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धर्म की छीछालेदर राजनीति

Desk Editor
25 Sep 2021 9:11 AM GMT
धर्म की छीछालेदर राजनीति
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धर्म से "प्यार" करने वालों को इँग्लिश के कवि जॉन कीट्स के इस कथन से नसीहत लेनी चाहिए− "प्यार मेरा धर्म है, जिसके लिए मैं अपनी जान भी दे सकता हूँ।" कार्ल मार्क्स ने कहा है− "धर्म उत्पीड़ित प्राणी की आह है, एक हृदयहीन संसार का हृदय है।" लेकिन, मार्क्स ने यह भी कहा है− "धर्म के अन्त का अर्थ है मनुष्य के दुखों का अन्त।" एक विद्वान कहते हैं− "जनता के दिमाग़ से धर्म को मिटाने के लिए ज़रूरी है कि जनता को जनसंघर्षों के लिए तैयार किया जाए। जनता खुद धर्म की जड़ें खोदना सीखे। संगठित हो और सचेत रूप में पूँजी के शासन के तमाम रूपों से लड़ना सीखे। जब तक वह ऐसा नहीं करती, तब तक जनता के मन से धर्म को मिटाना संभव नहीं है।"

धर्म की छीछालेदर पर ओशाे के विचार ये हैं− "...धर्म को कौन मारता है ? नास्तिक तो नहीं ही मार सकते। नास्तिक की क्या बिसात ! लेकिन, झूठे आस्तिक धर्म को मार डालते हैं। और, झूठे आस्तिकों से पृथ्वी भरी है। झूठे धार्मिक धर्म को मार डालते हैं। और, झूठे धार्मिकों का बड़ा बोलबाला है। मंदिर उनके, मस्जिद उनके, गिरजे उनके, गुरुद्वारे उनके। झूठे धार्मिक की बड़ी सत्ता है ! राजनीति पर बल उसका, पद उसका, प्रतिष्ठा उसकी, सम्मान और सत्कार उसका ! हिन्दू धर्म ने हिन्दुओं को मार डाला है। मुस्लिम धर्म ने मुसलमानों को मार डाला है। जैन धर्म ने जैनों को' मार डाला है। बौद्ध धर्म ने बौद्धों को मार डाला है। ईसाई धर्म ने ईसाइयों को मार डाला है। यह पृथ्वी मरे हुए लोगों से भरी है। इसमें मुरदों के अलग-अलग मरघट हैं ! कोई हिन्दुओं का, कोई मुसलमानों का और कोई जैनों का... ! तुम 'सोचते हो अधार्मिक लोग धर्म को मारते हैं, तो ग़लत। अधार्मिक की क्या हैसियत है कि धर्म को मारे। तुमने कभी देखा क्या कि अँधेरे ने आकर दीये को बुझा दिया हो ! अँधेरे की क्या हैसियत कि दीये को बुझाये ! अँधेरा दीये को नहीं बुझा सकता। अँधेरा धोखा भी नहीं दे सकता आलोक होने का। इसलिए, इस बात को बहुत गाँठ में बांध लेना, भूलना ही मत कभी। इस दुनिया में धर्म को ख़तरा अधर्म से नहीं होता, झूठे धर्म से होता है। असली सिक्कों को ख़तरा कंकड़-पत्थरों से नहीं होता, नकली सिक्कों से होता है। नकली सिक्के चूँकि असली सिक्कों जैसे मालूम पड़ते हैं, इसलिए असली सिक्कों को चलन के बाहर कर देते हैं।"

यही हाल ईश्वर का है, जिसकी कल्पना विश्व के लगभग हर धर्म में की गयी है। जिन कुिन्हीं धर्मोे में ईश्वर की कल्पना नहीं है, वहॉं धर्म के प्रणेता को ही ईश्वर-तुल्य या ईश्वर मान लिया गया है। ईश्वर अतिन्द्रिय या इन्द्रियातीत (Imperceptible) है। अर्थात, इन्द्रियग्राह्य नहीं है। वह परोक्ष है यानी ग़ायब है। वह प्रत्यक्ष या हाज़िर नहीं है। वह दृश्य या मंज़र नहीं है। वह अगोचर ( inconspicuous) है यानी उसे हमारी दृष्टि देख नहीं सकती। वह अलक्ष्य है। यहां तक कि उपनिषदों में ईश्वर को अस्पष्ट तक बताया गया है। वह अगम भी है यानी उस तक पहुँचा नहीं जा सकता। एक दार्शनिक ने तो ईश्वर को अर्थशून्य तक बताया है। इतने के बाद भी ईश्वर लोकलुभावनी सत्ता है, अनन्य शक्ति है। ईश्वरवादियों का उसके बिना काम नहीं चलता। धर्म जैसे अर्थहत मूल्य के पालक ईश्वर की उपस्थिति हर जगह होना मानते हैं। लेकिन, ईश्वर के प्रति मनुष्यजाति की इस गहरी आसक्ति का मर्म मेरी समझ से परे है। भले वह स्वार्थवश हो या भयवश। ईश्वर के प्रति आसक्ति प्रेमवश होने का तो कुछ मतलब ही नहीं है। एक ही बात पल्ले पड़ती है कि यह सदियों से चली आ रही एक परम्परा है। मुझे तो कभी−कभी लगता है कि मानव समाज के प्रति संवेदनशून्य हुए बिना ईश्वरवादी नहीं हुआ जा सकता। कहां हो भक्तवत्सल ईश्वर ?

धर्म एवं ईश्वर की तरह ही जाति भी काल्पनिक है। जातियॉं श्रम-विभाजन की देन हैं। जब तक मनुष्य औपचारिक शिक्षा से अछूता था, उसे उसके काम से ही समाज में पहचान मिलती थी। जिस किसी परिवार ने आजीविका के लिए कपड़े धोने का पेशा अपना लिया, उसे धोबी कहा जाने लगा। बाद में चलकर उसकी जाति धोबी हो गयी। इसी तरह जिसने बाल काटने का पेशा अपनाया, वह नाई कहलाने लगा। मनुष्य के पेशे को उसकी जाति मान ली गयी। आगे चलकर कुछ समुदायों ने अपने को ब्राह्मण या ठाकुर की पहचान से ढक लिया। अब तो लगता है कि जाति-विभाजन भारतीय समाज का न मिट पाने वाला कलंक बन गया है। मैं अपने को धर्म से मुक्त एवं जाति से भी मुक्त मानता हूँ, लेकिन मेरे मानने से क्या होता है ? समाज मेरे धार्मिक एवं जातिगत पहचान सँजोये रखना चाहता है। हिन्दू समाज में धार्मिक होने का अर्थ है नाना प्रकार के कर्मकाण्डों एवं वर्जनाओं का असह्य बोझ ढोना। जैसे, धक्षिण की तरफ़ पैर फैला कर मत सोओ। इस दिन यह न करो। उस दिन वह न करो। मैं यह सब कुछ नहीं मानता। बहरहाल, मैं डंके की चोट पर कह सकता हूँ कि मैं धर्मभीरुता से पूरी तरह मुक्त हूँ।

1988 मैं एक स्कूल में अपने बच्चे के केजी में प्रवेश के लिए गया। प्रिेसिपल ने फ़ार्म भरने को कहा। मैंने जाति-धर्म वाले कॉलम नहीं भरे। प्रिंसिपल से कहा− इसे आप अपने हिसाब से भर लीजिएगा। मैं बच्चे को क्लास में छोड़ घर आ गया। मेरा बेटा जब स्कूल से घर आया तो उसने बताया कि मैडम ने मुझसे पूछा था− तुम किस धरम के हो ? तुम्हारी जाति क्या है ? बहरहाल, मेरा बेटा इस बाबत कुछ नहीं बता पाया। एक बार मैं बच्चे को लेने के लिए स्कूल गया तो फ़ार्म निकलवा कर देखा। प्रिंसिपल का नाम सुनीला माथुर था, जिन्होंने धर्म के काँलम में "हिन्दू" एवं जाति के कॉलम में "कायस्थ" भर दिया था। मैंने कायस्थ न होते हुए उसे स्वीकार लिया। बात समाप्त हो गयी। दरअस्ल मेरे पिता ने मेरे स्कूल में एडमिशन के समय मेरे नाम के साथ जातिसूचक शब्द नहीं जोड़ा था। वही काम मैंने किया। अपने बेटे का नाम रखा केवल अमित कुमार।

- विनय श्रीकर

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