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ब्रह्मराक्षस का पाठ: संदर्भ गुरु पूर्णिमा
पता चला आज गुरु पूर्णिमा है, तो ऐतिहासिक दायित्व जैसा आन पड़ा लिखने का। असल में हम सावन खोज रहे थे कैलेंडर में कि कब लगेगा, तभी आज की पूर्णिमा का ज्ञान हुआ। कल से सावन लगेगा। अब समस्या ये है कि गुरुओं के बारे में अच्छा क्या ही लिखा जाए! पीढ़ियाँ चौपट हो गयीं इनके चक्कर में। तिस पर आपके माता या पिता में से कोई शिक्षक हो तो एक पर एक फ्री का दर्द खुद समझ में आता है। स्वानुभूत मसला है ये। जिंदगी खराब हो जाती है घर में अपनी स्पेस खोजने में। फिर भी, किस्से बहुत बचे हैं अपने पास अब भी, गुरुओं से खीझ चाहे अनंत हो।
तो गोया एक मास्टर थे अपने फिजिक्स के। बीएचयू में। थर्मोडायनमिक्स पढ़ाते थे। भारी विद्वान, छोटा शरीर। बंगाली अलग से। आते और लिखना शुरू कर देते। लिखने के साथ बोलते जाते। बोलने के साथ लिखते जाते। एकदम सिंक्रोनिक। उन्हें हम लोग आदर्श Carnot Engine बोलते थे। पता नहीं उनसे अचानक क्यों और कैसी चटान हुई, कि हम लोग उन्हें चॉक मारने लगे। ये परिघटना अकारण ही थी, ऐसा लगता है। वे जैसे लिखने को पीछे मुड़ें, हम लोग चॉक की बरसात शुरू कर दें। अद्भुत आदमी था, पट्ठे पर कोई असर ही नहीं पड़ा। महीनों चॉक के हमले चुपचाप झेलता रहा। पलट के चूं तक नहीं किया। साल बीता, परीक्षा आयी, अटेंडेंस बनवाने हम लोग उसके चैम्बर में गये।
जिसको ईसाइयत में Reckoning का दिन कहते हैं, कुछ-कुछ वैसा वहां हुआ। पहले तो प्रोफेसर ने प्यार से बैठने को कहा। फिर रजिस्टर खोला। सारी हाज़िरी पक्की लगी हुई थी, देख के दिल खुश हुआ। एक झटके में उसने बड़े प्यार से खुले हुए महीने की हाजिरी को कलम से पूरा काट दिया। अरे?? सर? ये क्या? मेज़ के उस पार से आवाज़ आयी- "जितना चॉक मारा है तुम लोग साल भर, ये उससे कम ही है। और काटूँ?" वज्रपात हो गया था। कोई इतना कमीना कैसे हो सकता है? कल्पनातीत था ये। किसी तरह कांखते हुए हम लोग चैम्बर से बाहर निकले। नहीं जानते थे कि अभी तो नरक कुंड बाकी ही था। हफ्ते भर बाद प्रैक्टिकल में भी एग्जामिनर बंगलिया मिल गया। आंख नचा-नचा के देखे बार-बार। बाप, दादा, भाई, सबका बदला ले लिया एक झटके में।
पता नहीं कैसे याद आ गयी आज उसकी। बहरहाल, कहानी की नैतिक शिक्षा ये है कि टीचरों को कभी भी पिड़काना नहीं चाहिए। शिक्षक-शिष्य का संबंध अनिवार्यतः पावर रिलेशन यानी सत्ता-संबंध है। सत्ता आपको सही समय आने पर निपटाती ही है, माफ नहीं करती। इसका एक्सटेंडेड ज्ञान ये है कि माता-पिता अगर शिक्षक हों, तो आप सत्ता की दो सतहों के नीचे दबे हैं, ये बात हमेशा याद रखिए। डबल सत्ता जब काटेगी तो पानी देने वाला कोई नहीं मिलेगा। इसलिए जहां हैं जैसे हैं संतुष्ट रहिए। अपने गुरु खुद बनिए क्योंकि घर से लेकर विद्यालय तक सारे गुरु बुनियादी रूप से उत्पीड़क हैं। खुद मां-बाप या गुरु बन जाएं तब भी अपने बुरे दिन और बुरे गुरुओं को ज़रूर याद रखिए ताकि कम से कम आप अपने बच्चों और शिष्यों को मुक्त रख सकें। शिष्य की मुक्ति में ही गुरु की मुक्ति निहित है। यही ब्रह्मराक्षस का असल पाठ है।