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पटना की बाढ़ : 1975

Desk Editor
27 Sep 2021 1:58 PM GMT
पटना की बाढ़ : 1975
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पंद्रह से बीस दिन लगा था पानी के पूरी तरह से निकलने में। उसी पानी में बर्तन धोना, कपडे धोना वगैरह चलता था। जब जमीन पर पैर पड़ने लगे तब नये सिरे से साफ़-सफाई का अभियान चला। तब साबुन का भी उपयोग हुआ

अम्बिका सिंह, बिहार विद्यापीठ परिसर, पटना से दिनेश मिश्रा की बातचीत के कुछ अंश-

हम लोगों के यहाँ सदाकत आश्रम, बिहार विद्यापीठ में पानी पीछे से पाटलिपुत्र कॉलोनी की तरफ से पेड़ों को पार करता हुआ आया और एकबैक कमर भर से ऊपर पहुँच गया। दोपहर हो रही थी। उस समय जो बिहार रिलीफ समिति की बिल्डिंग थी, उसी की छत पर सब लोग गये। कुछ लोग ब्रज किशोर मेमोरियल संस्थान की छत पर गये। पानी पाँच फुट से कम नहीं था, ज्यादा ही रहा होगा। घर का तो कोई सामान नहीं बचा। मेरे पास 40 मन चावल था जिसमें से कुछ हमारे तैराक लोगों ने निकाला। जो ठीक था उसका उपयोग रिलीफ कमिटी और ब्रज किशोर मेमोरियल की छत पर खाना बनाने में किया गया सो उसे वहीं भेज दिया गया। सभी लोग एक साथ बैठ कर खाते थे।

सरकार की तरफ से बाद में रिलीफ आयी और ऊपर हेलीकाप्टर से भी सामान मिल जाता था और कुछ मदद खुरजी हॉस्पिटल की तरफ से भी मेरे पतिदेव श्री राम प्रकाश जी को मिलती थी जो उसे पाटलिपुत्र कॉलोनी, कुर्जी टोला, कुर्जी गोसाईं टोला, मैनपुरा और दानापुर आदि इलाकों में पहुँचा दिया करते थे। हम लोगों के पास नावें नहीं थीं और केले के खम्भे काट कर या बाँस की चचरी बना कर उसे जोड़ कर जुगाड़ बना लेते थे। जिनको तैरना आता था वह थोडा बहुत सामान ले कर दूसरों को देने के लिये निकल जाते थे। अगल-बगल के लोग भी जिनका ठिकाना नहीं था वह लोग भी रहने के लिये यहाँ आ गये थे। उस समय इस परिसर में दो सौ परिवार रहे होंगें और इतने ही बाहर वाले आये होंगें।

राजेन्द्र बाबू (भूतपूर्व राष्ट्रपति) का जो स्मारक का सामान था वह तो सब बह गया। जितना हमलोग निकाल कर बचा सकते थे, सुरक्षित निकाल लिया। बाद में बिहार सरकार ने मदद की तो उसकी पुनर्स्थापना की गयी। उनकी खाट और बिस्तर को जहाँ नर्स लोग रहती थीं वह भवन दुमंजिला था, वहाँ पहुँचा दिया गया। उनका रहने वाला घर पहले वाला ही है। वह राष्ट्रीय धरोहर है और सभी को इस बात का अहसास था कि इसे किसी भी कीमत पर बचाना है। बिजली तो नहीं थी मगर हम लोगों के पास मिटटी का तेल था, लालटेन थी, टॉर्च थी, दिया सलाई थी इसलिये कोई परेशानी नहीं हुई। जो पानी में चला गया था उसे निकाल कर हम लोगों ने सुखाया और जिसके पास नहीं था उसे दिया गया। टट्टी-पेशाब सब पानी में ही होता था। दूसरा कोई उपाय भी नहीं था।

पंद्रह से बीस दिन लगा था पानी के पूरी तरह से निकलने में। उसी पानी में बर्तन धोना, कपडे धोना वगैरह चलता था। जब जमीन पर पैर पड़ने लगे तब नये सिरे से साफ़-सफाई का अभियान चला। तब साबुन का भी उपयोग हुआ। फर्श पर मिट्टी की मोटी पर्त जमा हो गयी थी। सब लोगों ने मिल कर मिट्टी साफ़ करने का काम श्रमदान से किया। महामारी कोई नहीं फैली क्योंकि बहुत छिड़काव किया गया था। कुर्जी अस्पताल ने बहुत दवा दी थी छिडकाव के लिये और यह भी कहा था कि जब भी कोई छत से उतरे तो एक मुट्ठी ब्लीचिंग पाउडर ले कर उतरे और पानी है तो पानी में या मिटटी में दाल दे। कुर्जी अस्पताल ने अपने यहाँ से सारे मरीजों को घर भेज दिया था और केवल उन्हीं को अपने यहाँ रखा जो मजबूर थे। वह सोचते थे कि बाढ़ की वजह से अगर ज्यादा मरीज़ आ गये तो उनका इलाज करने में सहूलियत होगी।

स्कूल-कॉलेज भी करीब 15-20 दिन बन्द रहे होंगें। बाढ़ आने पर शिक्षकों को छुट्टी दे दी गयी थी कि वह जा कर पहले अपना घर-बार सम्हालें और तब स्कूल आयें। मैं खुद राजकीय कन्या उच्च विद्यालय, बोरिंग रोड में शिक्षिका थी। वहाँ पानी उतरने के बाद भी कुछ समय तक पढ़ाई बाधित रही थी।

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