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अल्लाह का इस्लाम और मुल्ला का इस्लाम

Desk Editor
21 Oct 2021 7:07 AM GMT
अल्लाह का इस्लाम और मुल्ला का इस्लाम
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इस्लाम का मानना है कि अल्लाह को न मानने वाले का भी अल्लाह रिज़्क़ बंद नहीं करता। अल्लाह का मुनकिर भी सामान्य जीवन जीने का अधिकारी है और हम पर फर्ज़ है कि उसको क़त्ल करने की बजाय उसके लिए दुआ करें और उम्मीद करें कि उसके दिल में ईमान जागे और वो अल्लाह के बनाए निज़ाम का पालन करे

ज़ैघम मुर्तज़ा

अल्लाह के इस्लाम में बुनियादी तौर पर पांच चीज़ फर्ज़ की गईं। पहली तौहीद यानी एक ईश्वर का होना और उसको ख़ुदा तस्लीम करना। कोई ईश्वर नहीं अल्लाह के सिवा और मुहम्मद सअ उसके रसूल हैं, इतना मान लेना मुसलमान होने के लिए काफी है।

दूसरा सलात यानी नमाज़ या इबादत, तीसरा ज़कात, चौथा रोज़ा और पांचवा हज। इनमें बंदिश सिर्फ पहले में है। यानी अल्लाह का वजूद मानना ही नहीं है बल्कि उसके बराबर किसी को नहीं मानना है और उसको मानने का ढोंग नहीं करना है, दिल में भी उसको तस्लीम करना है।

ज़कात आदमी की हैसियत से जुड़ी है। अगर उसकी आमदनी इतनी नहीं है कि वो अपने जायज़ ख़र्च पूरे कर सके तो ज़कात दाने का नहीं बल्कि उसमें अपना हिस्सा लेने का अधिकार रखता है। इस्लाम में तमाम संपत्ति अल्लाह की है, हम उसके यूज़र और कस्टोडियन हैं और उसका अल्लाह के बंदों के हित में इस्तेमाल करना हमारी ज़िम्मेदारी है। नमाज़ फर्ज़ है लेकिन उसमें बीमार, मुसाफिर, मजबूर, ग़ुलाम, नौकरी के पाबंद और किसी ज़िम्मेदारी में बंधे आदमी को छूट हासिल है। मान लीजिए आपके सामने कोई तड़प रहा है तो उसकी मदद ज़रूरी है और इसके लिए उस वक़्त नमाज़ तर्क की जा सकती है। रोज़े में भी इतनी ही ढिलाई है। आप बीमार हैं, मजबूर हैं तो रोज़ा मत रखिए।

तीमारदार या बच्चे को दूध पिलाने वाली मां समेत दर्जनों शर्त हैं जो रोज़ा रखने से छूट देती हैं। इसके अलावा दर्जनों शर्त ऐसी भी हैं कि अगर उनकी अनदेखी करके आप नमाज़ पढ़ने जाएं या रोज़ा रखें तो आपकी इबादत बातिल भी हो सकती है। हज भी इसी तरह दर्जनों शर्तों से बंधा फर्ज़ है। इसमें क़र्ज़दार न होना, ज़िम्मेदारी से बंधा न होना शामिल हैं। कुल मिलाकर अल्लाह के इंसान सू जितने मसले हैं उनमें कहीं ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं है। इस्लाम का मानना है कि अल्लाह को न मानने वाले का भी अल्लाह रिज़्क़ बंद नहीं करता। अल्लाह का मुनकिर भी सामान्य जीवन जीने का अधिकारी है और हम पर फर्ज़ है कि उसको क़त्ल करने की बजाय उसके लिए दुआ करें और उम्मीद करें कि उसके दिल में ईमान जागे और वो अल्लाह के बनाए निज़ाम का पालन करे।

इस निज़ाम में कुछ चीज़ हराम क़रार दीं और कुछ हलाल। हराम कभी हलाल नहीं हो सकता। हराम का गुनाह है जिसका हिसाब भी अल्लाह को करना है, बंदो को नहीं। इसके लिए बाक़ायदा एक दिन, यानी क़यामत का रोज़ मुक़र्रर है। अल्लाह ने अपने बंदों से कहा कि तुम गुनाह से दूर रहो, दूसरे के गुनाह आम मत करो, दूसरे के गुनाह पोशीदा रखो और दुआ करो कि तुम या वो आगे कोई गुनाह न करे। साथ ही जो गुनाह हो गए हैं उनकी दिल से माफी मांगते रहो। अगर तुम्हारी नीयत दोबारा उस गुनाह को करने की नहीं है तो हो सकता है तुम्हारी तौबा क़ुबूल हो जाए। ये तो थी अल्लाह के मज़हब की आज़ादी और फ्लेक्सिब्लिटी। अब मुल्ला का मज़हब देखिए।

ये नहीं करेगा तो जहन्नुम में जलेगा, वैसा नहीं करेगा तो काफिर हो जाएगा, ये बिदअत है, वो शिर्क है, तू मुनकिर है, तू काफिर है, तू जहन्नुमी है। इसमें एक इंच की भी गुंजाइश नहीं है। लिबास से लेकर हुलिए तक, इबादत से लेकर आख़िरत तक मुल्ला ने तीन दुकानों में बंद कर दिए हैं। एक दुकान में जन्नत का लालच है, दूसरी में वो दोज़ख़ का डर बेचता है और तीसरी में जन्नत जहन्नुम की प्लाटिंग करता है। उसकी शर्त से आप चूक जाइए तो काफिर हैं और बिना तौबा का मौक़ा मिले सीधे जहन्नुम में। उसकी दुकान पर न हश्र का इंतज़ार है और न क़यामत का हिसाब किताब।


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