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रवीश कुमार बोले, हर इलाक़े को अपना मीडिया बजट बनाना चाहिए, फिर मीडिया से बात करनी चाहिए
एक इलाक़े के लोगों ने संपर्क किया। इस इलाक़े के नाम में कॉलोनी चिपक गया है, कई बार गाँव भी लिखा जाता है लेकिन यह आम कॉलोनी और गाँव से काफ़ी बड़ा है। लोगों ने कहा कि मीडिया उनकी समस्या को नहीं दिखाता है।उन्हें मुझसे से उम्मीद है। मैंने उनसे एक सवाल किया। आपकी कॉलोनी में कितने मकान है। तो बताया कि काफ़ी बड़ी कॉलोनी है। क़रीब पाँच लाख मकान होंगे। फ़िलहाल मान लेते हैं कि इतने ही घर होंगे।
दूसरा सवाल था कि हर घर से एक अख़बार और टीवी पर कितना ख़र्च होता होगा? तो जवाब मिला कि कम से कम से 200 रुपया। हमने अपनी तरफ़ से मान लिया कि एक लाख घरों में अखबार, टीवी नहीं आता होगा। केवल चार लाख घरों में अख़बार आता होगा या केबल टीवी का कनेक्शन होगा।
मैं गणित में कमज़ोर हूँ,इसलिए कैलकुलेटर पर हिसाब लगाना पड़ा। इतना ज़ीरो आ गया कि दो-बार तीन बार करना पड़ गया। पता चला कि हर महीने उस कॉलोनी से अख़बार और टीवी पर क़रीब आठ करोड़ रुपये ख़र्च करते हैं। हालत यह है कि यहाँ रहने वाली जनता कोई बहुत नहीं कमाती है। ऐसी बस्तियों में रहने वाले लोग बेहद मामूली तनख़्वाह पर काम करते हैं।हमने बस उनसे इतना ही कहा कि अख़बार और केबल का कनेक्शन कटवा दें। इस आठ करोड़ से आप बारी-बारी से सारी सड़कें बनवा सकते हैं। उनकी प्रतिक्रिया इस तरह की थी, जैसे मैंने उनसे रसायन शास्त्र की परीक्षा में कैलकुलस का सवाल पूछ लिया हो।
अगर जनता अपने लिए इतना नहीं कर सकती, जबकि यह सबसे आसान रास्ता है। इसमें तो कपड़े भी गंदे नहीं होंगे, पुलिस केस भी नहीं होगा। कोई दल नाराज़ नहीं होगा। चुपचाप अख़बार बंद कर दीजिए। केबल का कनेक्शन कटवा दीजिए। छह महीना मीडिया से दूर रह ही लेंगे तो क्या हो जाएगा।कहीं कोई छाप भी देगा तब भी सरकार कुछ नहीं करती है। तो यह भी साबित है कि छपने से भी कुछ नहीं होता, तब फिर आप महीने का दो सौ क्यों दे रहे हैं?
मेरी राय में ऐसी कोई भी कॉलोनी है, जहां जनता परेशान है, पानी, नाली की दिक़्क़तें हैं, जीवन स्तर अपमानजनक है, वहाँ पर पूरी कॉलोनी के लोगों को मिलकर मीडिया का बजट बनाना चाहिए। हर घर का हिसाब हो कि केबल टीवी से लेकर अख़बार पर कितना खर्च होता है। अगर वह राशि करोड़ों में निकल कर आती है तो लोगों को उस पैसे का इस्तेमाल अपने लिए करना चाहिए। अख़बार या चैनल के लिए नहीं।
कॉलोनी को इस आधार पर मीडिया से बात करनी चाहिए कि हमारे यहाँ से दो करोड़ रुपये का अख़बार ख़रीदा जाता है। इसमें डेढ़ करोड़ आपके अख़बार पर ख़र्च होता है।
एक तो आप छापते नहीं है और दूसरा इस तरह से छापते हैं कि असर नहीं होता है। तब फिर हम आपका अख़बार क्यों पढ़ें? आपका चैनल क्यों देखें?
यही कोई अंतिम समाधान नहीं है, लेकिन जब तक कोई मुकम्मल रास्ता नहीं मिल जाता तब तक यह तरीक़ा आज़मा कर देखा जा सकता है। इतनी मेहनत अगर आप अपने लिए नहीं कर सकते तब फिर दूसरा आपके लिए इतनी मेहनत क्यों करेगा?