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विशालकाय सेट पर अर्णब का दौड़ना चैनलों की अंतहीन पीड़ा - रवीश कुमार

रवीश कुमार
28 May 2019 12:49 PM IST
विशालकाय सेट पर अर्णब का दौड़ना चैनलों की अंतहीन पीड़ा - रवीश कुमार
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कुणाल कामरा की टीम का एक वीडियो व्हाट्स एप पर आया। इस वीडियो में हमारे पूर्व सीनियर और एडिटर अर्णब गोस्वामी दौड़ते हुए टीवी के सेट पर आ रहे हैं। उनके पीछे दो और मेहमान दौड़ते हुए आ रहे हैं जिन्हें एग्ज़िट पोल के कार्यक्रम में बोलना है। अर्णब दोनों से आगे दौड़ रहे हैं। उन्हें भागते देख लगा कि हम जैसे मोटे-झोटे एंकर तो बीच मे ही दांत चियार देते। मुंह से झाग फेंक देता। मगर अर्णब ख़ूब दौड़ रहे हैं। थोड़ी देर के लिए कैमरे के सामने रूकते हैं और फिर दौड़ते हुए कुर्सी पर बैठे गेस्ट के पीछे दौड़ने लगते हैं। बोलने वाले मेहमान आंखें चुरा रहे हैं कि कहीं अर्णब उन पर लाल रूमाल न रख दें और एलानिया अंदाज़ में कह उठें कि अब दौड़ने की आपकी बारी है। दर्जनों गेस्ट बच्चों की बर्थ डे पार्टी की म्यूज़िकल चेयर प्रतियोगिता अंदाज़ में बैठे हुए थे। एक ऐसे दौर मे जब अंग्रेज़ी के एंकर एनिमेशन वाले हेलिकाप्टर में उड़ने का सपना पालते हैं, अर्णब रीयल सेट पर दौड़ कर अंग्रेज़ी के आम आदमी बने हुए हैं। मैं अर्णब की तारीफ़ करना चाहता हूं कि उन्होंने अपने साथ दो मेहमानों को भी दौड़ाया। उन्हें मुर्गा नहीं बनाया। अपने मेहमानों के प्रति ऐसी शराफ़त की उम्मीद सिर्फ अर्णब से ही की जा सकती है।

मैंने पूरा शो नहीं देखा। पीईंग इंडियन की बनाई क्लिप ही देखी। अर्णब ने न सिर्फ ख़ुद को और डिबेट को कामेडी में बदलने की कृपा की है बल्कि कामेडियन को भी एक सब्जेक्ट उपलब्ध कराया है। एग्ज़िट पोल के दिन जो अर्णब ने किया है वह थोड़ी बहुत मात्रा में दूसरे चैनलों में होता रहा है। यह सब अलग-अलग समय में और अलग-अलग कार्यक्रमों के बहाने हुआ है। रिपोर्टर, एंकर और चैनल ब्रांड के साथ एकाकार हुए हैं। अर्णब ने जो किया है वह इस प्रक्रिया की समग्र प्रस्तुति थी। उनका विशाल सेट प्रगति मैदान में लगने ऑटोमोबिल मेले की तरह हो गया था। जहां लाल कालीन पर कारें खड़ी हैं। खुली जगह पर डेस्क पर हसीनाएं कार की छवि को अपने रूप मे ढालती नज़र आती है। यह सब एकाकार होने की प्रक्रिया है। बाज़ार विलय चाहता है। वह हीरो से भी विलय करता है और विलेन से भी विलय करता है। जल्दी ही दिल्ली का प्रगति मैदान तैयार होने जा रहा है। उम्मीद करता हूं कि अर्णब अगले चुनाव में उसे किराये पर लेंगे और पूरे प्रगति मैदान को सेट में बदल देंगे। वे जिस तरह से पूरे दिन बैठकर शो करते हैं एक दिन उनके भागने के लिए दिल्ली भी कम पड़ जाएगी।

अर्णब घंटों एंकरिंग करते हैं। स्टुडियो में बैठ कर एंकरिंग करते हैं। अब तो इंग्लिश में भी बैठते हैं और हिन्दी में भी बैठते हैं। इसलिए लाज़िमी है कि वे अपने स्टुडियो को ट्रेड मिल में बदल दें और बीच-बीच में दौड़ा करें। साथ में बुलेट भी रखें। जब गेस्ट बोल रहे हों तो वे बाइक लेकर ख़ान मार्केट भी चले जाएं और वहां से ख़ान चाचा की बिरयानी लेकर आ जाएं। या ये भी हो सकता है कि अर्णब बात करते-करते डोमिनोज़ पित्ज़ा आर्डर करें और वहीं पर डिलिवर हो जाए। फिर बोलने आए मेहमान ठूंस कर खाते भी रहे और जम कर बोलते भी रहे। कोक और पेप्सी में प्रतियोगिता हो जाएगी कि किसका पेय-पदार्थ एंकर के सेट पर रहेगा। अर्णब को दौड़ते देख लगा कि भारत में नाइकी और रिबॉक के सीईओ को हटा देना चाहिए। उनके रहते अर्णब चमड़े के जूते में दौड़ रहे हैं। उनकी कंपनी क्या कर रही थी। क्या नाइकी और रिबॉक को नहीं जाना था अर्णब से मिलने। लेकिन मुझे पता है अर्णब सिर्फ रिलैक्सो पहनेंगे या श्री लेदर या खादीम। बाटा या नाइकी नहीं पहनेंगे। अर्णब की भारतीयता पर किसी को शक नहीं होना चाहिए।

होना यह चाहिए कि अर्णब के साथ वो जवां लड़के लड़कियां भी अपने प्रोडक्ट को लेकर दौड़ते रहें जो अपने शो रूम के बाहर सज-धज कर खड़े रहते हैं। लगेगा कि हम ख़ान मार्केट में आ गए हैं और अर्णब ने वहां के सारे गैंग का सफाया कर दिया है। लगातार बैठने वाले एंकरों को आपने देखा होगा कि वे पीठ सीधी कर रहे हैं। उनके भीतर एक इच्छा तड़प रही होती है कि खड़े हो जाएं। शरीर अकड़ गया है। वे सोचते ही रह गए और अर्णब ने दौड़कर दिखा दिया। वे टीवी में सिर्फ ऊब पैदा नहीं करते हैं बल्कि उस ऊब से ख़ुद निकलने की तरकीब भी खोज लाते हैं। अर्णब बोर हो गए थे कई साल से बैठ बैठ कर एंकरिंग करते करते। उन्होंने दौड़ लगाकर एलान कर दिया है कि निकट भविष्य का एंकर वो होगा तो अटल स्टेडियम में दस चक्कर दौड़ लगाकर स्टुडियो पहुंचेगा।

अर्णब को दौड़ता देखा तो लगा कि वे हर तरह के भय या लोक-लाज से आज़ाद है। यह मनुष्य होने की सर्वोच्च अवस्था है। आप कुछ भी कह लें, आज के मनुष्य से कहीं ज़्यादा बेहतर पाषाण युग का मनुष्य था। उसकी प्रसन्नता और जीवंतता लाजवाब थी। मौज उसके जीवन का हिस्सा था। अर्णब महानगरीय होते हुए भी पाषाणयुगीन हैं। तभी तो हमारे प्रधानमंत्री चुनाव प्रचार ख़त्म कर पाषाण युग की कंदरा में गए। वहां जाने का एक ही रूपक था कि इंसान जहां से आया है, उसे वहीं जाना होता है। वह अपनी यात्रा ख़त्म नहीं करता बल्कि उसी बिन्दु पर पहुंचता हैं जहां से शुरू करता है। यही जीवन है। यही राजनीति है और यही न्यूज़ चैनल है। अर्णब अपने आप में मर्यादा हैं। उन्होंने नई लोक-लाज व्यवस्था बनाई है। अपने अंतर्विरोधी से लदी फदी पत्रकारिताओं के दोहरेपन को अर्णब ने ढहा दिया। उसे सुधारने का प्रयास नहीं किया। बल्कि पतन की नई रेखा खींची है। पंतन अंतिम नहीं होता है। पतन में भी सृजन के बीज छिपे होते हैं। जिस तरहे अंधेरे दौर के कवि होते हैं उसी तरह अर्णब पत्रकारिता के पतन के सृजनकर्ता हैं। अर्णब होना ब्रह्म होने की अवस्था है। वे पत्रकारिता में लीन हैं और अर्णब पत्रकारिता में लीन हैं।

नतीजों के दिन चैनलों को कुछ हो जाता है। सीएनएन ने तो लेज़र तकनीक के ज़रिए एंकरों को अवतरित होते दिखाया था। जो हमारे प्रिय निर्देशक रामानांद सागर बहुत पहले कर चुके थे। हम सबने बचपन में देखा था कि कैसे नारद मुनी आते हैं और फिर अंतर्ध्यान हो जाते हैं। भारत में अंतर्ध्यान होने की तकनीक प्लास्टिक सर्जरी से भी पहले की है। इस तकनीक का बाद सीएनएन के बाद 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी ने किया था। मुझे पहली बार प्रधानमंत्री की भारतीय संस्कृति के बारे में कम जानकारी पर पांच सेंकेंड के लिए रोष हुआ था। बाद में मैंने ख़ुद से माफी मांगी। प्रधानमंत्र मोदी ने थ्री डी तकनीक का इस्तमाल कर जनता को याद दिलाया कि भारत ने जिस तकनीकि को खोज कर फेंक दिया है, पश्चिम उसे खोज कर शेखी बघार रहा है।

अर्णब की इस अवस्था के पहले के एंकर नतीजों के दिन घुमावदार सीढ़ियों से उतर कर आते थे। दूसरे चैनलों में एक एंकर इधर से आता था, दूसरा एंकर उधर से आता था। पिक्चर देखने के बाद हम जिन सीढ़ियों से लुटे-पिटे अंदाज़ में चुपचाप उतरते थे, उन्हीं सीढ़ियों से एंकर जोड़ी चिल्लाते हुए एंट्री मारते हैं। अर्णब अंग्रेज़ी बोलते हैं लेकिन अब वे सदरी पहनते हैं। वो दिन दूर नहीं जब अर्णब को चुनौती देने वाला एंकर धोती कुर्ता पहनकर आएगा। बल्कि धोती कुर्ता क्यों नहीं पहन सकता। जिसे धोती ठीक से बांधनी आती है उसे पहननी चाहिए। सिर्फ एक यही बात मज़ाक में नहीं कह रहा क्योंकि धोती बहुत ही सुंदर परिधान है। चूंकि अब स्टुडियो में दौड़ना भी पड़ेगा तो धोती ठीक से बांधनी आनी चाहिए। इलास्टिक वाली धोती पर भरोसा न करें। अहा, मालगुड़ी डेज़ के मंजुनाथ की याद आ गई।

बाज़ार ने चैनलों को बदला है। पहले एंकरों के सामने लगे लैपटॉप पर अपना लेबल चिपकाया। फिर हेडलाइन बिका। फिर मौसम के तापमान के पीछे उत्पाद आ गए। इसी दौर में क्रिकेट के मैदान में खिलाड़ी के कपड़े की हर जगह पर उत्पादों का लेबल चिपकने लगा। बल्ले के पीछे उत्पाद के नाम चिपकाए जा रहे थे उम्मीद करता हूं कि जल्दी ही एंकरों के कपड़े पर कई सारे उत्पादों के लेबल होंगे। यहां तक कि भीतर किस कंपनी का पहना है, उसका नाम भी बाहर लिखा होगा। अर्णब के सेट पर निशान कंपनी की कार प्रवेश करती है। एक मेहमान अपनी पतलून खींच रहे हैं। जल्दी ही नेताओं को नाड़ा कसते हुए लाइव दिखाया जाएगा। इसका लाभ यह होगा कि ब्रेक नहीं लेना पड़ेगा। जब एंकर सारा प्रोडक्ट लेबल के साथ पहन कर दिख ही रहा है तो ब्रेक की क्या ज़रूरत। इस तरह अलग से विज्ञापन बनना बंद हो जाएगा। लगे हाथ हम जैसे एंकर भाभी के हाथ का बना अचार भी मेज़ पर रख देंगे। कोई बोलेगा तो कह देंगे सावधान ये स्वदेशी जागरण मंच है! टोकने वाला 2024 तक चुप हो जाएगा।

अर्णब ने टीवी की बोरियत को ध्वस्त कर दिया है। मगर वे टीवो को बोरियत से नहीं उबार पा रहे हैं। उन्हें पता है कि टीवी में अब सूचना नहीं है। रिपोर्टिंग नहीं है। टीवी की बोरियत उनके भीतर भर गई है। उसे तोड़ने के लिए दौड़ना ज़रूरी है। चैनलों ने पहले दर्शक के भीतर का दर्शकपन ख़त्म किया। भूत प्रेत दिखाया। फिर रिपोर्टिंग ख़त्म हुई। रिपोर्टर ख़त्म हो गए। बच गए एंकर। अर्णब के पहले के 90 फीसदी एंकरों ने टीवी को ध्वस्त किया। आज वे ख़राब एंकर भी अर्णब से नहीं लड़ पा रहे हैं। सबसे अधिक लाचार वही महसूस करते होंगे कि चैनलों से न्यूज़ संस्कृति को हमने ध्वस्त किया और हमें ही बी ग्रेड समझा जाने लगा, ए ग्रेड तो अर्णब ही हैं। वैसे कुछ एंकरों ने चाकलेटी फ्रेम में ढालने की कोशिश की। उन्हें भी अंग्रेज़ी आती थी और बचपन में हार्स राइडिंग सीख रखी थी। एंकरिंग के दौरान मेहमान के साथ हार्स राइडिंग यानी घुड़सवारी करने लगे। जिन्हें देखते ही धर्मवीर का गाना याद आने लगता है। तोड़े से भी न टूटे भई ये धर्मवीर की जोड़ी। सात अजूबे इस दुनिया में आठवीं अपनी जोड़ी।

चैनलों के भविष्य में पत्रकारिता नहीं है। उस रास्ते पर लौटने के लिए अब दस साल और सैंकड़ों रिपोर्टर तैयार करने का धीरज किसी में नहीं है। न ही नीयत है। हर चैनल में अर्णब का ही विस्तार होगा। एक ही एंकर होगा जो ब्रश करते हुए सुबह आ जाएगा, नाश्ता करते हुए भी डिबेट करेगा, नहाते और हगते समय क्या करेगा, यह उसका अपना फैसला होगा। बल्कि जिस तरह हम देखते हैं कि किराने वाला अपने घर के ड्राईंग रूम को ही दुकान में बदल देता है, उसी तरह अब स्टुडियो होगा। सामान सज़ा होगा, आपको लगेगा कि कोई नहीं है, जैसे ही झांकेंगे नीचे कोई सोया मिलेगा या सामने के दरवाज़े से आंटी निकल आएगी कि बोलो क्या चाहिए।

इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है। एंकर के घर को ही सेट में बदलना होगा या सेट को एंकर का घर बना देना होगा। एक तरफ बच्चों के ट्यूशन सर पढ़ा रहे हैं और दूसरी तरफ पापा राहुल गांधी को ललकार रहे हैं। तभी अचानक मोदी जी पूजा करते हुए लाइव पर आ जाएंगे। जिसे देखते ही पंडित जी मंत्र पढ़ने लगेंगे। घर में आरती होने लगेगी। हमारे जैसों का भविष्य तो ख़राब है ही, गोदी मीडिया के उन एंकरों का भी भविष्य समाप्त होने वाला है जो एक शो के एंकर हैं। अर्णब ही अपने आप में शो में हैं। एंकर को ही चैनल बनना होगा। चैनल में एंकर नहीं होंगे। एंकर में चैनल होगा।

हम जो यह ज़माना देख रहे हैं उसमें न्यूज़ समाप्त हो गया है। अगर कहीं न्यूज़ बचा है तो वह स्पीड न्यूज़ है जो बड़बड़ाता हुआ आता है और हड़हड़ाता हुआ चला जाता है। टीवी का दर्शक और एंकर का आपस में विलय हो चुका है। दोनों एक जैसे हो गए हैं। वह डिबेट को ही न्यूज़ मानने लगा है। लोग भी हमारी ख़बर दिखाने की बजाए कहते हैं कि आप इस पर डिबेट करें। चैनलों ख़बरों से खाली हो चुके हैं। उन रिक्त स्थानों को अर्णब बन कर ही भरा जा सकता है। राजनीतिक दल के प्रवक्ता और रिटायर हो चुके पत्रकार अगर किसी शाम को चैनल न जाएं तो उस दिन चैनल अपने आप बंद हो जाएंगे। जिन बुज़ुर्ग पत्रकारों को आमदनी की ज़रूरत हैं सिर्फ वही जाएं। जिनका गुज़ारा चल सकता है उन्हें अपने पेशे को बचाने के लिए चैनलों पर नहीं जाना चाहिए।

यही अपील मेरी खुद को ठीक समझने वाले एक्सपर्ट से भी है कि वे न्यूज़ चैनलों पर न जाएं। आप यकीन मानिए सिर्फ इतना करने से वे भारत में पत्रकारिता को बचा सकते हैं। आप वहां भी न जाएं जहां अच्छा एंकर हो और वहां भी न जाएं जिसे आप बुरा एंकर मानते हैं। जून की तपती गर्मी में भेंड के ऊन से बनी टोपी पहनकर जाने वाले मौलानाओं को डिबेट में जाने से दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती है। सिर्फ मैं उनसे टीवी डिबेट में जाते रहने की अपील कर रहा हूं क्योंकि मना करने पर भी ये जाते रहेंगे। रहमानियों और नोमानियों को मंदिर और मुसलमान के डिबेट में जाते रहना चाहिए।

डिबेट के फार्मेट को समझिए। दो चार दिनों के डिबेट को छोड़ दें तो आप अच्छा और बुरे एंकर के डिबेट के बीच कंटेंट के आधार पर फर्क नहीं कर सकते हैं। एक डिबेट का मतलब है बहुत सारी खबरों की हत्या। उनकी कीमत पर एक टापिक पर लोग बोले जा रहे हैं। अब तो पूरा चैनल ही डिबेट हो गया है। तो आप के बीच कंटेंट के आधार पर कम हरकतों के आधार पर ही ज़्यादा करते हैं। कटेंट ही नहीं है तो उसके आधार पर आप क्या फर्क करेंगे। इसमें थीम पर डिबेट होता है। जिस पत्रकारिता को स्टुडियो के बाहर दौड़नी चाहिए वह पत्रकारिता स्टुडियो के भीतर दौड़ लगा रही है। दौड़ने का भ्रम पैदा कर रही है।

राजनीतिक दलों से भी गुज़ारिश है कि अगर वे मीडिया में बदलाव को लेकर गंभीर हैं तो अपने प्रवक्ता किसी भी न्यूज़ चैनल में न भेजें। जो प्रवक्ता अपने दल का काम नहीं करते हैं वो न्यूज़ चैनलों का काम करने शाम क्यों जाते हैं। उन प्रवक्ताओं को संगम विहार और शकूरबस्ती भेजकर हर दिन किसी चौक पर भाषण कराएं। इनका आना बंद हो जाएगा तो चैनल मजबूर होंगे रिपोर्टिंग की तरफ मुड़ने के लिए। बीजेपी को भी प्रवक्ता भेजने पर विचार करना चाहिए। मोदी गुणगान से चैनलों ने खूब कमाई की है। इसे मैं लो-कॉस्ट चमचागिरी कहता हूं। क्या आपने गोदी मीडिया के चैनलों पर प्रधानमंत्री आवास योजना पर खूब सारी दिन रात रिपोर्ट देखी? क्योंकि ऐसा करने पर चैनलों को खर्च करना पड़ता। बीजेपी चैनलों से कहे कि हमारे कारण आपकी कमाई बढ़ी है तो आप हमारे गुणगान में कुछ निवेश भी करें। इस एक फैसले से बीजेपी सैंकड़ों रिपोर्टरों की नौकरी पैदा कर सकती है। उसे सिर्फ बीस प्रवक्ता टीवी से हटाने हैं और बदले में सैंकड़ों रिपोर्टर के लिए नौकरी पैदा हो जाएगी।

वैसे मेरी अपील यही है कि आप न्यूज़ चैनल न देखें। देख भी रहे हैं तो उसके संकट को समझने के लिए देखें। नरेंद्र मोदी को वोट देते रहने के लिए चैनल देखना ज़रूरी नहीं है। आपने प्रधानमंत्री मोदी को चुना है एक सशक्त भारत बनाने के लिए। मैं आपकी इसी नीयत पर भरोसा करते हुए कह रहा हूं कि आप टीवी देखना बंद कर दें ताकि उस सशक्त भारत की पत्रकारिता भी दुनिया में मुंह दिखाने लायक हो सके। मोदी की जीत के पीछे छिप कर गोदी एंकर जितना हुंकार भर लें मगर जो सच है वो सभी के लिए सच है। यकीन मानिए आप डिबेट टीवी न देखकर भारत की पत्रकारिता को ठीक कर सकते हैं। आप एक काम बता दीजिए जो बग़ैर मेहनत के कर सकते हैं। डिबेट टीवी नहीं देखने के लिए किसी मेहनत की ज़रूरत नहीं है। अगर नहीं तो जिस तरह अर्णब दौड़ रहे हैं, उसी तरह आप भी टीवी दौड़ते हुए दौड़िए। बल्कि बहुत लोग जिम में ऐसा ही करते हैं। पहले दर्शकों ने दौड़ते दौड़ते टीवी देखा, अब एंकर दर्शक को दिखाने के लिए दौड़ रहे हैं। जय सियाराम।

आमीन।

रवीश कुमार

रवीश कुमार

रविश कुमार :पांच दिसम्बर 1974 को जन्में एक भारतीय टीवी एंकर,लेखक और पत्रकार है.जो भारतीय राजनीति और समाज से संबंधित विषयों को व्याप्ति किया है। उन्होंने एनडीटीवी इंडिया पर वरिष्ठ कार्यकारी संपादक है, हिंदी समाचार चैनल एनडीटीवी समाचार नेटवर्क और होस्ट्स के चैनल के प्रमुख कार्य दिवस सहित कार्यक्रमों की एक संख्या के प्राइम टाइम शो,हम लोग और रविश की रिपोर्ट को देखते है. २०१४ लोकसभा चुनाव के दौरान, उन्होंने राय और उप-शहरी और ग्रामीण जीवन के पहलुओं जो टेलीविजन-आधारित नेटवर्क खबर में ज्यादा ध्यान प्राप्त नहीं करते हैं पर प्रकाश डाला जमीन पर लोगों की जरूरतों के बारे में कई उत्तर भारतीय राज्यों में व्यापक क्षेत्र साक्षात्कार किया था।वह बिहार के पूर्व चंपारन जिले के मोतीहारी में हुआ। वह लोयोला हाई स्कूल, पटना, पर अध्ययन किया और पर बाद में उन्होंने अपने उच्च अध्ययन के लिए करने के लिए दिल्ली ले जाया गया। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक उपाधि प्राप्त की और भारतीय जन संचार संस्थान से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा प्राप्त किया।

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