकी वजह बस इतनी सी है कि पुष्पेन्द्र कुलश्रेष्ठ की कमेटी को हटाने के बाद पिछले कुछ वर्षों में क्लब में जितने सत्ता परिवर्तन हुए, सब बोगस थे। किसी न किसी रूप में एक ही कमेटी अलग अलग चेहरों के साथ जीतती रही। पिछले साल मेरा खड़ा होना और जीतना अपवाद था, लेकिन उसका हासिल सिफर रहा। अपने तमाम विरोधों और आपत्तियों को लेकर मैं मीटिंगों में उंगली उठाता रहा, लेकिन सत्ता अपने हिसाब से काम करती रही।
इस बार फिर वही स्थिति है, बल्कि ज़्यादा बुरी है क्योंकि विपक्ष क्षत विक्षत है। वाइस प्रेसिडेंट पद पर निर्विरोध दिनेश तेवरी पहले ही जीत गए हैं, जो बधाई के पात्र हैं। सत्ताधारी पैनल में बाकी का जीतना औपचारिकता भर है। ऐसे निराशाजनक माहौल में एक पत्रकार अकेले खड़ा अपनी किस्मत आजमा रहा है - दिलीप सी मंडल ध्यान देने वाली बात है कि दिलीप मंडल न केवल विभिन्न संस्थानों में संपादक रह चुके हैं बल्कि अभी अभी एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के सदस्य चुने गए हैं। दोनों पैनलों में मंडल जी के पाये का कोई पत्रकार नहीं दिखता। प्रेस क्लब के प्रबंधन में लिखने पढ़ने वालों का घोर अकाल है। वे डरे हुए हैं कि इतना सीनियर संपादक उनके बीच अकेले खड़ा है। एक अदद जेनुइन पत्रकार के आने से क्लब के चुनाव में खरमंडल मच गया है।
वैसे, कोषाध्यक्ष पद पर खड़े यशवंत सिंह जैसे कुछ और चेहरे हैं जिन्हें जितवाए जाने की जरूरत है ताकि बरसों से चला आ रहा गतिरोध टूटे, क्लब के काम में पारदर्शिता आवे और नीतियों पर कब्ज़ा जमाए बैठे गिरोह का गुजरात मॉडल कमजोर हो। असहमति, असंतोष और अभिव्यक्ति की आखिरी जगह बची है प्रेस क्लब। इसे बचाए रखने के लिए में नए पुराने सदस्यों से आह्वान करता हूं कि अव्वल तो पहले कमेटी में रह चुके किसी भी चेहरे को वोट न दें। दूसरे, दिलीप मंडल, यशवंत सिंह, निर्निमेष कुमार, शंभु, अफ़ज़ल इमाम, शौर्य भौमिक जैसे जुझारू और सम्मानित पत्रकारों को ही अपना वोट दें। वोटिंग 15 दिसंबर को है, भ्रम बहुत है कि किसे वोट दिया जाए। इस सुविधा के लिए कुछ सदस्य मिलकर अपनी तरफ से एक सूची जल्द ही जारी करेंगे जो स्वतंत्र रूप से केवल सीरियस प्रत्याशियों को होगी।
विपक्षी पैनल की कमर वैसे ही टूटी हुई है। ऐसे में हमारी ऐतिहासिक जिम्मेदारी है कि सत्ताधारी पैनल की कमर तोड़ी जाए, दूसरे पैनलों और स्वतंत्र प्रत्याशियों के बीच से नए लोगों को प्रबंधन में पहुंचाया जाए। जो नारा 2019 के आम चुनाव में लगना है, वही अबकी प्रेस क्लब के लिए भी लगेगा - "अबकी बार खिचड़ी सरकार"! साथ में केवल एक निजी गुज़ारिश है कि वैचारिक असहमतियों को दरकिनार करते हुए सभी सम्मानित मतदाता दिलीप चन्द्र मंडल को ज़रूर जितवाएं। केवल एक संपादक स्तर के आदमी का गैर पत्रकारों के बीच मौजूद होना बड़ा फर्क डाल सकता है।
जिन्हें वोट देना है, उनकी सूची लेकर अगली पोस्ट में जल्द मिलते हैं।