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जिस हिन्दुत्वादी विचारधारा के पास सत्ता में होने का कोई तर्क नहीं है, उसका इतनी दृढ़ता से सत्ता में होना इसका सबूत है कि इस देश के सामंती बौद्धिक एलीटों ने लोकतंत्र, गांधी और मार्क्स के नामों का कितना अधिक दुरुपयोग किया। वे भारतीय जनता की लगभग डेढ़ सौ साल की बलिदान- भरी लड़ाई को खा- चबा गए। वे इस देश और समाज को समझ तो सके ही नहीं, दूसरों को जगाते- जगाते खुद ही सो गए। साहित्यकारों की आवाज फीकी पड़ती गई!
आमतौर पर ऊपर से उदार या क्रांतिकारी, लेकिन वस्तुतः भीतर से सामंती- व्यक्तिवादी नेतृत्व ने शहीदों के त्याग को अपनी महत्वाकांक्षा की सीढ़ी बना लिया। ऊंचे आदर्शों वाली विचारधारा या क्रांति की बातें महज कर्मकांड में बदल गईं। बिल्ली जिस तरह अपने ही बच्चों को खा जाती है, ऐसी मार्जार- क्षुधा भी कम नहीं देखी गई।
यही वजह है कि आज आम लोग निस्सहाय हैं। आज देश में न कहीं सच्चा लोकतंत्र है और न सामाजिक न्याय और न शांतिपूर्ण जीवन ! खाइयां ही खाइयां हैं और आत्म- जयजयकार है! ऐक्यबद्ध संघर्ष दुर्लभ है । निराला से कुछ शब्द लेकर कहा जाए-- झूठ जिधर है उधर शक्ति!
आज बार- बार जिस संकट की बात की जाती है, पूछने की इच्छा हो रही है-- साथी, इस संकट में आपका योगदान क्या है?
यह सवाल हम सब अपने से पूछ सकते हैं!
--शंभुनाथ ( वरिष्ठ साहित्यकार )