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गाजियाबाद सामुदायिक केंद्र में प्रवासी मजदूरों का आँखों देखा हाल, चारों ओर ट्रैप है, बहेलिया आएगा, जाल बिछाएगा, फंसना नहीं!
मेरे पड़ोस के सामुदायिक भवन में सुबह दिल्ली से पैदल चल कर आये यूपी और बिहार के कुछ मजदूर रुके थे। दिन में कुछ रवाना हो गये। आधे बचे हैं। करीब दर्जन भर लखीमपुर के हैं और बाकी बिहार के। पास के गुरद्वारे और सोसायटियों से खाना पानी मिल रहा है। दो सिपाही सामुदायिक भवन के बाहर तैनात हैं। अभी होकर आया। माहौल सामान्य है। मेरे साथी जब उनसे बातचीत कर के वीडियो बना रहे थे तो मैं दूर से एक बात को महसूस कर रहा था। लोग अब कैमरे पर बोलने में प्रोफेशनल हो रहे हैं। सबको पता है क्या बोलना सेफ़ है। जहां हो, वहां के राजा को धन्यवाद दो। अपने देस के राजा को गरियाओ। जैसा कम्युनिस्ट परम्परा में होता आया है। मोहल्ला छोड़ बोलीविया की बात करना।
चुनाव में भी हम लोग इस बात को महसूस करते हैं कि लोग पत्रकारों को मैनिपुलेट कर ले जाते हैं और हमें पता नहीं लगता। लगता है कि हम लोग चीज़ों को सतह पर जस का तस स्वीकार करने के चक्कर में मूर्ख बन जाते हैं। मसलन, अभी मैं सोच ही रहा था कि कांग्रेस पार्टी ने चार दिन कैसे बसों के चक्कर में गंवा दिये और उलटा एफआइआर भी दर्ज हो गयी। तभी पता चला कि राजस्थान में पलटवार हुआ है और यूपी शासन के अफ़सरों पर वहां कांग्रेस ने एफआइआर करवा दी है। आप जिसे कमज़ोर समझ कर उससे सहानुभूतिवश हो रहे थे, पता चलता है कि वही खेल कर दे रहा है।
चारों ओर ट्रैप है। बहेलिया आएगा, जाल बिछाएगा, फंसना नहीं। पता चला यही सबक रटते-रटते फंस गये। उधर हमारे चक्कर में हमें पढ़ने वाला और हमारे लिखे पर भरोसा करने वाला भी फंस गया। लीजिए, अब तय करिये कौन बहेलिया है और कौन नहीं। कांटा कहां से चला है पते नहीं चलता। रास्ते में कितनों को फंसा कर आया है ये भी पता नहीं। अपने बाद कितनों को फंसाएगा इसकी भी ख़बर नहीं। कांटे के पीछे कौन खड़ा है, ये सबसे कठिन सवाल है। फिर घंटा हम लोग पत्रकार काहे के हैं। कुछ पते नहीं है और बुद्धि छौंके जाते हैं। इससे तो बढ़िया था कि पांच सौ किलो तरबूज़ मंडी से भोरहरे लाकर टाट बिछाकर चौराहे पर किसी कोने में बैठ लेते। कुछ आमदनी तो होती।