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- हर किसी को पीड़ित करार...
हर किसी को पीड़ित करार देना भी उसके खिलाफ हो जाना है!
बदतर से बदतर जिंदगी से भी छोटी-छोटी खुशियां या बेहतर की उम्मीद चिपकी रहती है. शायद यही वजह होती है कि उपरी तौर पर जिन्हें हम फटेहाल, बेजान और जर्जर देखते हैं, जब उनकी जिंदगी में झांकने की कोशिश करते हैं तो कई बार उस चमक से हम अवगत हो पाते हैं. रिक्शेवाले की बेटी ने किया सीबीएससीई में टॉप, कबाड़ी वाले लड़के का बाबू बनने का सपना हुआ पूरा. एक हाथ गंवा चुकी छात्रा ने किस्मत को किया परास्त जैसी हेडलाइन के साथ खबरें इन्हीं उम्मीद के बचे रहने के बीच से निकलकर आती हैं.
लेकिन कई बार हम सरोकार के नाम पर जब ऐसी जिंदगियों के बारे में बात करते हैं, उन पर लिखते हैं, रिपोर्टिंग करते हैं तो उनसे चिपकी खुशियों और उम्मीदों को न केवल नजरअंदाज कर जाते हैं बल्कि हमारी कोशिश होती है कि जमाने के आगे उन्हें पीड़ित( विक्टम ) के रूप में पेश करें. पीड़ित के तौर पर ऐसी जिंदगियों को स्थापित करने का फॉर्मूला इतना पॉपुलर और असरदार है कि इन जिंदगियों की पेंचीदगी, उनके रोज के संघर्ष करते हुए भी जीवन के प्रति गहरी आस्था हमारी कीबोर्ड से ओझल हो जाते हैं. हम उन्हें पीड़ित बताने में इतने रम जाते हैं कि इस बुनियादी सच से काफी दूर हो जाते हैं कि ऐसा करने से पहले हमें खुद से भी पूछना चाहिए था कि सिर्फ वो पीड़ित है या हम सरोकार की बात करते-करते पीड़ित सिन्ड्रोम के शिकार होते चले गए हैं ?
एक लेखक का, पत्रकार का, कलाकार का, रचनाशील इंसान की यह जरूरी जिम्मेदारी है कि वह अभावग्रस्त समाज के साथ खड़ा हो, संघर्ष कर रहे लोगों के पक्ष में हो लेकिन उसके साथ-साथ उतना ही जरूरी है कि उनके संघर्ष को, उनकी छोटी-छोटी खुशियों को, उनकी उम्मीदों को उनके बारे में बात करते हुए उनकी जिंदगी से अलग न कर दे.
आप प्रेमचंद को पढ़िए, रेणु को पढ़िए, नागार्जुन को पढ़िए, मुक्तिबोध, राही मासूम रजा को पढ़िए...पढ़ते चले जाइए. अलग-अलग कहन शैली और समझ के बावजूद आप इन सबमें एक चीज कॉमन पाएंगे और वो यह कि ये गरीब, मजदूर, किसान, हाशिए के समाज के संघर्षों और पीड़ा को जितनी बारीकी से संवदेना के गहरे धरातल पर जाकर व्यक्त करते हैं, उतनी ही शिद्दत से उनके बीच की उत्सवधर्मिता, जीवटता और जीवन के प्रति गहरी आस्था को सहेजते हैं. उनके बड़ा लेखक होने की वजह सिर्फ संघर्षों और अभाव का बयान नहीं, छोटी-छोटी खुशियों के सहेजने और व्यक्त करने का हुनर है. आप इनकी रचनाओं के सबसे जर्जर चरित्र को सबसे उद्दात, मजबूत और मानवीय भी इसी आधार पर महसूस कर पाते हैं.
जब हम ऐसे अभावग्रस्त लेकिन संघर्षशील समाज और व्यक्ति को हर हाल में पीड़ित के तौर पर स्थापित करने लग जाते हैं तो जाने-अनजाने उनके भीतर के उस नमक को नजरअंदाज कर देते हैं जिनके बूते उनकी जिंदगी चल रही होती है. ऐसा किया जाना लिखते-पढ़ते हुए भी उनके खिलाफ हो जाना है. हमारे भीतर इस विवेक का विकसित होना और बने रहना बेहद जरूरी है कि कहां हम उनके संघर्ष और जीवटता पर बात करते हुए नमक पैदा कर रहे हैं, उसके आत्मसम्मान को सहेज रहे हैं और कहां उन्हें पीड़ित करार देकर अपना कद बड़ा करने की कोशिश में लगे हैं.
नवीन कुमार, आजतक की दिल्ली की ठंड