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गजल

Desk Editor
29 July 2021 7:07 AM GMT
गजल
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कर लिया पाप जो अब न करपाएगा,

ये गुनाहों की है रात भी आखरी।

बांध डाली जुबानें खुलेगी सभी,

बेजुबानों की है रात भी आखिरी।।

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ना रहेंगे किसी की पनाहों में हम,

काट डाले हैं बंधन के बंधन सभी।

सांस लेंगे खुली अब हवाओं में हम,

ये पनाहों की है रात भी आखरी।।

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हक का जब भास्कर पंख फैलाएगा, गिड़गिड़ाना पड़ेगा न फिर से कभी।

रोशनी में न तम कर सितम पाएगा,

ये कराहों की है रात भी आखरी।।

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हो गया है भरोसा के जीतेंगे हम,

लोग देखेंगे मौला का मेरे करम।

बादशाहत रहेगी न कल देखना,

बादशाहो की है रात भी आखरी।।

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बेड़ियाँ सारी कट जाएंगी पांव की,

हाथसे हथकड़ी भी निकल जाएगी।

कल नई जिंदगी फिर मिलेगी यहां,

वेदनाओं की है रात भी आखरी।।

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सत्यके जलमें जो ढ़ोंग धुल जाएगा,

कुछ छिपेगा नहीं कुछ दबेगा नहीं।

दाग मुँह पर उभर आएंगे दागियों,

पारसाओंं की है रात भी आखरी।।

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रंग लाएंगी अपनी यही तूलिका,

जैलमें जायगेंअब शिकारी"अनन्त"।

दुश्मनाने अमन गर्क होंगे सभी,

गर्म आहों की है रात भी आखरी।।

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अख्तर अली शाह "अनंत" नीमच

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