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- बीजेपी को हराने का...
भारतीय सियासत इस मोड़ पर खड़ी है जब गैर बीजेपी गैर कांग्रेस की सियासत करने वाले दलों का रुख महत्वपूर्ण हो गया है। ये दल बीजेपी से आहत हैं। भारतीय लोकतंत्र में क्रमश: मजबूत हो रहा संघवादी (फेडरल) चरित्र इन दलों को डरा रहा है। बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा की यह सोच भी इन दलों के डर का कारण है कि क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व अब नहीं रहने वाला है। लेकिन, कांग्रेस से परहेज करके ये दल क्या अपनी लड़ाई लड़ सकेंगे?- ये बड़ा सवाल है।
वह कुनबा तीसरा मोर्चा कहलाता आया है जो बीजेपी और कांग्रेस से समान दूरी रखता हो। लेकिन, यह सोच अब बीते समय की बात हो गयी है। यही कारण है कि न तो 2019 के आम चुनाव में तीसरा मोर्चा परवान चढ़ सका था, न ही 2024 में ऐसा संभव होने वाला है। कवायद तब भी हुई थी, अब भी हो रही है।
कांग्रेस की ताकत से चौथाई कम है क्षेत्रीय दलों की ताकत
2019 के आम चुनाव में अकेले बीजेपी को 22.9 करोड़ यानी 37.7 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि कांग्रेस 11.95 करोड़ यानी 19.67 प्रतिशत वोट हासिल कर सकी थी। प्रदेश स्तर पर मान्यता प्राप्त दलों को 14.15 करोड़ यानी 13.75 प्रतिशत वोट मिले थे। वाम दलों में राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर चिन्हित सीपीएम और सीपीआई का जिक्र अलग से होना जरूरी है जिन्हें 2.14 करोड़ यानी 2.36 प्रतिशत वोट मिले थे। ये आंकड़े बताते हैं कि क्षेत्रीय दलों की ताकत बीजेपी के मुकाबले करीब एक तिहाई से थोड़ा ज्यादा है जबकि कांग्रेस के मुकाबले यह एक चौथाई कम है।
यूपीए और एनडीए में लामबंदी के बाद क्षेत्रीय दलों की ताकत और सिमट जाती है। यह बहुत महत्वपूर्ण बात है कि क्षेत्रीय दल बीजेपी का मुकाबला बिना कांग्रेस के कैसे करे? आम चुनाव में बीजेपी का विकल्प बनने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर साझा लक्ष्य जरूरी है। जब तक बीजेपी को कार्यक्रम के स्तर पर कमतर और विकल्प उससे बेहतर साबित नहीं किया जा सकेगा, मतदाता अपनी स्थिति में शायद ही बदलाव करें।
विकल्प बनने के लिए सड़क पर उतरी है कांग्रेस
कांग्रेस राष्ट्रीय राजनीति में बीजेपी के विरोध की धुरी है। राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने बीजेपी का विकल्प बनने की कोशिश पहली बार सड़क पर उतरकर की है। सैद्धांतिक मुद्दों से लेकर कार्यक्रमों को भी किसी हद तक सामने रखा है। इससे माहौल में एक हलचल पैदा हुई है। मगर, क्षेत्रीय क्षत्रपों ने क्या किया है? यह बात सोचने वाली है कि भारत राष्ट्र समिति या समाजवादी पार्टी एक-दूसरे की मदद करके एक सीट में भी इजाफा नहीं कर सकती, तो इस गठबंधन का ज़मीन पर असर कैसे होगा?
क्षेत्रीय दलों की प्राथमिकता होनी चाहिए कि अपने-अपने जनाधार वाले क्षेत्रों में उन दलों के साथ गठबंधन करें, जिनके वोट हस्तांतरित हो सकते हैं। चूकि कमजोर होने के बावजूद कांग्रेस देशव्यापी स्तर का राजनीतिक दल है इसलिए कांग्रेस से जुड़ना या कांग्रेस को जोड़ना क्षेत्रीय दलों के लिए परिणामदायी हो सकता है।
गणितीय परिणाम नहीं देते हैं गठबंधन
सच यह भी है कि गठबंधन के नतीजे कभी भी अंकगणितीय आधार पर नहीं आते। गठबंधन का समीकरणीय प्रभाव ही अंतत: परिणाम देते हैं। उदाहरण के तौर पर कर्नाटक और झारखण्ड को देख सकते हैं जहां क्रमश: जेडीएस और जेएमएम का कांग्रेस से गठजोड़ प्रदेश में सत्ता की गारंटी तो बन गया था लेकिन आम चुनाव में नतीजे अलग आए। इससे यह निष्कर्ष निकाल जा सकता है कि बीजेपी को हराने के लिए केवल गठबंधन अनिवार्य फैक्टर नहीं है, मगर महत्वपूर्ण फैक्टर होने से इनकार नहीं किया जा सकता।
उल्लेखनीय उदाहरण यह भी है कि कर्नाटक में स्थानीय निकाय के चुनाव में जेडीएस और कांग्रेस अलग-अलग लड़े थे। फिर भी कांग्रेस ने बीजेपी को पछाड़ दिया था। इसका उल्टा उदाहरण यह है कि जिन प्रदेशों में कांग्रेस ने बीजेपी से सत्ता छीन ली थी, वहां भी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस बीजेपी को पछाड़ नहीं सकी थी। यानी आगामी लोकसभा चुनाव कांग्रेस के लिए छोटे और महत्वपूर्ण क्षत्रपों की महत्वता बढ़ जाती है
बयान देने से काम नहीं चलेगा
अखिलेश यादव ने हैदराबाद में कहा है कि तेलंगाना में बीआरएस बीजेपी को साफ कर देगी तो यूपी में समाजवादी पार्टी भी बीजेपी को खदेड़ देगी। यह ऐसा बयान जिसका धरातल से कोई नाता नहीं है। बीजेपी का विकल्प बनकर सामने आना पड़ेगा। यह संदेश देना होगा कि बीजेपी के मुकाबले चाहे कोई भी सरकार बनने जा रही हो, समाजवाद पार्टी और बीआरएस उसमें अपना योगदान करेगी। कांग्रेस से दूरी दिखाकर संदेश नहीं जा सकता।
कांग्रेस के लिए भी यह अवसर चिंतन का है। क्षेत्रीय दलों के इकट्ठा होने को कांग्रेस अपने खिलाफ सियासत मानने से परहेज करे। यह समझने की जरूरत है कि आज के परिप्रेक्ष्य में बीजेपी विरोध का तेवर इन क्षेत्रीय दलों में भी है। लिहाजा इसका सम्मान करना चाहिए। तभी आम चुनाव से पहले या बाद में इकट्ठा होने का माहौल बन सकेगा। उदाहरण के तौर पर वामदलों को लें। वामदल भी हैदराबाद में के चंद्रशेखर राव के निमंत्रण पर पहुंचे। लेकिन, बीजेपी विरोध की सियासत में क्या वामदलों की ईमानदारी पर कोई सवाल उठा सकता है?
तीसरा नहीं, पहला मोर्चा ही रास्ता
राहुल गांधी के नेतृत्व में सफल भारत जोड़ो यात्रा से एक बात साबित हो रही है कि राष्ट्रीय राजनीति बीजेपी विरोध की नींव कांग्रेस पर टिकी हुई है। बीजेपी विरोध की धुरी कांग्रेस है लेकिन इस लड़ाई में क्षेत्रीय दल भी महत्वपूर्ण है। देश के सभी बीजेपी विरोधी दलों को आपसी सामंजस्य को बढ़ाना होगा। संभवत: इसमें कुछ अड़चनें आयेंगी, हो सकता है कि सारे क्षेत्रीय दल एक सुर में ना बोलें। यह उनका फैसला होगा। मगर, यह संदेश जाना चाहिए कि कांग्रेस केंद्र में बीजेपी सरकार का विकल्प देने की कोशिश में ईमानदारी के साथ खड़ी है।
भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होने के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों को कांग्रेस ने निमंत्रण दिया है। नीतीश कुमार का यह नारा बहुत सटीक है कि अब कोई तीसरा मोर्चा नहीं पहला मोर्चा ही बनेगा। वे ये भी कह चुके हैं कि कांग्रेस के बगैर यह मोर्चा नहीं हो सकता।
हैदराबाद से भी जो संदेश निकल कर आ रहे हैं उसका अर्थ यही है कि सीट वार बीजेपी बनाम साझा उम्मीदवार की तैयारी होनी चाहिए। यह ऐसा फॉर्मूला है जिसे स्वीकार करने में जो भी अड़चन आए उसे मिल बैठकर दूर करने की जरूरत है। हां, यह भी याद रखना जरूरी है कि जब कुनबा बड़ा होता है तो उसकी बुराइयां भी इकट्ठा होकर दिखती हुई बड़ी लगने लग जाती हैं। उन बुराइयों पर पहले फोकस करना होगा ताकि इकट्ठा होने का कहीं उल्टा नुकसान न हो जाए।
सीटों पर उम्मीदवारों के चयन में समावेशी रुख दिखाना होगा। तभी सीटवार बीजेपी को चुनौती देने की रणनीति बन सकती है। जितनी जिम्मेदारी कांग्रेस की है उतनी ही जिम्मेदारी दूसरे गैर बीजेपी राष्ट्रीय दलों की भी है चाहे वे वामदल हों या फिर एनसीपी, टीएमसी, बीएसपी। तभी सभी दल कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में 2024 में बीजेपी को सत्ता से उखाड़ फेंकने में सफल होंगे।