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लोटा ढोती मीडिया का 'रति' रहस्य, पत्रकार साथी जरुर पढ़ें

विजय शंकर पाण्डेय
कई बार लगता है खबरों का भी अपना भाग्य होता होगा. टाइमिंग भी बहुत मायने रखती होगी. शायद खबरों पर भी ये सारे फंडे लागू होते होंगे. अर्थात वक्त से पहले और भाग्य से ज्यादा किसी को 'तवज्जो' नहीं मिलती. मसलन सुशांत प्रकरण. मैंने अब तक किसी फिल्मी कलाकार या किसी की भी खुदकुशी को दो-ढाई महीने तक लगातार नॉन स्टॉप टीवी हेडलाइन्स या सुर्खियां बटोरते नहीं देखा. वह भी तब जब मामला सर्वोच्च जांच एजेंसियों के हाथ में हो, सर्वोच्च न्यायालय हस्तक्षेप कर चुका हो. वैश्विक महामारी के इस दौर में, जब आंकड़ों में तब्दील देश टॉपरों की लिस्ट में हो. हाईकोर्ट तक इस बात की गंभीरता को रेखांकित कर रहा हो. अर्थव्यस्था मुंह के बल हो, बेरोजगारी कलेजा धड़का रही हो. आखिर लोटा ढोती मीडिया का 'रति रहस्य' क्या है? कभी कभी तो लगता है इसे समझने के लिए युधिष्ठिर की भांति महाभारत के अनुशासन पर्व में शरशैय्या पर लेटे मृत्यु की प्रतीक्षा करते भीष्म पितामह की शरण में ही जाना पड़ेगा.
सुशांत प्रकरण में अगर कोई किंतु, परंतु, लेकिन, अर्थात है, तो बेशक उसकी विधिवत जांच होनी चाहिए. प्राकृतिक न्याय पर इस देश के हर नागरिक का अधिकार है. अगर कोई दोषी है तो देश के कायदे कानून के मुताबिक उसे सजा भी मिलनी चाहिए. मगर यह काम जांच एजेंसियों और कोर्ट का है. पत्रकार जैक ऑफ ऑल ट्रेड्स हो सकता है, मगर 'मास्टर ऑफ नन' होता है. यहां तो लग रहा है कि नाहक सीबीआई और कोर्ट को डिस्टर्ब किया गया. यह सारा काम तो न्यूज चैनलों के प्राइम टाइम में ही फरिया जाएगा. मीडिया ट्रायल में ही टीवी स्क्रीन पर आम पब्लिक के सामने पूरी जांच क्या, दूध का दूध, पानी का पानी हो जाएगा. और न्यूज एंकर/एडिटर दोषी (अगर न भी साबित हो) को लाइव फांसी पर लटकाने तक का दायित्व पूरा करने में सक्षम है. रिया के इंटरव्यू पर बड़ी हाय तौबा मची है. रिया को अपनी बात कहने का मौका क्यों नहीं मिलना चाहिए? पुलिस मुखिया तक दरोगा की स्टाइल में 'हैसियत मापक यंत्र' में तब्दील हो गए हैं. लगे हाथ टीआरपी भी आसमान चूमती नजर आ रही. फिलहाल तो नंबर वन का तमगा मिल ही गया है. तब तक अपना बकाया काम सीबीआई और कोर्ट निबटाए. वैसे भी उन पर बहुत वर्क लोड है और मीडिया फुरसत में है.
जरा याद कीजिए निर्भया प्रकरण. या फिर बदायूं और बुलदंशहर कांड. कई बार ऐसा लगता है उसके बाद इस देश में गैंग रेप और हत्या के मामले होने बिल्कुल बंद हो गए हैं. क्योंकि उस ढंग से कोई खबर सुर्खियां नहीं बटोर सकी. निर्भया प्रकरण चूंकि टीवी चैनलों के मुख्यालय वाली दिल्ली का मामला था, तब राजधानी चुनावी बुखार से तप भी रही थी, इसलिए अंजाम तक तासीर बरकरार रखा. बदायूं और बुलदंशहर कांड में क्या हुआ? छोड़िए आप भी कहां इतने बैकवर्ड जिलों का विलाप शुरू कर दिए? भला यही सब बचा है टीवी चैनलों पर नेशनल लेवल पर डिबेट के लिए? अर्थात इस देश में अब क्रांतियां सिर्फ इलेक्शन के वक्त होती हैं.
यूपी-बिहार में अखबारों के बीच गला काट प्रतियोगिता है. बिल्कुल टीवी स्टाइल में. ऐसे में ज्यादातर अखबारों के सिटी एडिशन में देर रात तक की खबरों को फ्लैश करने की होड़ है. क्योंकि वहां हर अगली सुबह का सूरज रिपोर्टरों की मीटिंग के साथ उगता है. अमूमन ऐसी बैठकों में क्राइम रिपोर्टर फोकस पर होता है. डेस्क भी क्राइम की खबरों को क्या ट्रीटमेंट देती है यह बहुत मायने रखता है. जाहिर है ऐसे मौकों पर ब्रांडिंग ठीक ठाक हो जाती है. अगर मौका इलेक्शन का हो, दोनों हाथ में लड्डू. चैनल ही नहीं, अखबार भी इलेक्शन के दौरान स्थापित होते रहे हैं. गौर कीजिए इस बात पर कि जब जहां चुनाव करीब नजर आता है, बरसाती कुकुरमुत्तों की तरह नेता ही नहीं, मीडिया भी नजर आने लगती है, भौंकने लगती है. आखिर क्या कनेक्शन है?
गुलशन नंदा, सुरेंद्र मोहन पाठक, राजहंस, ओमप्रकाश शर्मा आदि लेखकों का इस देश में एक अपना पाठक वर्ग रहा है. क्राइम रिपोर्टरों का भी अपना जलवा होता है, विशेष तौर पर यूपी-बिहार में. घटना दो दशक पहले की है. अपने गांव पर मैं एक शादी में गया था. वहां मेरे एक परिचित मिल गए. दुआ सलाम के बाद बात आगे बढ़ी. उन्होंने अपने कमर में खोंसे रिवॉल्वर को सहेजते हुए (उनके पास उसके होने का एहसास भी मुझे करवाना था) पूछा - आप तो फलां अखबार में हैं. उस अखबार के चीफ क्राइम एडिटर मेरे एक रिश्तेदार हैं. कोई काम हो तो बताइएगा. मैंने जवाब दिया, चीफ क्राइम एडिटर जैसा कोई पद फिलहाल तो किसी हिंदी अखबार में नहीं है. और चीफ एडिटर भी अगर कोई शख्स है, तो बनारस, लखनऊ या कानपुर में नहीं होगा, कम से कम दिल्ली या नोएडा में बैठेगा. (असल में तब तक स्टेट हेड या ग्रुप एडिटर जैसे प्राणी हिंदी पत्रकारिता जगत में नहीं पाए जाते थे). उनका जवाब था, 'हो सकता है आपको पता ही न हो, यह सब हाईलेवल का मामला है. थाना पुलिस उनके इशारे पर नाचती है'.
मेरे पास बकलोल की तरह उनका चेहरा टुकुर टुकुर निहारने के सिवाय कोई चारा नहीं था. वे मेरे ही एक साथी पत्रकार की चर्चा कर रहे थे. पिछले दिनों उस साथी पत्रकार के घर से शादी का न्योता आया. कार्ड पर दर्ज था क्राइम ब्यूरो चीफ. जो पुलिसियाई गमक और ठसक क्राइम ब्यूरो चीफ में है, वह भला सिर्फ पत्रकार में कहां? रिवॉल्वर वाले मेरे उक्त परिचित को उन्होंने ठीक ही समझाया होगा. मगर मुझे यह समझने में 17 - 18 साल लग गए. दिल्ली के एक पत्रकार मित्र फोन पर बता रहे थे कि अरसे तक नंबर वन रहे चैनल को दूसरे नंबर पर जाना बुरी तरह से खल गया. उसने अब सुंदर सुघड़ रीतिकालीन नायिका एंकर को किनारे कर अरसे से धूल फांक रहे धुरंधर क्राइम धनुर्धर को अपना मुखड़ा बनाने का फैसला किया है. इससे आप दर्शकों/पाठकों का मनोविज्ञान और टेस्ट भी समझ सकते हैं.
मेरठ से एक अखबार का बुलावा आया. हावड़ा या सियालदह से सीधी कोई ट्रेन वहां की थी नहीं. सो दिल्ली पहुंचा. तब टीवी की चुनौती झेलने के लिए प्रिंट मीडिया में मल्टी एडिशन अखबारों का चलन शुरू हो चुका था. जनसत्ता में परिचित बडे भाई के यहां आसन जमाया. वे कलकत्ता से ट्रांसफर होकर दिल्ली पहुंचे थे. इसलिए पहले से परिचित थे. सोचा वहीं से अप डाउन मेरठ हो जाएगा. उन्हीं के यहां जनसत्ता के एक पूर्व क्राइम रिपोर्टर से मुलाकात हो गई. जो टटका टटका मेरठ वाला अखबार ज्वाइन किए थे.
कौतुहलवश पूछ बैठा-जनसत्ता और इस नए अखबार में बुनियादी फर्क क्या महसूस हो रहा है? बोले - जनसत्ता में टू द प्वाइंट बात करनी थी. वरना डेस्क वाले कतर देते. अब तो उनके मुताबिक खबर लिखने की आदत भी हो गई थी. मगर यहां चार पांच पेज लोकल जिले के लिए हैं. उन्हें जिले की खबरों से भरना है. जनसत्ता में सीधे लिखते थे कि फला जगह फला के घर में फला दिन फला समय चोरी हुई. पुलिस ने क्या एक्शन लिया. यहां बात की शुरुआत चोर के चोरी करने के मूड बनाने से होती है, कैसे कैसे दाखिल होता है, क्या क्या कैसे कैसे चुराता है, इसके अलावा और क्या क्या हरकत करता है. क्लाइमेक्स में पुलिस की पूरी एक्टिविटी होती है. भाई इतने हजार बाइट खबर रोज देनी है. तो और क्या करेंगे? खुद चोरी करने, डाका डालने या एक्सीडेंट करने तो जाएंगे नहीं? इन दिनों क्राइम रिपोर्टर मेरे वह मित्र देश के नंबर वन चैनल में धर्म अध्यात्म बीट देख रहे हैं. जाहिर है ऐसी क्राइम रिपोर्टिंग के बाद आदमी अध्यात्म की तरफ मुड़ ही जाएगा.
चलिए लौट कर यूपी चलते हैं. देर रात क्राइम रिपोर्टर दाखिल हुए. मैंने अनुरोध किया मान्यवर, टाइम से अपनी खबरें फाइल कर दें, रोज एडिशन लेट हो रहा है. उनका जवाब था - सर, तीन चार छोटी मोटी खबरें हैं, उसे चट से आपको देता हूं, एक रेप की खबर है, सोच रहा हूं उसे 'मन' से लिखूंगा, आखिरी में दूंगा. मामला गंभीर है. मरता क्या नहीं करता, मैंने भी हामी भर दी. मगर उन्होंने मन से लिखने में इतना समय ले लिया कि बिना मेन्टॉस खाए मेरे दिमाग की बत्ती जलने लगी. बाद में मामला कंट्रोल से बाहर होता नजर आया. फिर मैंने एक डेस्क के साथी से कहां, सरसरी निगाह दौड़ाइए. अनुभवी पत्रकार की कॉपी है. ऊपर से उन्होंने मन से लिखने की मोहलत ली थी. फटाफट अखबार फाइनल छोड़िए, वरना सुबह सारा गुड़ गोबर हो जाएगा. अगले दिन समीक्षा हमारे बीच ही हुई. आपत्ति सिर्फ इतनी हुई कि रेप की खबर को इतना तानना उचित नहीं था. तब संपादक नाम की संस्था कई बार खुली हवा में सांस ले लिया करती थी. अपराध और अपराधियों की खबरों को इतना तवज्जो देने पर सवाल पूछे जाते थे.
मगर उस खबर में एक और आपत्तिजनक बात थी. खबर की शुरुआत में बाथरूम में नहाने, ऐन मौके पर किसी के पहुंचने, दरवाजा खोलने और इसके बाद वारदात होने तक ब्योरा वाकई 'मन' से लिखा गया था. ऐसा लग रहा था पीड़िता रेप के लिए न्योता दे रही हो. कुछ साल बाद अखबार के आलाकमान बदल गए. रीति नीति बदल गई. वही अखबार रेप स्पेशलिस्ट हो गया. उस अखबार को नए सिरे से स्थापित होने में रेप की खबरों ने अह्म रोल प्ले किया, भले सिद्धांत के साथ बलात्कार हो गया. हां, जनता जनार्दन के बीच कुछ इस अंदाज में प्रचार किया गया कि लगा बेटी के सम्मान में अखबार भी था मैदान में. इसलिए 18 साल से नंबर वन रहे चैनल को एक मुद्दे ने अगर नंबर टू पर पहुंचा दिया तो हैरत नहीं होती. असल में कई समीकरण एक साथ काम करते हैं. बिहार में इस बार चुनाव पार्टियों के बीच नहीं, बिहार बनाम महाराष्ट्र होगा. गोटियां बिछाई जा चुकी हैं. क्योंकि बाढ़, कानून व्यवस्था और कोरोना जैसे मुद्दों पर चुनाव लड़ना अब ओल्ड फैशन है. हिडेन एजेंडा समझिए.
एक विधायक पर रेप का आरोप लगा. उनके ही जिले का उनकी ही पार्टी का एक दूसरा दबंग विधायक उनकी सीट से अगली बार अपने बेटे को चुनाव लड़वाना चाहता था. इसलिए वह साजिश रचा. पीड़ित विधायक सवर्ण थे. माफिया दबंग विधायक दूसरे समुदाय के थे. पार्टी के लिए माफिया विधायक ज्यादा मायने ऱखते थे, वोट और नोट दोनों लिहाज से. इसलिए दबंग का पलड़ा भारी था. यह राजफाश उसी पार्टी के पड़ोसी जिले के विधायक ने किया. पूरी बात संपादक से लेकर रिपोर्टर तक को पता थी. मगर जाति, धर्म और सैद्धांतिक निष्पक्षता कुछ काम न आया. उस विधायक का पूरा करियर चौपट हो गया, बुढापे में लांछन लगा सो अलग. अब तो नाम भी कहीं नहीं सुनाई देता. दबंग विधायक के भी सितारे इन दिनों गर्दिश में चल रहे हैं. उस पार्टी से निकाल दिए गए, जिसके सुप्रीमो के आंख के तारे थे. उस खबर के लिए ऊपर से आदेश भी था कि सरकार के खिलाफ कोई बात न हो, लिखा यह जाए कि अफसर सरकार को बदनाम करने पर तूले हैं. कार्रवाई नहीं कर रहे हैं. ऐसा इसलिए कि तब की सीएम संपादक तक से बात करना तो दूर, घास तक नहीं डालती थी, सीधे अखबार मालिक के यहां फोन जाता. और सामने इलेक्शन था, मतलब गिद्धों का महाभोज.
अगर इस तरह की खबरें टीआरपी या सर्कुलेशन के लिहाज से जंपिंग पैड साबित होती हैं तो जाहिर है इससे आम लोगों के टेस्ट का भी पता चलता है. क्राइम फिक्शन का अपना एक बाजार है. जॉन ग्रिशम, अगाथा क्रिस्टी, गार्डनर, सिडनी शेल्डन, स्टीफन किंग, जेफ्री आर्चर जैसे लेखकों की व्यावसायिक सफलता इस बात की तस्दीक करती है. मगर पत्रकारिता में इस मेधा के इस्तेमाल? तब पंजाब में वहां के एक लोकल अखबार का एक छत्र राज था. यूपी के दो बड़े अखबारों ने उसमें सेंध लगाने की जुगत भिड़ाई. एक अखबार के मुलाजिम की हैसियत से मैं भी वहां पहुंचा. शुरुआत में हमे पंजाब में अखबार प्रबंधन ने वहां के लोगों को समझने बूझने का पर्याप्त मौका दिया. पता चला वहां का सर्वाधिक पढ़ा जाने वाले अखबार में क्राइम की खबरों, विशेष तौर पर रेप की खबरों को बहुत ट्विस्ट कर छापने का चलन है. उस अखबार का पहला पेज इस तरह की खबरों या फिल्मी गॉशिप्स और रंगीन ग्लैमर्स तस्वीरों से अटा पड़ा मिलता. कितनी भी बड़ी कोई अन्य घटना हो, पेज तीन से शुरू होगी. वहां बाकी खबरें छोटी छोटी होती. जाहिर है वहां अखबार की रीडरशिप नहीं, व्यूअरशिप मायने रखती. लोग आंख सेंकने और मनोरंजन के लिए अखबार का इस्तेमाल करते हैं.
बारिश का मौसम है. पानी की कोई कमी नहीं है. आप जितना चाहे पी पीकर कोसिए. मगर सारा ठीकरा मीडिया के मत्थे फोड़कर दर्शक और पाठक दूध के धूले नहीं हो सकते. टीआरपी या सर्कुलेशन तभी बढ़ता है जब पब्लिक देखती या पढ़ती है. लोकतंत्र में लोक नदारद रहेगा तो तंत्र कौन सा मंत्र बाचेगा?
शरशैय्या पर लेटे मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे भीष्म. शंका समाधान के लिए वे युधिष्ठिर को भंगस्वाना और सकरा की कथा सुनाते हैं. इस कथा के क्लाइमेक्स में सकरा देवराज इंद्र से कहती हैं कि उन्हें दोबारा पुरुष बन कर राजपाट संभालना मंजूर नहीं है, उन्हें स्त्री रूप में ही रहने दिया जाए. लोक ही अगर 'तथास्तु' कह कर इंज्वॉय कर रहा है तो कॉरपोरेट मीडिया क्यों मौका चूके? उसके लिए तो अपना फायदा देखना ही पत्रकारिता धर्म है.