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- हाथरस की शर्मनाक घटना...
प्रदेश या देश में कहीं भी कोई आपराधिक घटना होती है, उसमें पुलिस की कार्यप्रणाली हमेशा सवालों के घेरे में आ जाती है। बहुत चिंता का विषय है कि आजादी के 73 साल बाद भी देश की पुलिस में पेशेवराना कुशलता की भारी कमी दिखती है। भारतीय पुलिस का गठन अंग्रेजों ने ज़मीदारों और राजस्व अधिकारियों की मदद के लिए किया था, जो उन्हें लगान या कर वसूल करने मदद करते थे। दूसरे शब्दों में कहें तो ब्रिटिश हुकूमत ने सरकारी लठैतों या गुंडों की फौज़ बनाई थी। पुलिस का वही चरित्र आज तक बना हुआ है। आज भी पुलिस प्रभावशाली लोगों के हाथ की कठपुतली है।
पुलिस सामान्यतया और भारतीय पुलिस विशेष रूप से एक नेगेटिव बल है। यह कभी लोकमित्र नहीं हो सकी। सामान्य व्यक्ति थाने में जाने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाता। थाने में सारे निर्णय लेने का अधिकार थानेदार का होता जो प्रायः थाने पर कम ही रहता है, कारण कि उसके जिम्में बहुतेरे काम होते हैं। कानून-व्यवस्था, वीआईपी सुरक्षा, कोर्ट में पेशी आदि। थानेदार की प्रतीक्षा में फरियादी सुबह से शाम तक बैठा रह सकता है या कहीं आस-पास इंतेज़ार कर सकता है। इस बीच वह पता लगाता है कि आजकल किस दलाल की चल रही है। दलाल तक पहुँच हुई तो ठीक नहीं तो पहरा ही हड़का के टरका देता है, कि बड़े साहब राउण्ड पर गए हैं। आश्चर्य न करें, सच बता रहा हूँ। यह 2020 की तस्वीर है। आप पढ़े-लिखे लोगों को नहीं लगता होगा लेकिन कभी अतिदीन वेश-भूषा में थाने में जाकर देखिये
पुलिस प्रशिक्षण कॉलेज में संभवतः यही शिक्षा दी जाती है कि जो शिकायत लेकर आये, उसे फ़र्ज़ी मानों। फिर उससे इतने सवाल करो कि वह ख़ुद को ही अपराधी समझने लगे और डर कर भाग जाय। अगर इतने पर भी अड़ा रहे तो मातृभाषा में जितने सुभाषित आते हों उससे सत्कार करके भगा दो कि एक क्षण और रुका तो हवालात में डाल दिया जाएगा। सैकडों वर्ष की ग़ुलामी झेल चुका जनमानस घबरा जाता है।
उपर्युक्त परिस्थितियों के आलोक में आप एक निर्बल और समाज के सबसे निचले पायदान पर स्थिति किसी व्यक्ति की कल्पना करिए। हाथरस में जिस लड़की के साथ जघन्य अपराध हुए उसमें पुलिस की भूमिका फिर से प्रश्नों के घेरे में आ गयी है। मान सकता हूँ कि पुलिस के लिए इस तरह की घटनाएं सामान्य बात हैं लेकिन जिसके साथ यह घटित होती हैं, उनके लिए जीवन मृत्यु का प्रश्न होता है। लड़की के पिता का कहना है कि समय से इलाज होता तो लड़की को बचाया जा सकता था। एक तो वैसे ही कोरोना काल चल रहा है, उस पर भी ऐसे गम्भीर मरीज़ को हाथरस और अलीगढ़ के अस्पताल तक सीमित रखा गया। जब स्थिति एकदम बिगड़ गयी तब दिल्ली भेजा गया। 29 को लड़की की मृत्यु हो जाती है।
14 सितंबर की घटना के बाद जब लड़की होश में आती है तब उसके बयान लिए जाते हैं। पहली बार मे छेड़खानी की बात सामने आती, दूसरी बार सामूहिक बलात्कार की बात उसमें जुड़ती है और अंत में मृत्यु। इसी क्रम में धाराएँ बदलती जाती हैं। चार आरोपियों को हिरासत में जेल भेजा जा चुका है। पोस्टमॉर्टेम रिपोर्ट की प्रतीक्षा है।
क्या जब भुक्तभोगी को अस्पताल में भर्ती किया गया था तो उसका मेडिकल परीक्षण हुआ था? ज़रूर हुआ होगा। उस समय ही गैंग रेप की पुष्टिं हो जानी चाहिए थी। क्या यहाँ पुलिस ने कुछ छिपाया या घटना में आने वाले मोड़ों का इंतज़ार कर रही थी? वैसे हमारी सारी व्यवस्था ही प्रायः अपारदर्शी है लेकिन पुलिस की प्रणाली बहुत ही अपारदर्शी होती है। अब सूचना प्रौद्योगिकी के कारण थोड़ा बहुत सुधार हो रहा है।
यदि लड़की की मृत्यु न होती तो हो सकता है पूरा प्रकरण दब जाता लेकिन ऐसा हो नहीं सका। पुलिस की इसी लचर कार्यप्रणाली से अपराधियों के हौसले बुलन्द होते हैं। यह तो एक निर्बल व्यक्ति या समुदाय का मामला है। यदि अपराधी असरदार हो तो पुलिस कथक नृत्य करती दिखती है। देश में हाल में हुई दो तथाकथित आत्महत्याएं इसी ओर इशारा कर रही हैं। देखिये क्या होता है?
हाथरस-कन्या, हमें क्षमा कर देना। तुमने लड़की होकर यहाँ जन्म लेने का अपराध किया था यद्यपि इसमें तुम्हारा कोई वश नहीं था।
-अमिताभ त्रिपाठी