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बारिश जंगल और हम...

अरुण दीक्षित
28 July 2021 8:36 AM GMT
बारिश जंगल और हम...
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बारिश का मौसम और जंगल मुझे बहुत अच्छे लगते हैं! बचपन में गांव में बारिश की तैयारियां शुरू होते ही एक अलग तरह की अनुभूति मन में पनपती थी। बारिश, जिसे हमारे गांव में चौमासा कहा जाता है,की अगवानी के लिए तरह तरह की तैयारियां की जाती थीं।कच्ची छतों और दीवारों की लिपाई करते थे। तालाब से लाकर मिट्टी के चबूतरे बनाते थे। ताकि बारिश में मिट्टी की जरूरत पड़े तो गीले खेत न खोदने पढ़ें। पुराने छप्पर हटा कर नए छप्पर छाए जाते थे।घर में जिया(माँ) के चूल्हे के लिए ईंधन की व्यवस्था की जाती थी। क्योंकि उन दिनों बारिश के मौसम में सूखा ईंधन जुटा पाना एक बहुत बड़ी चुनौती होती थी। बारिश में गीली लकड़ी सुलगा पाना अपने आप में युद्ध जीतने जैसा होता था।

इन तैयारियों में चौपाल का वह कोना भी शामिल था जहां हम सब कौड़ी या ताश खेलते थे। कोने की जुगाड़ इसलिए पहले कर लेते थे क्योंकि घर के सब बड़े ज्यादा समय तक चौपाल पर ही रहते थे। बजह!इन दिनों खेतों में कोई काम नही होता है।तब खरीफ की बुआई आषाढ़ में हो गयी तो फिर क्वार - कार्तिक में ही खेती का काम शुरू होता था। इन दिनों में सिर्फ जानवरों के चारे की व्यवस्था करनी होती थी।वाकी पूरे दिन मस्ती!


बारिश में सबसे ज्यादा मजा खेतों में रखवाली करने के लिए बनाई गई झोपड़ियों में आता था।घर से भाग कर खेत पहुंच गए!फिर बारिश की आड़ में दिन भर वहीं डटे रहे।खाने पीने का संकट नही होता था।कोई न कोई जुगाड़ हो ही जाता था।अपने खेत में कुछ न मिले तो किसी और खेत से मांग कर काम चला लेते थे।अगर मांगे नही मिला तो चोरी सबसे आसान उपाय था।

लेकिन मेरी एक बहुत बड़ी समस्या था!वह थी मेरी जिया!मेरी मां!चूंकि मैं दो महीने की उम्र से ही अस्थमा का मरीज था।इसलिए उन्हें लगता था कि अगर मैं बारिश में भीगा तो मैं बीमार पड़ जाऊंगा।इसलिए वह घर से निकलने ही नहीं देती थीं। दसवीं तक यह बंदिश चली!उसके बाद मैं किसी न किसी बहाने घर से भाग जाता था।खेत पर अपना ट्यूबवेल था।वहां एक मकान भी बना हुआ था।वह हमारा स्थायी अड्डा रहता!

बाद में दौर बदला!हम पढ़ाई के लिए कानपुर होते हुए मुम्बई तक पहुंच गए!वहीं नौकरी मिल गयी!नौकरी ले आयी दिल्ली!फिर दिल्ली ने भेज दिया भोपाल! भोपाल की बारिश और उसके आसपास की खूबसूरती से मिलवाया मित्र राजेश जैन ने।उनके साथ पहली यात्रा भोपाल से बुधनी,गड़रिया नाला तक की!वह दिन आज भी याद है!

दिल्ली से जब भोपाल फेंके गए थे तब यह तय हुआ था कि 6 महीने बाद वापस खींच लिया जाएगा।अब एक लाइन में कहें तो-भोपाल दिल्ली पर बहुत भारी पड़ा।दिल्ली ने बहुत कोशिश की लेकिन हमें फिर रोक नही पायी।

साल दर साल भोपाल में जड़ें गहरी होती गयीं।कुछ बर्रुकाट दोस्त बने।उन्होंने अपना भोपाल घुमाया।फिर हम बन गए बर्रु वो!वो रह गए बर्रुकाट! जो लोग भोपाल को नही जानते उन्हें बता दें कि भोपाल में बर्रु की झाड़ी पायी जाती थी।पुराने लोग कहते हैं कि उन्होंने बर्रु काट कर अपने रहने की जगह बनाई थी।इसलिए वे मूलनिवासी-बर्रुकट कहलाये।हमने उनसे कहा कि जो बर्रु आपने काटी वह बोई तो हमने थी।तो हम हुए बर्रुबो!यही नाता है हमारा भोपाल से।

करीब 27 साल से हर बारिश में जंगल,बांध और पहाड़ मेरे प्रिय डेस्टिनेशन हैं।मरहूम ताज भाई, उमरुल्लाह खान और हसीब खान ने इस शौक की नीब को मजबूत किया।नासिर भाई स्थायी साथी रहे।जंगल की नस नस से वाकिफ जनाब सुदेश बाघमारे ने नए नए इलाके घुमाए।

मौका मिला और हम जंगल की ओर भागे।भगवान की कृपा से जंगल में घूमने फिरने के लिए गाड़ी भी बनी रही।एक तो पिछले 21 साल से साथ निभा रही है।घने जंगल,पहाड़,नदी-नाले सब जगह घुमाती है।हरदम तैयार रहती है।

मंगलवार को मौसम बहुत सुहाना था।मुझे जंगल की याद आयी।मैंने अपने भोपाली दोस्तों को उकसाया!ज्यादातर तो डर के मारे तैयार ही नही हुए। और तो और हमेशा साथ जाने वाले हमारे नासिर भाई भी दगा दे गए।उन्होंने बहाना बना दिया कि इंदौर से साले आये हैं।मैं उनकी खिदमत में हूँ।आज साथ नही दे पाऊंगा।मैंने जोर दिया तो बोले कि पंडित वो कहावत सुनी है-सारी खुदाई एक तरफ..

बेगम का भाई एक तरफ! इसके आगे कोई तर्क नही चलता! लेकिन हमारे दोस्त काजी सलाउद्दीन खान साहब ने न केवल हमारा प्रस्ताव स्वीकार किया बल्कि अपने युवा शहजादे काजी जकाउद्दीन खान के साथ कुछ देर में ही मेरे घर आ गए।आपको बता दें कि दोस्तों में जका मियां के नाम से मशहूर जकाउद्दीन बेहतरीन ड्राइवर हैं।अभी कुछ दिन पहले ही उन्होंने हिमाचल के चंबा में हुई रैली फतह की थी।

दूरदर्शन में मुलाजिम हमारे जावेद भाई ने कहा कि वे आधे घण्टे में गाड़ी में टायर डलवा कर आ रहे हैं!लेकिन हम घूमघाम कर शाम को घर वापस आ गए तब तक उनके टायर नहीं चढ़ पाए!ऐसा हो जाता है।जावेद भाई के बहुत किस्से हैं।भोपाली तो यहां तक कहते हैं कि जावेद खां जो कहते हैं उसमें आपको काट छांट खुद ही कर लेनी चाहिए।

खैर मैं अपने दोनों जवान दोस्तों के साथ दोपहर में घर से निकला।40 मिनट में हम कोलार के इलाके में थे। काजी सलाउद्दीन साहब,जिन्हें दोस्त प्यार से सल्लू भाई कहते हैं, ने अपने पुरखों की जागीर का इलाका घुमाया।गाड़ी का स्टेयरिंग संभाल रहे छोटे काजी ने जिस तरह जंगल में हमें घुमाया उससे साफ हो गया कि बेटा बाप से बहुत आगे है।बेटे के हुनर पर सल्लू भाई की खुशी भी साफ देखी जा सकती थी।

सालों से जंगल घूम रहा हूँ।लेकिन सिर्फ एक गाड़ी के साथ , भारी बारिश में सुनसान जंगल में घूमने का यह पहला मौका था।जगहों के नाम नही लिख रहा क्योंकि फिर जाना है।बस इतना जान लीजिए कि हमने जंगल में 6 बार नदी पार की।कुछ जगह पत्थर भी हटाने पड़े! लेकिन हमारे युवा पायलट ने इतनी कुशलता से गाड़ी चलाई कि कहीं भी रुकना नही पड़ा।

सच कहूं तो भोपाल के आसपास के जंगल इतने खूबसूरत हैं कि उम्र की गिनती को भुला देते हैं।उधर सल्लू भाई के पास इस इलाके की इतनी यादें हैं कि कई खंडों की किताब लिखी जा सकती है।उनका हर विवरण पूरे तथ्यों के साथ है।तस्वीर भी और फ़िल्म भी!शानदार यादों का खजाना हैं सल्लू भाई!

एक बात और!पिछले सालों में जंगल बहुत बदल गए हैं।सरकार ने आदिवासियों के लिए बहुत कुछ किया है।पर यजी सवाल कायम है कि उन्हें कितना फायदा मिला। इस पर चर्चा फिर कभी!अभी आप तस्वीरों के जरिये जंगल देखिये।हम अगली यात्रा की तैयारी करते हैं।अगली बार नासिर भाई भी साथ रहेंगे।।

अरुण दीक्षित

अरुण दीक्षित

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