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हे राम! माफ कर देना ऐसे नेताओं को, ऐसी जनता को. ये नहीं जानते ये आपके नाम पर क्या पाप कर रहे है?

Special Coverage News
31 Oct 2018 6:03 AM GMT
हे राम! माफ कर देना ऐसे नेताओं को, ऐसी जनता को. ये नहीं जानते ये आपके नाम पर क्या पाप कर रहे है?
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शशि शेखर

मन्दिर के लिए अध्यादेश की मांग करने वाले हमारे नेता ऊर्फ लॉ मेकर्स हैं या ला ब्रेकर्स. यह सवाल इस उठ रहा. मन्दिर के लिए अध्यादेश ला कर सरकार मन्दिर क्या आसमान में बनाएगी? मन्दिर तो जमीन पर ही बनना है. तो मन्दिर के लिए अध्यादेश से पहले जमीन के अधिग्रहण के लिए अध्यादेश लाना होगा. क्योंकि जमीन सरकार की नहीं है. जमीन के तीन पक्षकार है. जमीन पर विवाद है. सो, सरकार निर्णय आने तक जमीन अधिग्रहण के लिए अध्यादेश भी नहीं ला सकती. फिर मन्दिर के लिए अध्यादेश की मांग करने वाले हमरे मंत्री, मुख्यमंत्री ऊर्फ लॉ मेकर्स ऊर्फ लॉ ब्रेकर्स इतनी समझदारी कहां से लाते है?

जाहिर है, कहीं से तो लाते ही होंगे? मसलन, जो आदमी अपने पद की गोपनीयता की शपथ संविधान के नाम पर नहीं लेता है वो भगवान के नाम पर कहां कोई कानून मानने वाला है. अब कुछ मित्र कहेंगे कि अदालतों में भी तो गीता-कुरान की शपथ दिलाई जाती है. बिल्कुल दिलाई जाती है और पवित्र ग्रंथ की कसमें खा गवह झूठीक गवाही भी देते है. बल्कि मैंने तो कई ऐसे लोगों को देखा भी है जो दीवानी मामलों में बकायदा झूठी गवाही देने का धन्धा भी करते थे. उन्हें कहां भगवान के नाम पर खाई गाई झूठी कसमों की परवाह थी.

ऐसे ही आज के हमारे राजनेता भी है जो ईश्वर या अल्लाह के नाम पर अपने पद की शपथ लेते है और फिर उतनी ही शिद्धत से संविधान को ठेंगे पर रख कर चलते है. ये हालत तब है जब हमारे देश के प्रधानमंत्री बयान देते है कि "संविधान ही हमारा राष्ट्रीय ग्रंथ है." गिरिराज सिंह, विनय कटियार, सुब्रम्णियन स्वामी, योगी आदित्य नाथ जैसे नेता आखिर किस सांविधानिक प्रावधान और ज्ञान के आधार पर कहते हैं कि सरकार मन्दिर बनाने के लिए अध्यादेश लाए.

हमारे मित्र Prabhakar Mishra प्रभाकर मिश्रा, जो खुद एक वकील-पत्रकार है और पिछले 14 सालों से सुप्रीम कोर्ट कवर कर रहे हैं, ने लिखा है कि एक सेकुलर स्टेट धार्मिक कार्य (यथा मंदिर-मस्जिद निर्माण) का काम नहीं कर सकती है और बकायदा इस पर सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग भी है. दूसरा अहम तथ्य ये है कि सुप्रीम कोर्ट सिर्फ इस बात का निर्णय करेगा कि अयोध्या की वह विवादित जमीन किसकी है. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने जमीन के तीन हिस्से कर के तीनों पक्षकार, राम लला के पक्षकार हिन्दू महासभा, सुन्नी वक्फ बोर्ड और निर्मोही अखाडा के बीच बांट दिया था. अब सुप्रीम कोर्ट को तय करना है कि उसे इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला बरकरार रखना है या किसी एक पक्षकार के हिस्से में जमीन का आवंटन करना है.

तो भाई जमीन का फैसल तो हो जाने दो पहले. हिन्दू महासभा और निर्मोही अखाडा को जमीन मिली तो मन्दिर बन जाएगी. मान लीजिए, सुन्नी वक्फ बोर्ड को ही जमीन मिल गई तो एक देश में एक ऐसा माहौल तैयार कीजिए कि सुन्नी वक्फ बोर्ड वह जमीन राम मन्दिर निर्माण के लिए दान कर दे. ये असंभव तो नहीं है. पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर तो इस फॉर्मूले के करीब पहुंच ही गए थे. लेकिन, उन्होंने ये वादा भी किया था कि आगे से देश में किसी अन्य धार्मिक स्थल को न तो विवादित किया जाएगा न ही उस पर हिन्दुओं का दावा होगा और बदले में मस्जिद बनाने के लिए जमीन भी दे दी जाएगी. लेकिन, संविधान की अनदेखी करने वाले हमारे नेता "अयोध्या तो झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है" का नारा देंगे तो फिर क्या कहा जा सकता है.

असल में, ऐसे नेता बहुत ही चतुर हैं. उन्हें मालूम सब कुछ है. उन्हें ये भी मालूम है कि जनता को बरगलाना कैसे है. कैसे मूल सवालों से दूर कर देना है ताकि कोई कामधाम न करना पडे और खाली मन्दिर-मन्दिर चिल्ला कर 5 साल राजभोग करते रहे. दरअसल, इस देश में कक्षा एक से बच्चों को संविधान न सिर्फ पढाने की जरूरत है बल्कि इसे एक अनिवार्य विषय बना कर कम से से कम 60 फीसदी अंक लाने की अनिवार्यता भी बनानी चाहिए. तब कहीं जा कर जनता और भविष्य के नेताओं की समझ शायद ठीक हो.

भाई, जमीन पर सुनवई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बोल तो दिया कि आपके कहने पर हम जल्दी सुनवाई नहीं करेंगे. हमारी अपनी प्राथमिकताएं भी है. पहले उसे निपटाएंगे फिर इस पर बात करेंगे. मतलब, सुप्रीम कोर्ट को अपनी प्राथमिकता पता है, नेताओं को अपनी प्राथमिकता पता है, हम जनता ही है, जिसे न अपनी प्राथमिकता मालूम है न अपमे मसले मालूम है.

हे राम! माफ कर देना ऐसे नेताओं को, ऐसी जनता को. ये नहीं जानते ये आपके नाम पर क्या पाप कर रहे है?

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