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इतिहास की खूंटी पर चमगादड़ की तरह लटकने वाली कौम का पतन कोई नहीं रोक सकता

Shiv Kumar Mishra
9 Jun 2022 7:03 AM GMT
इतिहास की खूंटी पर चमगादड़ की तरह लटकने वाली कौम का पतन कोई नहीं रोक सकता
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इतिहास की खूंटी पर चमगादड़ की तरह लटकने वाली कौम का पतन कोई नहीं रोक सकता. तीन उदाहरण दे रहा हूं जिससे आप समझ सकते हैं कि हिंदू-मुसलमान (व्यक्ति नहीं समूह के तौर पर) किस तरह अतीत के कुएं में रहने वाले मेंढक बनकर रह गए हैं.

मानव सभ्यता के विकास में खासतौर से आधुनिक सभ्यता – जिसने 18-19-20 शताब्दी में आकार लिया – के विकास में इनका योगदान शून्य के बराबर है फिर भी दोनों समुदाय निर्लज्ज तरीके से अपने जाहिलपन को महान बताकर उसका प्रदर्शन करते रहते हैं.

1. भारत (दक्षिण एशिया) का हिंदू 2002 में भी उस स्वर्णकाल में जी रहा है जब हिंदुस्तान सोने की चिड़िया हुआ था. हर तरफ दूध-दही-घी की नदियां बहती थीं. प्लास्टिक सर्जरी तक की सुविधा उपबल्ध थी. बुढ़ापे को यानि क्रमिक मौत को मात देने वाली दवाएं च्यवन ऋषि ने खोज निकाली थी. सुदुर दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों तक रामराज लहलहा रहा था.

2. इसी तरह मुसलमान सिर्फ भारत का नहीं बल्कि दुनिया भर का) उस सुनहरे अतीत में जी रहा है जहां आटोमन साम्राज्य था. मुगलों की ताकत के आगे दुनिया सर झुकाती थी. जब ग्लोब के आधे हिस्से पर इनका कब्जा था. इतिहास का वो हैंगओवर अभी तक उतरा नहीं जबकि दुनिया करीब 500 साल आगे बढ़ चुकी है.

इन 500 सालों में भी बदलाव की जो गति/दर मानव सभ्यता ने पिछले 50 सालों में देखी है—वह 450 सालों पर भारी है. पढ़ाई, दवाई के लिए पैसे नहीं लेकिन मुगलिया सल्तनत का सपना अभी तक गया नहीं.

इन दोनों घटनाओं के बरक्स एक तीसरा उदाहरण देखिए.

3. यूरोपीय यूनियन ने तय किया है कि अब पूरे यूरोप में अब एक ही तरह का चार्जर चलेगा. एपल कंपनी को भी सी टाइप का चार्जर बनाने के लिए कह दिया गया है. फोन, लैपटॉप, कैमरा सब कुछ एक ही चार्जर से जार्ज किया जा सकेगा. सोचिए इससे वहां के आम लोगों की जिंदगी कितनी आसान हो जाएगी. कितना बड़ा बदलाव होने वाला है.

जब यूरोपीय देश इसे लागू कर चुक होंगे तब कुछ साल बाद अरब के शेख अपने लिए, अपने परिजनों और क्रोनीज के लिए इस सुविधा को पेट्रो डॉलर में खरीदकर लाएंगे.

भारत पहुंचने तक तो दस-बीस साल लगेगा. सुविधा पहुंचेगी भी तो पहले संघ के नेता बीएल संतोष जैसे लोगों के पास जो खुद तो डेढ़ लाख का चश्मा पहनते हैं लेकिन गरीबों को सादगी का पाठ पढ़ाते हैं. मुल्ला-मौलवियों के पास भी आम मुसलमानों के पहले पहले यह सुविधा पहुंचेगी. तब तक आम जनता (हिंदू-मुसलमान दोनों ) ज्ञानवापी, मथुरा, प्रोफेट का अपमान जैसे फर्जी मुद्दों के लिए एक दूसरे का सर काटती रहेगी.

अमानवीय जिंदगी जीने के लिए मजबूर भारत के हिंदू और मुसलमान दोनों तय कर लें कि भविष्य का क्या करना है? क्या उनकी तरह जीना है जो मरे हुए इतिहास की खूंटियों पर चमगादड़ की तरह लटके रहते हैं या फिर जो भविष्य का सपना देखते हैं?

विश्व दीपक वरिष्ठ पत्रकार

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