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हा ! हिंदी दुर्दशा देखि न जाई....

Arun Mishra
4 Sep 2022 7:22 AM GMT
हा ! हिंदी दुर्दशा देखि न जाई....
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हिंदी के इस अधोगति,महापतन, इस दुरावस्था के कौन कौन से कारण हो सकते हैं?

डॉ राजाराम त्रिपाठी (सामाजिक चिंतक, स्वतन्त्र-स्तंभकार )

सितंबर का महीना हिंदी भाषा के लिए महत्वपूर्ण है, कुछेक यह भी कह सकते हैं कि पूरा महीना क्यों? बस हिंदी-पखवाड़ा के पन्द्रह दिन ही महत्वपूर्ण है। वैसे ज्यादातर तो यही कहेंगे कि अजी छोड़िए भी जहमत 15 दिनों की, सितंबर की केवल 14 तारीख ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह देश इसी दिन हिंदी दिवस मनाने की औपचारिकता निभाता है ।

इस महीने भर हिंदी के सभी शुभचिंतक हिंदी भाषा की दुर्दशा पर

" रोवहु सब मिलि के आवहु भारत भाई;

हा! हा! हिंदी/भारत दुर्दशा न देखी जाई "

के तर्ज पर अनवरत टेसुए बहाएंगे। हिंदी की दशा-दिशा पर रुदालिओं की अश्रु विसर्जन प्रतियोगिताएं होंगी। शानदार हिंदी पखवाड़े मनाएंगे, हिंदी पर सेमिनार, कॉन्फ्रेंस, सम्मेलन होंगे। मंच सजेंगे, फ्लैक्स लगेंगे, शाल, श्रीफल, गुलदस्तों के दनादन लेन-देन होंगे, लंबे-लंबे उबाऊ भाषण होंगे, चाय समोसे मिठाई से गम ग़लत करेंगे। कुछ अति आशावादी वैश्विक हिंदी के लहराते गगनचुंबी परचम के गुणगान करेंगे। विदेशों में कहां-कहां हिंदी पढ़ी और पढ़ाई जा रही है इस पर गाल बजाएंगे। विश्व में चीन की मंदारिन भाषा के बाद दूसरे नंबर की सबसे ज्यादा पड़ी तथा बोली जाने वाली भाषा का दर्जा , हिंदी द्वारा हासिल करने की उपलब्धि पर अपनी पीठ थपथपाऐंगे। ये सभी शूरवीर हिंदी पखवाड़ा तथा यह महीना खत्म होते न होते हिंदी को अगले साल के हिंदी-दिवस, हिंदी-पखवाड़े तक के लिए उसके हाल पर रोता बिलखता छोड़कर, सब अपनी अपनी राह पकड़ेंगे।

आजकल प्राय: कहा जाता है कि हिंदी भाषा का पूरे विश्व में बहुत तेजी से विकास हो रहा है , इसे कई देशों के विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाने लगा है, हिंदी कई देशों में यह बहुसंख्यक प्रवासी भारतीयों की बोले जाने वाली प्रमुख भाषा है वगैरह वगैरह। पर हकीकत यही कि धीरे-धीरे यह भाषा अपने ही देश में सुनिश्चितत मृत्यु की और अग्रसर हो रही है। मुझे ध्यान में आता है कि भारत की आजादी के बाद, शुरुआती तीस- चालीस वर्षों में गणित, विज्ञान, इंजीनियरिंग,चिकित्सा आदि सभी तकनीकी विषयों की शिक्षा, स्कूलों कालेजों में इसकी पढ़ाई विशुद्ध रूप से हिंदी में देने का गंभीर प्रयास किया गया था। बड़ी मेहनत से तकनीकी शब्दों की प्रमाणिक शब्दावलियां बनाईं गई, शब्दकोश बने। हिंदी में इन तकनीकी विषयों की उच्च पढ़ाई हेतु पाठ्यक्रम तथा पुस्तकें तैयार की गई। इन तकनीकी विषयों को छात्र धीरे धीरे अपनी भाषा हिंदी में पढ़ने भी लगे थे। तकनीकी विषयों को हिंदी भाषा में पढ़कर प्रतियोगी परीक्षाओं में भी प्रतिभागियों ने सर्वोच्च स्थान भी प्राप्त किया। हिंदी सही मायने में राष्ट्रभाषा बनने की ओर अग्रसर थी, पर जाने क्या हुआ कि बड़े रहस्यमई तरीके से धीरे-धीरे पहिया उलटी दिशा में घूमने लगा। धीरे धीरे तकनीकी विषयों की हिंदी पाठ्यक्रम तैयार करने वाली वह कमेटियां विलुप्त होने लगीं। हिंदी के तकनीकी विषयों के पाठ्यक्रम भी विश्वविद्यालयों से गायब होने लगे, और आज इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर ये लगभग पूरी तरह से समाप्त हो गए। किसी समय बड़ी ही मेहनत तथा लगन से हिंदी भाषा में तैयार की गई चिकित्सा विज्ञान , अभियांत्रिकी , भौतिक विज्ञान, रसायन गणित, जीव विज्ञान,पादप प्रौद्योगिकी तथा अन्य तकनीकी विषयों के स्नातक तथा स्नातकोत्तर एवं शोध हेतु पुस्तकें या तो विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में घुन खा रही हैं या फिर कभी कभार सड़क किनारे पटरी की रद्दी की दुकानों में दिखाई दे सकती हैं। यह सवाल हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या आजादी के बाद सचमुच हम ने हिंदी के विकास के लिए ईमानदारी से कुछ किया भी है ?

हिंदी के इस अधोगति,महापतन, इस दुरावस्था के कौन कौन से कारण हो सकते हैं? हिंदी पखवाड़े के पन्द्रह दिन तक सारे हिंदी विशेषज्ञ, भाषाविद, साहित्यकार इसी महत्वपूर्ण बिंदु पर ही तो अपना और श्रोताओं का माथा फोड़ते रहते हैं, पर ना सही कारण ढूंढ पाए ना उसका सटीक निदान।

मेरा मानना है की आजादी के बाद हिंदी के राजभाषा के रूप में जरूरी विकास हेतु पर्याप्त दृढ राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी तथा सहज मार्ग के अनुसरण की सहज प्रवृत्ति को भी इसका प्रमुख कारण कहा जा सकता है। जब अंग्रेज यह देश छोड़ रहे थे तो शासन की सर्वमान्य भाषा अंग्रेजी थी, और जहां जो जैसा चल रहा है,उसे वैसे ही चलने देना उस समय सबसे सहज सरल मार्ग था, जिसका अनुसरण किया गया।

70 के दशक के बाद धीरे धीरे पूरे देश में बेहतर और रोजगारमूलक शिक्षा के नाम पर कुकरमुत्ते की तरह उग आए पब्लिक स्कूलों, कालेजों को भी अंग्रेजी को हिंदी पर निर्णायक बढ़त दिलवाने का बड़ा श्रेय जाता है। अब छत्तीसगढ़ प्रदेश में इंटर तक के सभी स्कूलों को आत्मानंद स्कूल के नाम पर अंग्रेजी मीडियम किया जा रहा है। जिसका जनता के द्वारा स्वागत भी किया जा रहा है। हाल में यह खबर आई कि अब इस प्रदेश में अंग्रेजी स्कूलों की तर्ज पर ही पूरी तरह से अंग्रेजी मीडियम वाले शासकीय कालेज भी खोले जाएंगे। इस खबर का भी जनता में व्यापक स्वागत हुआ । स्वागत हो भी क्यों ना? अंग्रेजी आज रोजी-रोटी और रोजगार की भाषा बन गई है। चाहे सामान्य अथवा सर्वोच्च प्रतियोगी परीक्षाएं हो अथवा व्यवसायिक प्रतिष्ठानों की नौकरियां हो, यहां तक की होटल की बैरे‌ तक की नौकरी में अंग्रेजी जानने वालों के लिए रोजगार का हर ताला आसानी से खुल जाता है, और हिंदी वाले बेचारे दरवाजे पर सिर पीटते रह जाते हैं। देश में रोजगार की भाषा अंग्रेजी, कारोबार व्यापार की भाषा अंग्रेजी, शिक्षा की भाषा अंग्रेजी, प्रशासनिक भाषा अंग्रेजी, न्यायालय की भाषा अंग्रेजी है, तो फिर ये हिन्दी काहे की राजभाषा है भाई ? दक्षिण के राज्यों सहित देश के कई राज्यों में हिंदीभाषी अभागे को ना कोई राह बताने वाला आदमी मिलता है और ना ही कोई हिंदी का साइन बोर्ड। बताइए भला, क्या ऐसी होती है देश की राजभाषा- राष्ट्र भाषा ? सच कहूं तो हिंदी केवल मूल हिंदी भाषी क्षेत्रों की बोल चाल की भाषा तथा साहित्य और मनोरंजन की भाषा मात्र बनकर रह गई है।

विश्व के सबसे गरीब देशों में शुमार है इथोपिया। लंबे समय से अकाल भुखमरी से पीड़ित यह देश, ज्यादातर अमेरिका, संयुक्त राष्ट्र संघ आदि अंग्रेजी बोलने वाले देशों की सहायता पर निर्भर रहा है। पर भाषा के मामले में पूरी तरह से आत्मनिर्भर और गर्वीले लोगों का देश है यह। मैं यह देखकर हैरान रह गया कि शिक्षा दीक्षा, कंप्यूटर किताबें, कारोबार, रोजगार सब कुछ अपनी प्राचीन भाषा में। हमारे देश के बहुसंख्यक पर्यटक थाईलैंड जाते हैं, वहां से क्या सीख कर आते हैं मुझे नहीं पता किंतु मैं यह निश्चित रूप से कहना चाहूंगा कि,अपनी राष्ट्रभाषा के प्रति उस देश का समर्पण न केवल प्रशंसा योग्य है बल्कि अनुकरणीय भी है। लगभग 15 वर्ष पूर्व जब यूनिकोड नहीं आया था तब भी उनके सारे कंप्यूटर ,लैपटॉप उनकी सारे तकनीकी विषयों की शिक्षा, कारोबार सब कुछ उनकी अपनी भाषा में संचालित होता था। हमारे यहां तब भी हिंदी की स्थिति इसके बिल्कुल उलट थी, और आज की स्थिति में हिंदी के हालात में सुधार की तो छोड़िए , स्थिति बद से और बदतर ही हुई है। अब नई बात, एक सर्वेक्षण कहता है कि देश में पिछले 10 वर्षों में हिंदी साहित्य में पुस्तकों के प्रकाशन की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है, 250 प्रतिशत तक। किंतु अगर गुणात्मक लेखन की बात करें, रचनाओं के स्तर की बात करें तो इस बहु प्रकाशित नव हिंदी साहित्य में घनघोर दारिद्रय छाया हुआ है। यह स्थिति आखिर सुधरे भी तो कैसे सुधरे? ना आलोचना का स्तर रहा न निष्पक्ष आलोचक रहे।

आलोचना में खेमे बाजी,अखाड़ेबाजीऔर चेले तथा पट्ठे पालने की गलत परंपरा ने हिंदी साहित्य को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है। जीवन में मरने के पूर्व स्वांत-सुखाय जैसा कुछ लिख लिखाकर कुछेक पुस्तकें प्रकाशित करवा कर अमर होने की लालसा में दनादन छप रही पुस्तकें हिंदी साहित्य को समृद्ध करने के बजाए उसे बोझिल बना रही हैं। लेखन के पूर्व पर्याप्त पठन-पाठन, स्वाध्याय बेहद जरूरी है, पर यह परंपरा भी अब दम तोड़ रही है। ज़्यादातर साहित्यकार आत्ममुग्ध हैं तथा दूसरे समकालीन देश विदेश के साहित्यकारों की रचनाओं को बहुत कम पढते हैं। हालांकि आज भी कवि सम्मेलन खूब हो रहे हैं, पर अच्छा लिखने वाले कवियों के लिए अब इन मंचों पर जगह नहीं बची है। किसी भी क्षेत्र में अवार्ड,पुरस्कार अच्छी प्रतिभाओं को सामने लाने तथा उन्हें प्रोत्साहित करने में मदद करते हैं, परंतु हिंदी भाषा के क्षेत्र में यह नियम कतई कार्य नहीं करता, बल्कि ये प्रतिगामी हो चला है। पुरस्कारों के मामले में गजब का भेड़िया धसान मचा है हिंदी साहित्य में। आपको हर कस्बे में आधा दर्जन कालिदास-सम्मान तथा सरस्वती-सम्मान जैसे भारीभरकम सम्मान धारी, स्वनामधन्य वरिष्ठ रचनाकार मिल जाएंगे। शासकीय अकादमी पुरस्कारों की चयन प्रक्रिया, तथा उनमें लाबिंग, सिफारिश,भाई भतीजावाद तथा जुगाड़ की व्यथा कथा के बारे में तो पहले ही इतना कुछ कहा, सुना, लिखा गया है कि, और कुछ भी कहना ही फिजूल है।

इधर कोरोनाकाल में प्राप्त वरदान, ऑनलाइन आयोजनों ने हिंदी साहित्य का मानो एक नया छितिज ही खोल दिया है। गली मोहल्लों कस्बों में अंतरराष्ट्रीय कवि सम्मेलनों की बाढ़ आई हुई है। अब राष्ट्रीय पुरस्कारों की तो छोड़िए सीधे ऑनलाइन अंतरराष्ट्रीय कविरत्न अवार्ड, वैश्विक कवि-गौरव अवार्ड जैसे सैकड़ों वैश्विक आभासी अवार्ड ( डिजिटल) चना-मुर्रा की तरह बंट रहे हैं। अहा ! अखिल विश्व में लहरा रही हिंदी की इसी आभासी पताका को देखने के लिए ही तो भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी, प्रसाद जी, महावीर प्रसाद द्विवेदी जी, हजारी प्रसाद द्विवेदी जी, रामचंद्र शुक्ल जी, प्रेमचंद जी आदि हिंदी सेवियों ने अनथक तपस्या की थी। गुड मॉर्निंग, गुड इवनिंग, सॉरी, थैंकयू, या या, ओके के बीच धीरे-धीरे हिंदी अपने आधार से ही कटते जा रही है, विशेष कर शहरों में। हर आने वाली पीढ़ी पिछली पीढ़ी से ज्यादा अंग्रेजी परस्त होते जा रही है। हम शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर छुपाकर अंग्रेजी के तूफान के गुजर जाने का इंतजार कर रहे हैं, जो कि कभी नहीं होने वाला। देश और राष्ट्र तथा देश की बोली और राजभाषा के बीच के अंतर को इन बेईमान, भ्रष्टाचार में लिप्त मूढ़ राजनेताओं को समझना होगा, या फिर साहित्यकारों को उन्हें किसी न किसी तरह समझाना होगा। हिंदी को रोजी-रोटी रोजगार की भाषा बनाने के लिए एक बार फिर से दृढ़ संकल्प व इच्छाशक्ति के साथ ठोस जमीनी पहल करना‌ होगा। और यह असंभव भी नहीं है। चीन समेत ऐसे दर्जनों देशों के सफल उदाहरण हमारे सामने हैं। इसके लिए अपने देश, बोली, भाषा से सच्चा और गहरा प्यार होना बेहद जरूरी है।

अब बात बात पर हिंदी की सौतन कहीं जाने वाली अंग्रेजी की बात करें। एक छोटे से टापू पर अंग्रेजों द्वारा बोली जाने वाली भाषा अंग्रेजी, बीती शताब्दियों में अंग्रेजों के औपनिवेशवाद के पूरे विश्व पर फहराते परचम के साथ ही अंग्रेज हुक्मरानों की भाषा अंग्रेजी उनके उपनिवेशों की स्वाभाविक प्रमुख संपर्क तथा शासन की भाषा बन गई। भारत में मुगल सल्तनत के पतन के साथ ही अरबी फारसी उर्दू हाशिए पर धकेल दी गई , संस्कृत तथा क्षेत्रीय बोली भाषाएं तो पहले से ही कूड़ेदान में पड़ी सिसक रही थीं। नये शासक अंग्रेजों के अंग्रेजी स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ कर एक नई बाबू जमात तैयार हुई जिसने देश के विदेशी शासक वर्ग को देश का राज पाट चलाने में विश्वसनीय सहयोगी की भूमिका बखूबी निभाई।

अब भारत के अंग्रेजी शासन में पूरे देश में सूचनाओं के संग्रहण विश्लेषण, निरीक्षण परीक्षण, नियंत्रण तथा शासन के विभिन्न अंगों विभागों में परस्पर परिसंवाद की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी थी। अंग्रेजी हुकूमत के अधीन रियासतें भी अपने इष्टप्रभु को रिझाने के दृष्टिकोण से अंग्रेजी तौर तरीके, खानपान डाइनिंग टेबल शिष्टाचार, सूट-बूट ,टाई हैट के साथ ही नफीस अंग्रेजी सीखने बोलने मेंअपनी शान समझने लगे। अब भारत के रियासतों के राजकुमार विदेशी अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने भेजे जाते थे, और वहां से सिर्फ डिग्रियां नहीं लेकर आते थे बल्कि वे यथाशक्ति यथासंभव अंग्रेज बन कर आते थे। अंग्रेजी रहन सहन, फैशन के साथ ही अंग्रेजी गालियों को भी नव शिक्षित भारतीय समाज ने खुले मन से से स्वीकार तथा अंगीकार किया। यह कहना ज्यादा उचित होगा कि भारत की भीषण गर्मी में भी सूट-बूट हैट-टाई डाट कर चलने वाला यह काला अंग्रेज अंग्रेजी में गाली देने के मामले में अंग्रेजों के कान कतरने लगा है। अंग्रेजी की पालकी ढोने वाला यह भ्रमित अभिजात्य वर्ग आज भी सरकार की लगभग हर ऊंची कुर्सी पर विराजमान है, और हिंदी भाषियों को हिकारत की नजर से देखता है।

अगर पीछे मुड़कर देखें तो विश्व रविंद्र नाथ टैगोर की बांग्ला कविताएं भी नोबेल पुरस्कार (1913) के नजर में तभी आई जब वह अंग्रेजी में जब उनका अंग्रेजी में अनुवाद हुआ।इधर हाल में हिंदी की लेखिका गीतांजलि श्री को प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार ( 2022) तभी मिला जब उनकी किताब " रेत समाधि " , डेसी राकवेल की कृपा से अनुदित होकर, या यूं कहें कि केंचुली कबदलकर " टॉम ऑफ सैंड " के नये अवतार में अंग्रेजीदां पाठकों के सामने परोसी गई।

यह सवाल अब हमें अपने आप से अवश्य पूछना चाहिए कि, इन 110 सालों में देश में भाषा के क्षेत्र व प्रभाव में आखिर बदला क्या है ? कम से कम अगले चौदह सितंबर के पहले हमें ऐसे कुछ तोता-मैनी सवाल-जवाब ढूंढ रख लेना चाहिए, क्योंकि हमें हिंदी दिवस , हिंदी पखवाड़ा धूमधाम से मनाने की औपचारिकता फिर से निभानी है। और नए सवाल और उनके जवाब अगर नहीं की मिलते तो भी कोई खास फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि वैसे भी पिष्ट पेषण हिंदी साहित्य का एक लोकप्रिय सहज पथ, पथ्य तथा पाथेय बन ही चुका है। और हिंदी की दशा तथा दिशा को लेकर पुराने सारे सवाल यक्ष प्रश्नों की तरह आज भी लाजवाब खड़े ही हैं, उन्हीं से काम चला लिया जाएगा।

Arun Mishra

Arun Mishra

Sub-Editor of Special Coverage News

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