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#MeToo के हर आरोप सच मानना भी गलत होगा

Special Coverage News
12 Oct 2018 10:52 AM IST
#MeToo के हर आरोप सच मानना भी गलत होगा
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वरिष्ठ पत्रकार परमेंद्र मोहन ने मी टू अभियान के तहत लगातार सामने आ रहे आरोपों का बड़ी ही बारीकी से विश्लेषण किया है। उनका मानना है कि हर आरोप सच नहीं हो सकता। हर आरोप कोअलग नज़रिए से देखा जाना चाहिए। उनके उनकी की बेबाक राय

प्रमेंद्र मोहन

एक फिल्म आई थी कुछ साल पहले हाईवे...इम्तियाज अली की इस फिल्म की नायिका आलिया भट्ट थी, जिसने फिल्म के आखिरी हिस्से में पूरे परिवार के सामने अपने उस अंकल को जलील किया था, जो आलिया के बचपन में उसे टॉफियों का लालच देकर उसके साथ यौन शोषण किया करता था। इस सीन को देखकर हर दर्शक का मन आलिया से हुई दरिंदगी पर उस अंकल के खिलाफ गुस्से से भर उठा था। वजह साफ थी, एक छोटी सी बच्ची के साथ यौनशोषण किया गया था, उसकी मां ने बदनामी और शर्म की वजह से बेटी के साथ हुए अन्याय को दबा दिया था और ऐसा कोई दूसरा विकल्प उस नन्हीं सी बच्ची के पास नहीं था, जहां वो अपना दर्द साझा कर सकती थी।

आज जब इंडियन मीटू कैंपेन चल रहा है और यहां एक के बाद एक लड़किया, महिलाएं सामने आकर खुद के साथ हुए यौन शोषण का खुलासा कर रही हैं, किसने किया उन नामों को बेपरदा कर रही हैं, फिर भी समाज को गुस्सा नहीं आ रहा, बल्कि आरोप लगाने वालों पर ही ज्यादातर यूजर्स उंगली उठा रहे हैं तो बजाय खुद को महिलावादी और बुद्धिजीवी समझने लगने के, उन वजहों को तलाशना जरूरी है कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है?

समाज में एक ट्रेंड सा चल पड़ा है कि अगर लड़की किसी पुरुष के खिलाफ बोल रही है तो गलत पुरुष ही होगा, लड़की तो हो नहीं सकती। ये असमान सोच सिर्फ समाज में ही नहीं, सिस्टम में भी दिखती है, मसलन पत्नी का किसी भी घरेलू मसले पर पति या ससुराल वालों से झगड़ा बढ़ जाए तो दहेज उत्पीड़न का केस कर दो, पूरा का पूरा 'विरोधी गुट' पुलिस, हवालात, अदालत, जेल का चक्कर काटता रह जाएगा। कोई भी दो साल-पांच साल-दस साल किसी प्रेमी के साथ शारीरिक संबंध बनाए रखे और फिर शादी का झांसा देकर रेप का केस दर्ज करा दे तो फिर प्रेमी को ही यौनशोषक देखा जाने लगता है। एक-दो नहीं ऐसे कई मामले सामने आते रहे हैं, इसलिए मीटू के तहत लगाए जा रहे आरोपों पर एकदम से यकीन कर लेना मुमकिन भी नहीं है।

यौनशोषण के खिलाफ कानूनी सज़ा का प्रावधान भले ही पहले की तुलना में उत्तरोत्तर कड़ा हुआ है, लेकिन कानूनी कार्रवाई का प्रावधान पहले भी था, ये भी याद रखने की ज़रूरत थी। अगर किसी एक्ट्रेस के साथ किसी प्रोड्यूसर-डायरेक्टर-एक्टर-कोएक्टर ने यौनशोषण की कोशिश की थी तो वो पुलिस स्टेशन जाकर तब भी यानी वारदात का जो साल वो बताती हैं, उस वक्त भी, शिकायत दर्ज करा सकती थीं। उस वक्त भी मीडिया हुआ करता था, वहां जा सकती थीं, ऐसे में ये सवाल आरोप लगाने से पहले उन्हें खुद से भी पूछना चाहिए कि आखिर वो वजह क्या थी, जिससे वो तब नहीं, अब बोल रही हैं?

महिलावादी जवाब दे सकते हैं कि तब समाज में इसे स्वीकार करने की सोच नहीं थी, लेकिन तब एक और सवाल ये भी उठता है कि फिर फिल्में, मॉडलिंग, फैशन जैसे फील्ड भी तो बदनाम ही माने जाते थे, जो क्षेत्र महिलाओं के लिए असुरक्षित-बदनाम माने जाते थे, वहां जाकर काम करने का साहसिक फैसला लेने में सक्षम लड़कियां अपने साथ हो रहे यौनशोषण की शिकायत करने का साहसिक फैसला लेने में अक्षम क्यों होती रहीं? असहमति से सेक्स या सेक्स की कोशिश तब भी अपराध ही हुआ करता था। एक सच ये भी है कि लांचिंग-करियर-काम-पैसा या फिर इनके बदले जिस्म का सौदा, जब इन दोनों में से एक के चयन का विकल्प बना तो उस वक्त दूसरा विकल्प चुना गया।

ये तो व्यक्ति-दर-व्यक्ति निर्भर करता है कि उसे स्वाभिमान के दम पर जीवनपथ पर बढ़ना है या फिर शॉर्टकट के दम पर? न तो हर पुरुष यौनशोषक होता है और न ही हर महिला यौनशोषित होती है, ज्यादतियां नहीं होतीं रही हैं, ऐसा नहीं हैं, लेकिन तमाम ज्यादतियों में खुद के फायदे की सोच भी शामिल नहीं हैं, ऐसा भी नहीं है। ऐसे भी तमाम चेहरे हम सभी के आसपास मौजूद हैं, जो ये देखते चले आ रहे हैं कि क्षमता-प्रतिभा होने के बावजूद बहुत सारी महिलाएं उस मुकाम तक नहीं पहुंच पाईं क्योंकि उन्होंने कंप्रोमाइज़ नहीं किया, लेकिन वो अपनी क्षमता-प्रतिभा के दम पर फील्ड से बाहर भी नहीं की जा सकीं। दूसरी ओर, ऐसे भी उदाहरण कम नहीं, जब कुछ ने क्षमता-प्रतिभा के साथ जिस्म का भी इस्तेमाल किया और दौलत-शोहरत के उस मुकाम तक भी पहुंचीं, जो सिर्फ उनकी प्रतिभा के बूते की बात नहीं थी।

ऐसे भी उदाहरण हैं, जब पुरुषों ने प्रतिभावान, मेहनती लड़कियों को उसी तरह आगे बढ़ने में मदद की, जिस सोच के साथ वो लड़कों के मामले में काम को ही तवज्जो देते हैं तो ऐसे भी पुरुष हर फील्ड में मौजूद हैं, जिनकी जीभ लड़कियों को देखकर लपलपाने लगती है और मौके की तलाश में लगे होते हैं। मैं ऐसी भी महिला को जानता हूं, जिसने सिर्फ मौजमस्ती के लिए आधे-एक दर्जन पुरुषों के साथ शारीरिक संबंध बनाए और लंबे समय तक कायम भी रखे तो ऐसे पुरुषों की भी कमी नहीं, जिनके रिश्ते न जाने कितनी लड़कियों से रहे हैं, उन्हें गिनती भी याद नहीं होगी। अब ये लोग भी मी टू या शी टू कैंपेन में शामिल हो जाएं तो कुछ नहीं कह सकते।

इसीलिए मैंने कहा कि मी टू में लगने वाले हर आरोप को सच मानना सही नहीं है, ये व्यक्तिगत खुंदक भी हो सकती है, उस समय सहमति से बने रिश्ते को शोषण बताना भी हो सकता है और ये सच भी हो सकता है। न तो आप ये कह सकते हैं कि आरोप लगाने वाली दूध की धुली और वाकई पीड़ित ही है और न ही ये कह सकते हैं कि जिस पर आरोप लगा है, वो तो बस लड़की को देखते ही जीभ लपलपाने वाले चरित्र का ही है।

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