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- अंधेरी रात का शहर और...
औरत के लिए भरी दोपहरी में भी शहर में अकेले निकलना कितना कठिन होता है, यह बात औरत ही जानती है। लेकिन अगर उसे कहीं आधी रात में अकेले बाहर निकलना पड़े तो? तो उस पर क्या बीत सकती है? इसका जवाब शायद ही कोई औरत जानती हो। यही बताने के लिए यह रिपोर्ताज़ लिखा है। कतिपय मर्दाना आंखें इस सत्यकथा की मुख्य पात्र को ग़लत नज़रों से देख सकती हैं। पर आप ऐसा न करेंगे।
1994 के जाड़ों की एक रात। तब मैं 'स्वतंत्र भारत' कानपुर में काम करता था। दो बज चुके थे। मैं सुबह का एडिशन फाइनल कर चुका था। अब बस घर लौटना था। सिविल लाइन से हर्ष नगर। उस रात मेरे पास संयोगवश कोई वाहन न था। मैं पैदल निकल पड़ा। अभी हाडर्ड स्कूल तक ही पहुंचा था कि पीछे से आवाज़ आई, "भइया, हमहूं।" यह रॉबिन डे थे। मेरे पेस्टर। पेस्टर नहीं जानते तो आप पेजीनेटर कह लीजिए।
रॉबिन पाटलिपुत्र टाइम्स में काम कर चुके थे। वे जगन्नाथ मिश्र और माधवकांत मिश्र का कोई किस्सा सुनाने लगे। बातों-बातों में परेड चौराहा आ गया। कुहासा घना था।आसमान टपक रहा था। हम रिक्शा तलाश रहे थे। रॉबिन की बंगाली आंखों को मुझसे पहले रिक्शा दिखा। वह कैनिको ड्राइक्लीनर्स के बाहर खड़ा था। "खाली हो?" मैंने ज़ोर से आवाज़ लगाकर रिक्शेवाले से पूछा।
हम जवाब का इंतजार करते-करते रिक्शे के पास जा पहुंचे। रिक्शेवाला एक किनारे खड़ा था। रिक्शे के पांवदान पर अपना बूट टिकाए एक ख़ाकीवर्दीधारी खड़ा था। और, रिक्शे पर एक युवती बैठी थी। युवती ने हाथ जोड़ रखे थे। वह रो रही थी और पांवदान पर रखे काले बूट को छु-छू कर इल्तिजा कर रही थी…साहब मुझे जाने दो…मैं बहुत मुसीबत में हूं…।
मैं थोड़ा और आगे बढ़ा। देखा कि कैनिको ड्राइक्लीनर्स के नीचे सहन में दो ख़ाकीवर्दीधारी स्टूल पर बैठे हैं और ठहाका लगा रहे हैं। मेरी एड्रीनल ग्लैंड सक्रिय होने लगी। मन ने खुद से पूछा: क्या लड़की का सड़क पर निकलना गुनाह है। जवाब मिला नहीं। फिर क्या था। क्रोध उमड़ने लगा। लेकिन मैंने ग़ुस्से पर क़ाबू किया और गंभीर आवाज़ में कहा, "क्यों भाईसाहब, क्या बात है?"
" कौन है बे?" वर्दीधारी रिक्शे से पांव हटाकर मेरी ओर मुखातिब हुआ, "तू क़ाज़ी है कि मुल्ला?"
"मैं कोई नहीं लेकिन मैं किसी को एक औरत की बेइज़्ज़ती नहीं करने दूंगा।" मैं अब भी शांत था मगर अपमान भरी टोन से मैं सुलगने लगा था।
सिपाही मुझे 'अंदर करने' की धमकी देने लगा। पर मैंने उसकी धमकी को नज़रअंदाज़ करके रिक्शे पर बैठी औरत से पूछा, "क्या कह रहे हैं ये लोग?"
"कहते हैं, रिक्शे से उतरो" वह रोते हुए बोली, "कहते हैं, थाने ले जाएंगे?
"क्यों?"
"कहते हैं, तुम ग़लत काम करती हो।"
"क्यों दीवान साहब" मैंने हंसते हुए पूछा, "सड़क पर चलना ग़लत काम कब से हो गया?"
"पूछो इससे कि आधी रात के बाद कहां घूम रही है और कहां जा रही है? सिपाही ने पलट कर मुझसे कहा।
मैं जानता था कि किसी के घूमने पर रोक नहीं है। तो भी मैंने औरत से पूछा कि शायद बातचीत में उसकी मुक्ति का कोई रास्ता निकल आए।
"कहां से आ रही हो?"
"अलीगढ़ से। बस से चुन्नीगंज उतरी और रिक्शे से घंटाघर जा रही हूं।"
उसका जवाब क़तई दुरुस्त था। उन दिनों अलीगढ़ और दिल्ली की बसें चुन्नीगंज बस अड्डे से ही आती-जाती थीं।
"अब कहां जा रही हो?" मैंने अगला सवाल पूछा
"घंटाघर से लखनऊ की बस पकड़ूंगी और सोहरामऊ के जाऊँगी"
"सोहरामऊ क्यों?"
"सोहरामऊ थाने से ही मुझे खबर मिली थी?"
"क्या खबर?"
"मेरे आदमी के एक्सीडेंट की। वह ट्रक चलाता है।"
मेरा क्रोध चरम पर था। "देखा, किस परेशानी में है यह औरत" मैं लानत भेजते हुए सिपाहियों को मुखातिब हुआ। सिपाही हंस रहे थे।
वह औरत सड़क हादसे का शिकार हुए पति को देखने के लिए तीन सौ किलोमीटर दूर से हांफती-भागती चली आ रही थी और सोहरामऊ जैसी गुमनाम-अनजान जगह जा रही थी; और जनता के रखवाले उसे दबोच कर ठहाके लगा रहे थे! यह मेरे जैसे आदमी के लिए बर्दाश्त करने की बात नहीं थी। मैं ग़ुस्से से दहाड़ उठा, "शर्म नहीं आती तुम लोगों को!?"
मैंने पुलिसिया लाठी खाने की मानसिकता बना ली थी। मगर, आश्चर्य! सिपाही मेरे ग़ुस्से को बर्दाश्त कर गए!! शायद वे सड़क पर निस्सहाय खड़े आम आदमी के क्रोध से सहम गए थे!!!
मेरी हिम्मत और बढ़ गई। मैंने उन्हें फिर डपटा। इस बार वे हंसे नहीं। एक सिपाही बोला, "भाई साहब, ज़रा इस औरत के कपड़े और साज-सिंगार भी तो देखिए…" (हां भई, हां। कपड़ों से पहचानने वाले उस ज़माने में भी पाए जाते थे)
"क्या है इसके कपड़ों में?" मैंने पूछा।
"लो, खुद ही देख लो…" यह कहते हुए एक सिपाही ने औरत के ऊपर टॉर्च जला दी।
औरत ने सुर्ख-लाल साड़ी पहन रखी थी। ओठों पर साड़ी के रंग से मैच करती लिपस्टिक थी। चेहरे पर हवाइयों के साथ मेकप भी था, जिस पर आंसू बहने के कारण काजल के धब्बे आ गए थे।
मर्द मैं भी हूं। सो, मेरे दिमाग़ में लाखों साल से पड़े एल्गोरिथम ने सिपाही का इशारा डीकोड करने में देर नहीं लगाई। लेकिन यह दिमाग़ हज़ारों साल की विकास यात्रा भी तो कर चुका है! तो, उसी विकसित मन ने पल भर में संशय के परिंदे को उड़ा दिया: 'अगर यह वही है तो भी क्या? क्या तुम उसे बोटी के लिए लार टपकाते कुत्तों के लिए छोड़ दोगे?'
मेरा मन निर्मल हो चुका था। मैंने सिपाहियों का इशारा समझने से इन्कार कर दिया, "क्या है इन कपड़ों में? अच्छे तो हैं। बस थोड़े सस्ते वाले हैं।"
"तुम अंधे हो या ताली बजाने वाले" सिपाही इशारे में गाली देकर बोला, "ये रंडी है, साली! रंडी!!"
"तो? रंडी होना गुनाह है क्या" मैं सिपाहियों को क़ानून समझाने पर उतर आया था।
"नहीं जी, रंडी होना तो बड़े पुण्य की बात है!!"
"पाप और पुण्य सन्त-महात्मा जानें पर वेश्यावृत्ति किस धारा के तहत अपराध है?"
"तो, अपराध क्या है?"
"ग्राहक पटाते पकड़ा जाना अपराध है और सार्वजनिक तौर पर अश्लीलता का प्रदर्शन अपराध है" मैं अपने सीमित क़ानूनी ज्ञान के आधार पर समझाता चला जा रहा था।
रात सुबह की तरफ़ तेज़ी से भागती जा रही थी और वर्दीधारियों का सब्र और भलमनसाहत चुकती जा रही थी। सहसा एक सिपाही लाठी उठाकर मेरी ओर दौड़ा। लेकिन वह मुझ पर वार कर पाता उससे पहले मेरे साथी रॉबिन डे के अंदर बजरंगबली जाग गए। खास कनपुरिया शब्दावली उच्चारते हुए उन्होंने सिपाही का डंडा पकड़ लिया, "ख़बरदार, जो मेरे सम्पादक जी की तरफ़ आंख भी उठाई तो वर्दी उतरवा दूंगा।"
रॉबिन के एक वाक्य ने मंत्र की तरह काम किया। डंडा गायब हो गया और वर्दीधारी खड़े होकर बुदबुदाने लगे, "भाई साहब, पहले बताना था कि पत्रकार हो…अभी कुछ ऊंच-नीच हो जाता तो…हम लोग पाप से बच गए…अब ये आपकी हैं, जहां चाहें ले जाएं।"
आखिरी बात मुझे अपनी बिरादरी के प्रति अश्लील टिप्पणी प्रतीत हुई। मैंने तमक कर कहा, "हम क्यों ले जाएंगे? इन्हें घंटाघर जाना है, इसी रिक्शे पर चली जाएंगी– क्यों?" मैंने उस औरत की ओर मुख़ातिब होकर कहा।
औरत ने सहमति में सर हिला दिया।
"लेकिन हम ई मेहरिया का न लइ जइबे।" यह रिक्शेवाला था जो अब किसी पचड़े में नहीं पड़ना चाहता था। मैंने उसे बहुत समझाया पर वह न माना। उसने औरत को उतार दिया और तेज़ी से पेडल मारते हुए बड़े चौराहे की ओर निकल गया।
रिक्शा जा चुका था। सिपाही भी मुंह छिपा कर कहीं चले गए थे। सड़क पर अब मैं था। रॉबिन था। और थी वह। वह औरत। वह मेरी कोई न थी।
"तुम इसे घंटाघर छोड़ आओ" मैंने रॉबिन से कहा, "मैं यहां से पैदल हर्ष नगर (घर) निकल जाऊंगा। घर में वो परेशान हो रही होंगी।"
"न भइया न" रॉबिन ने अकेले जाने से इंकार कर दिया,"आगे मूलगंज में फिर नाका होगा…वहां फिर सिपाही रोक लेंगे।"
हम तीनों साथ चल दिए। नई सड़क पहुंचते-पहुंचते एक रिक्शा मिल गया। हम तीनों बैठ गए। मैं खुद से खुश नहीं था। तनाव और खीझ भी थी। मेरी तरह रॉबिन भी चुप था। चुप्पी उस औरत ने तोड़ी, "आपने मेरे लिए बहुत किया…"
मैं कुछ नहीं बोला और दाहिनी ओर सड़क को देखता रहा। कुछ देर बाद औरत ने अपना बैग खोला। कुछ सरसराहट-खरखराहट सुनाई दी तो देखने लगा। औरत ने पान-पराग की लड़ी निकाल ली थी। "लीजिए खाइए" उसने एक पाउच मेरे हाथ में रख दिया, "खाइए-खाइए, तुलसी भी है।"
मुझे तम्बाकू की तेज़ तलब हो रही थी लेकिन मैंने ऑफर ठुकरा दिया। औरत अब क़तई शांत थी। वह मंद-मंद मुस्करा भी रही थी। मैं खुद को परले दर्ज़े का आवारा महसूस कर रहा था। इस बीच मूलगंज चौराहा पार हो गया। कई सिपाही बैठे थे। इस बार औरत के चरित्र पर किसी को शक़ न हुआ। दो मुस्टंडों के बीच जो बैठी थी।
"भाई साहब" वह औरत फिर बोली, "यह बताइए कि क्या इतनी रात में मेरा जाना ठीक होगा?"
जवाब में मैंने उसे सिर्फ घूरा। ग़ुस्से से। बुरी तरह।
"नाराज़ न हों" वह मुस्कराते हुए बोली, मुझे थाने ही जाना है। सोहरामऊ थाने। वहां भी तो पुलिस वाले होंगे!"
"तो, मैं क्या करूँ? तुम्हारे साथ 65 किमी दूर सोहरामऊ थाने चलूं?
"नहीं सर जी। मैं तो यह कह रही थी कि पास में कोई होटल हो तो मुझे वहीं ठहरा दीजिए। पति हादसे का शिकार हो चुका है। कहीं मैं भी किसी हादसे का शिकार न हो जाऊं।"
"अब तुम चुप रहो। सवा तीन बजा है। सोहरामऊ पहुंचते-पहुंचते उजाला हो जाएगा"
रिक्शा थाना कलक्टरगंज पार करके घंटाघर क्षेत्र में पहुंचा ही था कि मुझे कुछ वुल्फ विसिल्स (सीटियां) सुनाई दीं। सीटियों का टारगेट हमारा रिक्शा ही था। बस अड्डा पास ही था। हम रिक्शे से उतर पड़े। देखा, हमारे दाएं-बाएं 16-18 साल के लफंगे मंडरा रहे हैं। एक ने दूर खड़े किसी लड़के को बुलाया, "अबोय चूतिये, इधर आ जा, वो फिर आई है।"
मैंने अपने साथ खड़ी औरत को कटखनी निगाहों से देखा। उसने आंखें ज़मीन पर गड़ा दीं। फिर बोली, "मेरा मायका यहीं बगल में तिलियाने में है। ये वहीं के लौंडे हैं। मुझे पहचानते हैं।"
लड़कों की संख्या तीन-चार से छह-सात हो गई थी। उन्होंने हम तीनों को घेर रखा था। वे औरत के साथ छीना-झपटी पर आमादा थे। "कित्ते में ग्राहक पटा कर लाई हो…वाह, एक साथ दो-दो ग्राहक..हमको भी ले लो एक से भले दो…दो से भले तीन।"
मैं खुद से ग़ुस्सा था। अपने लल्लूपन को कोस रहा था। खुद पर तरस खा रहा था। पर इसके बावजूद मैं यह भी देख रहा था कि वह औरत अब और ज़्यादा परेशान थी। पुलिस वालों ने तो सिर्फ रोका था। यहां तो मामला नोच-खसोट तक जा पहुंचा था।
तभी एक हूटर की आवाज़ सुनाई दी। शायद कोई अफसर आया था। उसी वजह से कुछ पुलिस वाले उस जगह खड़े रिक्शों व भीड़ को खदेड़ने लगे। और, लफंगे भाग गए। मैंने तुरन्त उस औरत का हाथ पकड़ा और बस अड्डे की तरफ दौड़ पड़ा। बस में कुछ विलम्ब था। औरत को वहीं खड़ा कर रॉबिन के साथ मैं पान खाने के लिए कुछ दूर निकल गया। और, जब हम लौटे तो औरत के बगल में एक 'केश्टो मुखर्जी' को खड़ा पाया। केश्टो खड़े क्या थे, उस औरत के कंधे पर लदे हुए थे।
केश्टो भभका मार रहे थे। रॉबिन ने कनपुरिया शैली में उनकी खबर ली, "क्यों xxx के चच्चा, यो का करैं मां लाग हौ माxxxद।"
केश्टो वैसे ही अपनी हिचकीमार स्टाइल में बेशर्मी से हंसे। "मेरी बेटी है" वे बोले, "आयम हर अंकल।"
रॉबिन ने इस गंजे कमीने आदमी की खोपड़ी में क़ायदे का झापड़ लगाया। जवाब में वह अपने ऊंचे कुल और नौकरी का हवाला देने लगा। "आर्मी से रिटायर्ड हूं मैं।" इतना कहके इस दारूबाज़ बुड्ढे ने अदृश्य अधिकारी को ज़ोरदार सैल्युट। इतना ज़ोरदार कि खुद भरभराकर गिर गया।
वह उठा तो मैंने पूछा, "अंकल, कहां जा रही है सवारी?"
"इलाहाबाद।"
"और, आपकी बेटी कहां जा रही है?"
"पता नहीं।" उन्होंने पूरी सच्चाई से जवाब दिया।
इस बीच लखनऊ की बस आ गई। मैंने हाथ देकर रुकवाई और दो घंटे की अपनी साथिन को अपने हाथ से धक्का देकर भीतर ठूंस दिया।
बस रेंग ही रही कि पता नहीं किस तरह उसके सामने केश्टो मुखर्जी आ गए। बस चरचरा कर रुक गई। कंडक्टर ने दरवाज़ा खोला और केश्टो अंकल लपक कर चढ़ गए। बस फिर चल दी। भीतर से केश्टो अंकल की आवाज़ सुनाई दे रही थी…मैं आ गया बेटी, मैं आ गया…।
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